जलियांवाला बाग हत्याकांड: प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीयों की वफादारी का रक्तरंजित इनाम!


100 years of Jallianwala Bagh massacre

 

अंग्रेजी शासन से भारत को आजादी दिलाने की जो लड़ाई लड़ी गई, उसमें जालियांवाला बाग हत्याकांड एक ऐसा मुकाम है जिसे भारतवासी कभी भूल नहीं सकते हैं. आज से ठीक सौ बरस पीछे के औपनिवेशिक भारत में यह घटना सत्ता के घमंड और उसके द्वारा एक पूरी की पूरी कौम को केंचुआ समझ लेने की एक मिसाल है.

प्रथम विश्वयुद्ध खत्म हो चुका था. भारत के लोग आजादी और प्रतिनिधित्व चाह रहे थे जबकि अंग्रेज शासक ऐसी किसी भी मांग को कुचल देना चाहते थे. एक ही समय टेम्स नदी के किनारे उदारवाद एवं लोकतंत्र और भारत में रावी नदी के किनारे हिंसा, भय और शासक वर्ग की दबंगई बह रही थी. अगर कोई इस समय के ग्रेट ब्रिटेन और भारत के शासक वर्ग के चरित्र को देखे तो पता चलेगा कि अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उदारवाद और लोकतंत्र की डींग हांकने वाला एक देश दूसरे देश के लोगों पर गोली चालन कर रहा है, उन्हें गलियों में रेंगने के लिए मजबूर कर रहा है.

भारत में उस दिन बैसाखी का मेला था जब 13 अप्रैल 1919 को ब्रिटिश शासित अविभाजित पंजाब सूबे के अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के निकट जलियांवाला बाग में हजारों लोग इकट्ठा हुए थे.

उस समय जब संचार के साधन इतने ज्यादा विकसित नहीं थे तो मेले और ऐसे ही सांकृतिक दायरे लोगों के जुटने की जगह हुआ करते थे. लोग आपस में मिलते, हंसी-खुशी तो बांटते ही थे, यहां वे अपने विचार भी व्यक्त करते थे- शाहे वक्त के बारे में, देश-दुनिया के बारे में. एक बड़ी ग्रामीण जनसंख्या वाले भारत का पब्लिक स्फेयर इन मेलों में बनता था.

1857 के बाद से ही यह मेले-हाट-बाजार अंग्रेज हुक्मरानों की निगाह में थे. साथ ही साथ भारतीय नेता, पत्रकार, अध्यापक और बुद्धिजीवी भी इन जगहों पर इकट्ठा होते थे. 13 अप्रैल 1919 को जो लोग इकट्ठा हुए थे उनमें दो पहचानें एक साथ मिली हुई थीं. वे बैसाखी का मेला देखने आये थे और उस प्रदर्शनों में भी शामिल थे जो रॉलेट एक्ट को वापस लेने के लिए शहर में जगह-जगह आयोजित हो रहे थे. इसी के साथ सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल की रिहाई की मांग की जा रही थी.

वास्तव में प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक सहित विभिन्न भारतीय नेताओं और जनता ने ब्रिटेन का साथ दिया था. लाखों भारतीय सैनिक दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अंग्रेज सेना के सिपाही के रूप में लड़ मरे थे. इसमें पंजाब के लोग बड़ी संख्या में शामिल थे. युद्ध खत्म होने पर भारतीयों को लगता था कि ब्रिटिश शासन उन्हें रियायतें देगा और प्रतिनिधित्व बढ़ाएगा.

1909 में शासन में प्रतिनिधित्व देने की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह उस दिशा में ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाई और भारतीयों की इच्छा का खयाल किए बिना 1919 में मॉण्टेगू-चेम्सफोर्ड सुधार लागू कर दिए जो इस भावना के विपरीत थे.

उधर विश्व युद्ध के दौरान ही पंजाब के विभिन्न इलाकों में ब्रिटिशों का विरोध काफी अधिक बढ़ गया था जिसे भारत रक्षा कानून (1915) के द्वारा लगातार कुचला जा रहा था.

इसी पृष्ठभूमि में 1918 में ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक देशद्रोह समिति बनाई गई. यह समिति यह देख रही थी कि भारत में ब्रितानियों का विरोध कौन कर रहा है, उसे सहायता कौन देता है और इससे ब्रिटिश साम्राज्य को किस प्रकार खतरा है? इस समिति की सिफारिशों के अनुसार भारत रक्षा कानून 1915 का विस्तार कर दिया गया और उसे रॉलेट एक्ट में तब्दील किया गया.

इस एक्ट के तहत अधिकारियों को काफी अधिकार दिए गए थे जिससे वे न केवल प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकते थे, बल्कि किसी को भी संदेह के आधार पर बिना मुकदमा चलाए हुए जेल में डाल सकते थे. लोगों को बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता था, उन पर विशेष ट्रिब्यूनलों और बंद कमरों में मुकदमा चल सकता था. लोग इसी का विरोध कर रहे थे. इस विरोध करने के खिलाफ ही गोली चलाई गई.

