पाकिस्तानी मसूबों को सफल नहीं होने देना चाहिए था


Narendra Modi has written a letter to Imran Khan, demanding to complete work of Kartarpur corridor

 

अपनी विदेशनीति की अजीब स्थिति हो गयी है. पाकिस्तान जैसा एक असफल राष्ट्र हमारी विदेशनीति का एजेंडा फिक्स करने की कोशिश कर रहा है. कश्मीर में लगातार आतंकवादी भेजकर वह दुनिया के सामने हमको कमज़ोर दिखाने की कोशिश कर रहा है. वहां पर पाकिस्तानी डिजाइन को काबू में करने का काम हमारा विदेश विभाग नहीं कर रहा है.

पाकिस्तानी मंसूबों को लगाम लगाने का काम हमारे सुरक्षा बल कर रहे हैं. 1947 से अब तक भारत की विदेशनीति का स्थाई भाव हमेशा ही शान्ति का रहा है. भारत हमेशा शान्ति के लिए पहल करता रहा है और शान्ति की हर कोशिश का अगुवा रहा है लेकिन पहली बार करतारपुर साहिब के मामले में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान दुनिया के सामने शान्ति की पहल करने की कोशिश करता नज़र आने की कोशिश कर रहा है और हम खड़े ताली बजा रहे हैं. करतारपुर साहिब में बाबा गुरु नानक के आस्ताने पर जाना हमारी बड़ी आबादी का सपना होता है और उसके लिए पहल करता पाकिस्तान अपने को आतंकवादी सांचे से निकाल कर शान्ति की तरफ जाते हुए दिखने की कोशिश कर रहा है और हम पाकिस्तान को यह भी नहीं बता पा रहे हैं कि तुम्हारी नीयत में खोट है,पाकिस्तान जो कश्मीर में मासूम अवाम को क़त्ल कर रहा है वह शान्ति का दूत नहीं हो सकता.

हमारी तो दुर्दशा यह है कि 26/11 जैसी खूंखार घटना के दिन हम करतारपुर के प्रोजेक्ट का उद्घाटन कर देते हैं. 26/11 के लिए हम पाकिस्तान को ज़िम्मेदार मानते हैं और उसी की बरसी के दिन हमारे उपराष्ट्रपति महोदय पाकिस्तान को दोषमुक्त करने के पाकिस्तान सरकार के अभियान को नैतिक बल देने डेरा बाबा नानक पंहुच कर भाषण करते देखे गए. एक देश के रूप में 26/11 के गुनाहगार को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए.

सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है. हमारी विदेशनीति का संचालन करने वालों में ऐसे लोगों की भीड़ क्यों जमा हो गयी है जो पहल करना ही भूल गए हैं. विदेशनीति की असफलता ही है कि पाकिस्तान के एजेंडा के हम हिस्सा बनते नज़र आ रहे हैं. ऐसा शायद इसलिए है कि मौजूदा सत्ताधारी पार्टी में आधुनिक भारत की विदेशनीति के संस्थापक, जवाहरलाल नेहरू को बौना साबित करने की इतनी जल्दी है कि वे किसी भी मुकाम तक जा सकते हैं. सत्ताधारी पार्टी के एक प्रवक्ता ने तो किसी टेलीविजन के डिबेट में जवाहरलाल नेहरू को “ठग” कह दिया. एकाएक तो कानों पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन जब उसने बार-बार अपनी बात को दोहराया तो मुझे लग गया कि सत्ता प्रतिष्ठान में अज्ञानियों का जमावड़ा हो गया है. जवाहरलाल की विदेशनीति का ही जलवा था कि सभी पड़ोसी देश भारत को अपना मानते थे और आज स्थिति यह है कि बांगलादेश के अलावा कोई भी भारत को अपना नहीं मान रहा है. नेपाल जैसा देश अब हमारे दुश्मन चीन को अपना दोस्त मानता है. यह हमारी विदेशनीति के संचालकों की बहुत बड़ी असफलता है.

ऐसा इसलिए है कि वे लोग जिनकी पार्टियां आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों की मददगार थीं वे आज सरकार में हैं और वे पार्टियां जवाहरलाल नेहरू को बहुत ही मामूली नेता बताने की कोशिश कर रही हैं. दिल्ली के काकटेल सर्किट में होने वाली गपबाज़ी से इतिहास और राजनीति की जानकारी ग्रहण करने वाले कुछ पत्रकार भी 1947 के पहले और बाद के अंग्रेजों के वफादार बुद्धिजीवियों की जमात की मदद से जवाहरलाल नेहरू को बौना बताने की कोशिश में जुट गए हैं. यहाँ किसी का नाम लेकर बौने नेताओं, दलालों और अज्ञानी पत्रकारों को महत्व नहीं दिया जाएगा लेकिन यह ज़रूरी है कि आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद की भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक्की में जवाहरलाल नेहरू की हैसियत को कम करने वालों की कोशिशों पर लगाम लगाई जाए.

नेहरू की विदेश नीति या राजनीति में कमी बताने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश माना जाता है और ठीक उसी दिन आज़ादी पाने वाला पाकिस्तान आज एक बहुत ही पिछड़ा मुल्क है. एक अच्छी बात यह है कि आज भी पूरी दुनिया में नेहरू युग की विदेशनीति के प्रशंसक मिल जाते हैं. एक राष्ट्र के रूप में हमको भी चाहिए की अपनी विदेशनीति की बुलंदियों से अपनी मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराएं. लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि सत्ताधारी पार्टी के नेताओं को अपनी महान नेहरूवियन विरासत पर गर्व करना सिखाएं. उसके लिए जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति की बुनियाद को समझना ज़रूरी है.

