जरूरी है शहरी रोजगार गारंटी योजना


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विपक्षी दलों के साझा न्यूनतम कार्यक्रम के हिस्से के रूप में शहरी रोजगार गारंटी योजना की घोषणा ने काफी हैरान किया है. इस घोषणा के बाद कुछ आलोचकों के समूह द्वारा इस पर प्रतिक्रिया की गयी और कहा कि कैसे परिकल्पित योजना, कथित रूप से मनरेगा जैसे अधिक प्रभावशाली ग्रामीण समकक्ष की तरह, केवल व्यर्थ व्यय का कारण बनेगी और असमानता को दूर करने में भारत की विफलता के प्रतीक रहेगी.

इस बात पर सहमत होते हुए कि यह योजना वास्तव में शहर में हमारे द्वारा सामना की जाने वाली घोर असमानताओं की प्रतीक होगी, इसकी घोषणा भी शहरी आजीविका के अवसरों में अनिश्चितताओं और असुरक्षा को उजागर करती है, जो वर्तमान में शहरवासियों का एक बड़ा अदृश्य वर्ग सामना करती है.

हालांकि बेरोजगारी और कम रोजगार हमेशा चुनावी मुद्दा रहा है लेकिन 2019 में मतदान का समय नजदीक आते समय ऐसा माना जा रहा है कि यह और अधिक होगा. हाल ही में इस बात पर जमकर बहस की जा रही थी कि बेरोजगारी और कम रोजगार के आंकड़े आठ प्रतिशत के आसपास होते हुए पिछले कुछ वर्षों में सबसे ज्यादा हैं. जिसमें शहरी बेरोजगारी बढ़कर ग्रामीण से एक प्रतिशत ज्यादा हो गई है.

यह शहर में विकट परिस्थितियों का संकेत है जहां कुछ के लिए सुरक्षित आजीविका एक वास्तविक चिंता बनी हुई है. अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक, जो शहरों में काम करने वाले लोगों के 80 प्रतिशत हैं, सबसे अधिक प्रभावित और हाशिये पर हैं; रोजमर्रा की कमाई पर आश्रित श्रमिक और उसके परिवार, श्रम बाजार की अनिश्चितताओं या उनके नियंत्रण से परे व्यक्तिगत नुकसान, के मामलों में उलझ कर रह जाते हैं और फलतः ऋण चक्रों में फंसकर इससे उबर नहीं पाते हैं.

उदाहरण के लिए दो करोड़ घरेलू कामगारों या घरेलू सहायक या बाई-अधिक सामान्य रूप और गलत तरीके से जाने जानी वाली, हमारे अपार्टमेंट में बिना किसी अनुबंध या काम की मान्यता के काम करते हैं. इनको किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती है और आमतौर पर प्रति घंटा आधे डॉलर (आधा डॉलर लगभग 35 रुपये है) से भी कम भुगतान किया जाता है.

यह जानते हुए कि शहरी अनौपचारिक क्षेत्र में महिला श्रमिकों के पास काम करने के लिए ज्यादा विकल्प नहीं हैं, पितृसत्तात्मक ताकतें समाज में उनका शोषण करती हैं. ज्यादातर घरेलू श्रमिकों को मजदूरी की दरों के लिए पूरी तरह से नौकरी देने वाले के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है और साथ ही किसी भी छोटी बीमारी या अन्य आपात स्थिति में रोजगार खोने के डर से झूझना पड़ता है.

हम निर्माण श्रमिकों के मामले को ही देख लें जो हम हर सुबह मजदूर नाकों, चौक, चौराहों पर देखते हैं (निर्भर करता है आप देश के किस हिस्से में हैं). इनकी संख्या शहरी भारत में 5 करोड़ से अधिक हैं, और बहुत कम मजदूरी पर काम करते हैं कई बार तो महीने में केवल 10 से 15 दिन ही इन्हें रोजगार मिल पाता है. यह सभी शहरों में हाशिये पर रह रहे अनौपचारिक क्षेत्र के ज्यादातर श्रमिकों की रोजमर्रा की कहानी है, जो आबादी में 30 करोड़ से भी अधिक की संख्या में हैं, जो बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के गुजारा कर रहे हैं और जब भी उन्हें काम मिलता है तो कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर होते हैं.