गोली चलाने का आदेश देने वाले जनरल डायर के खिलाफ हंटर कमेटी गठित हुई जिसे डिसऑर्डर इनक्वायरी कमेटी कहते हैं. कांग्रेस ने भी एक कमेटी गठित की. कांग्रेस की कमेटी ने डायर सहित उस पूरी संरचना को दोषी माना जबकि हंटर कमेटी किंतु-परंतु करती रही.

पीड़ा और दुःख की पुनर्रचना 

इस दुर्दांत घटना ने अपने समय को झकझोर कर रख दिया. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपना ‘नाइटहुड’ वापस कर दिया. नौजवान हों, बाल-वृद्ध, सब इससे दुखी और क्षुब्ध हो गए. यहां तक कि इस घटना के लगभग दो दशक के बाद उधम सिंह ने इसका बदला लंदन जाकर 13 मार्च 1940 को लिया जब रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की बैठक हो रही थी. माइकल ओ डायर वहां उपस्थित था. उधम सिंह ने उसे वहीं गोली मार दी. उधम सिंह को 31 जुलाई 1940 को फांसी दे दी गई.

जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद देश में क्रांतिकारी आंदोलनों की दिशा तो बदली ही, कांग्रेस और महात्मा गांधी के रवैये में भी परिवर्तन आया. गांधी को सत्याग्रह और अहिंसा की सीमा पता चली तो बहुत बाद में चलकर, 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उन्होंने हिंसा की निंदा नहीं की. यदि आप महात्मा गांधी के द्वारा लिखित और कहे गए शब्दों का ‘कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी’ देखें तो पाएंगे कि इस घटना के बाद वे दूसरी अन्य बातों पर तो मुखर हैं लेकिन अंग्रेजी शासन की हिंसा की निंदा करते नजर नहीं आते. फिर भी इस घटना के बाद से उन्होंने कायरों की हिंसा और वीरों की अहिंसा में अंतर करने पर जोर दिया.

नौजवानों का एक बड़ा तबका जो पढ़ लिख रहा था, उसे इस ब्रिटिश दरिंदगी से गहरी चोट तो लगी ही, उसका एक लंबे समय तक गांधी से मोहभंग भी हुआ.

दुःख और क्षोभ की यह कहानी ऐसे ही ख़त्म नहीं हुई बल्कि इसे नाटक, कविता, फिल्म और चित्रकला में बार- बार सृजित किया गया. कभी-कभी यह इतिहास की किसी पुस्तक से ज्यादा लोकप्रिय हुआ. रिचर्ड एटनबरो की फिल्म हो या सुभद्राकुमारी चौहान की कविताएं, उन्होंने राज्य-निर्देशित इस हिंसा को भारतीय जनता के समक्ष प्रस्तुत किया और ब्रिटिश शासन के भय के साम्राज्य को नंगा कर दिया. किम ए वैगनर ने अपनी किताब का उपशीर्षक ही रखा है: एन एम्पायर ऑफ़ फियर एंड द मेकिंग ऑफ़ द अमृतसर मासेकर. किताब का नाम है: जलियांवाला बाग.

इलाहाबाबाद के रंगकर्मी प्रवीण शेखर कहते हैं, “नानक सिंह की कविताओं पर आधारित ‘खूनी बैसाखी’ का उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, इलाहाबाद के रंग मंडल की ओर से 1997 से 2002 के बीच 50 से भी ज्यादा मंचन हुए थे. मंजुल वर्मा की इस प्रस्तुति में ब्रिटिश गोलीबारी में चार अलग-अलग चरित्रों के मरने के दृश्य थे.

नाटक के एक दृश्य में अभिनेता प्रवीण के शव पर उनकी एक सह अभिनेता विलाप करती हैं.

प्रवीण बताते हैं कि कुछ प्रस्तुतियों के बाद उनके मन में खून से भरा दृश्य, लाशों का अंबार, चीख, रुलाई, विलाप का आवर्तन जैसा होने लगा. एक अजीब सी बेचैनी, उलझन, अवसाद से उनका मन भर जाता था.”

जलियांवाला बाग का विस्तार

इस लेख में आपने देखा है कि ब्रिटिश साम्राज्य अपने उखाड़े जाने से भयभीत था इसलिए उसने ‘बिना वकील बिना दलील’ वाला रौलेट एक्ट बनाया. जब देश आज़ाद हुआ तो कई बार निर्दोष नागरिकों को गोली का निशाना बनाया गया. ऐसे कानून बनाए गए जो नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन करते रहे हैं.

1975 का आपातकाल ऐसे ही लाया गया जब शासक वर्ग को लगा कि लोग उन्हें लोकतान्त्रिक तरीकों से बाहर कर देंगे. यह उसके बाद भी नहीं रुका है. आज भी ‘सेडीशन’ के नाम पर लेखकों, पत्रकारों और संस्कृतिकर्मियों को निशाना बनाया जाता है.


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