1946 में जब कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया, उसी वक़्त जवाहरलाल ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत की विदेशनीति विश्व के मामलों में दखल रखने की कोशिश करेगी, स्वतंत्र विदेश नीति होगी और अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्व देगी. लेकिन यह बात भी गौर करने की है कि किसी नवस्वतंत्र देश की विदेशनीति एक दिन में नहीं विकसित होती. जब विदेशनीति के मामले में नेहरू ने काम शुरू किया तो बहुत सारी अड़चनें आईं लेकिन वे जुटे रहे और एक एक करके सारे मानदंड तय कर दिया जिसकी वजह से भारत आज एक महान शक्ति है. सच्चाई यह है कि भारत की विदेशनीति उन्ही आदर्शों का विस्तार है जिनके आधार पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी और आज़ादी की लड़ाई को एक महात्मा ने नेतृत्व प्रदान किया था जिनकी सदिच्छा और दूरदर्शिता में उनके दुश्मनों को भी पूरा भरोसा रहता था.

आज़ादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ताक़त कुछ नहीं थी. जब भारत को आज़ादी मिली तो शीतयुद्ध शुरू हो चुका था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के भक्तगण नहीं चाहते थे कि भारत एक मज़बूत ताक़त बने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी आवाज़ सुनी जाए. जबकि जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति का यही लक्ष्य था. अमरीका के पास परमाणु हथियार थे लेकिन उसे इस बात से डर लगा रहता था कि कोई नया देश उसके खिलाफ न हो जाए जबकि सोविएत रूस के नेता स्टालिन और उनके साथी हर उस देश को शक की नज़र से देखते थे जो पूरी तरह उनके साथ नहीं था. नेहरू से दोनों ही देश नाराज़ थे क्योंकि वे किसी के साथ जाने को तैयार नहीं थे, भारत को किसी गुट में शामिल करना उनकी नीति का हिस्सा कभी नहीं रहा.

दोनों ही महाशक्तियों को नेहरू भरोसा दे रहे थे कि भारत उनमें से न किसी के गुट में शामिल होगा और न ही किसी का विरोध करेगा. यह बात दोनों महाशक्तियों को बुरी लगती थी. यहाँ यह समझने की चीज़ है कि उस दौर के अमरीकी और सोवियत नेताओं को भी अंदाज़ नहीं था कि कोई देश ऐसा भी हो सकता है जो शान्तिपूर्वक अपना काम करेगा और किसी की तरफ से लाठी नहीं भांजेगा. जब कश्मीर का मसला संयुक्तराष्ट्र में गया तो ब्रिटेन और अमरीका ने भारत की मुखालिफत करके अपने गुस्से का इज़हार किया. नए आज़ाद हुए देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकियों को कुछ इन शब्दों में फटकारा था. उन्होंने कहा कि,”यह हैरतअंगेज़ है कि अपनी विदेशनीति को अमरीकी सरकार किस बचकाने पन से चलाती है. वे अपनी ताक़त और पैसे के बल पर काम चला रहे हैं, उनके पास न तो अक्ल है और न ही कोई और चीज़.’

सोवियत रूस ने हमेशा नेहरू के गुटनिरपेक्ष विदेशनीति का विरोध किया और आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समर्थन देने का एक मंच है. सोवियत रूस ने कश्मीर के मसले पर भारत की कोई मदद नहीं की और उनकी कोशिश रही कि भारत उनके साथ शामिल हो जाए. जवाहरलाल ने कहा कि भारत रूस से दोस्ती चाहता है लेकिन हम बहुत ही संवेदनशील लोग हैं. हमें यह बर्दाश्त नहीं होगा कि कोई हमें गाली दे या हमारा अपमान करे. रूस को यह मुगालता है कि भारत में कुछ नहीं बदला है और हम अभी भी ब्रिटेन के साथी है. यह बहुत ही अहमकाना सोच है. और अगर इस सोच की बिना पर कोई नीति बनाएंगे तो वह गलत ही होगी जहां तक भारत का सवाल है वह अपने रास्ते पर चलता रहेगा.”

जो लोग समकालीन इतिहास की मामूली समझ भी रखते हैं उन्हें मालूम है कि कितनी मुश्किलों से भारत की आज़ादी के बाद की नाव को भंवर से निकाल कर जवाहरलाल लाए थे और आज जो लोग अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर टीवी चैनलों पर बैठ कर मूर्खतापूर्ण प्रलाप करते हैं उन पर कोई भी केवल दया ही कर सकता है. और इन प्रलापियों को यह भी नहीं मालूम है कि दुनिया बड़ा से बड़ा आदमी भी जवाहरलाल नेहरू से मिलकर गर्व का अनुभव करता था. यूरोप में एक विश्वविजेता की हैसियत रखने वाले चर्चिल को जब जवाहरलाल नेहरू एक घटिया आदमी कहते थे तो उनका विश्वास किया जाता था. और आज हमारी स्थिति यह हो गयी है कि आतंकवाद की सैरगाह बन चुके पाकिस्तान का प्रधानमंत्री ऐसी हालात पैदा कर दे रहा है कि हम अपने देश की एक बहुत बड़ी ट्रेजेडी के दिन 26/11 के दिन पाकिस्तानी शान्ति की पहल में शामिल हो जाते हैं.


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