याद रखें कि वे भारत की 80 करोड़ आबादी में से एक हैं जो प्रतिदिन केवल 20 रुपये पर गुजारा करते हैं. इन अनियमितताओं और अनिश्चितताओं को अस्थिर और गलत तरीके से नियोजित मैक्रो-आर्थिक नीतियों जैसे कि नोटबंदी और जीएसटी द्वारा और बिगाड़ दिया जाता है, जिससे अनौपचारिक क्षेत्र की आजीविका पर सबसे बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ा है. इसलिए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना – अगर लाया जाती है, तो इसमें ‘बाई’ या ‘श्रम’ की सही बात होनी जरुरी है, जिसे हम मध्यम वर्ग और प्रमुख नीति निर्माण समूह देखने में विफल रहते हैं, और मेहनतकश शहरी कामगार, जो कठिन परिस्थितियों में पड़ सकते हैं, और जिसको अपने परिवार की सुरक्षा के लिए एक व्यवस्था की जरुरत है, का समर्थन करने के लिए कार्य कर सकते हैं.

यह ध्यान रखना आवश्यक है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) के शहरी समकक्ष को भिन्न परिस्थितियों के संदर्भ में कल्पना करने की आवश्यकता है. यह ध्यान में रखते हुए कि शहरी बेरोजगारी को अकुशल शारीरिक श्रम, जैसा कि नरेगा में देखा जाता है, तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए और इसकी कल्पना आजीविका प्रदान करने के लिए की जाए, ना केवल सार्वजनिक-आम संसाधनों के विकास क्षेत्र में. इस योजना को राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (एनयूएलएम) और कौशल विकास के साथ-साथ बेहतर आजीविका के अवसरों की अनुमति देने वाले विभिन्न कौशल निर्माण कार्यक्रमों के साथ विलय करके या कम से कम समन्वय में किया जा सकता है, जो श्रमिकों के सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता के साधन बन सकते हैं. इस समय, कौशल निर्माण प्रशिक्षणों से रोजगार सिर्फ 15 प्रतिशत पर हैं और नए प्रशिक्षकों के लिए रोजगार के उपयुक्त अवसर ना होने पर सिर्फ एक संख्या बने हुए हैं.

शिक्षित बेरोजगारों की समस्या को हल करने के लिए भी योजना तैयार की जानी चाहिए, जो ग्रामीण के मुकाबले शहरी क्षेत्रों में अधिक गंभीर होने की संभावना है. इसलिए शहरी आजीविका गारंटी योजना को इस मूलभूत समस्या की जड़ पर प्रहार करना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि शहरों में सक्षम और आम तौर पर हाशिए पर रह रहे कुशल कामगारों को लाभप्रद रोजगार प्राप्त हो. यह योजना यदि शुरू की गई तो एक पथप्रवर्तक पहल होगी यह समझते हुए कि हमारी आर्थिक वृद्धि अभी भी हाशिए पर नहीं गई है और पर्याप्त संख्या में परिश्रमी लोग शहर में हैं जो इससे लाभान्वित होंगे और सुरक्षित और गरिमा के साथ जीवन जीने के लिए समर्थन के हकदार हैं.

इसके अलावा, इस योजना के शुरू होने से शहरी क्षेत्र में बेहतर बदलाव आएंगे जैसे सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में उच्च निवेश, उच्च मजदूरी दर और शहरी क्षेत्र में महिला श्रमिकों की भागीदारी में वृद्धि. यह योजना भी उसी राह पर होगी जैसा शहरी आजीविका पर चीन में एक अत्यधिक सफल योजना में तथा पश्चिम में अन्य तथाकथित विकसित राष्ट्रों में है. बहुत समय हो चुका है अब हमें उस राह पर चलने की ज़रूरत है.

अरविंद उन्नी, नई दिल्ली में इंडो-ग्लोबल सोशल सर्विस सोसाइटी में शहरी गरीबी उन्मूलन विषय पर काम कर रहे हैं और टिकेंद्र सिंह पंवर, शिमला के भूतपूर्व मेयर रह चुके हैं.


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