एक बड़ी साजिश जिसे नाकाम कर दिया गया


article on communal tension

  प्रतिकात्मक तस्वीर

1946 के अंत से देशभर में भीषण सांप्रदायिक दंगे होना शुरू हो गए थे. 16 अगस्त को मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग को लेकर अंग्रेजी सरकार और कांग्रेस पर दबाव बनाने के लिए ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का आह्वान किया था. उस दिन मुस्लिम लीग शासित बंगाल में भीषण रक्तपात होने की पूरी संभावना थी, लेकिन राज्य की क़ानून-व्यवस्था ख़ुद उन्हीं लोगों के हाथ थी, जो चाहते थे कि इस मौके पर भीषण रक्तपात हो. सुहरावर्दी के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग की बंगाल सरकार ने पुलिस को निष्क्रिय कर दिया और अगले कुछ दिनों तक कलकत्ता में भयानक नरसंहार हुआ. राज्यपोषित सांप्रदायिक उत्पात की अगली उल्लेखनीय घटना “ग्रेट कलकत्ता किलिंग” के छप्पन और आज़ादी मिलने के पचपन साल बाद गुजरात में घटी. इस मामले में भी पूरे सरकारी तंत्र को सांप्रदायिक दलों की योजना को अंजाम देने के लिए पंगु बना दिया गया था.

सांप्रदायिक दलों के लिए सांप्रदायिक दंगे जनता के बीच अपने आधार को विस्तृत करने का माध्यम होते हैं. सांप्रदायिक भय और असुरक्षा के चलते लोग इस या उस खेमे में शामिल होने को मजबूर हो जाते हैं और इसी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते कुछ समय के लिए सांप्रदायिकता मुख्यधारा की ताकत बन जाती है. दरअसल, आज का भारत इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच से गुजर रहा है, जहां एक ओर सरकार और सरकारी मशीनरी पर सांप्रदायिक ताकतों का कब्ज़ा होता जा रहा है और दूसरी ओर अपने जनाधार को बनाए और बचाए रखने के लिए लगातार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का काम करना भी उनकी मजबूरी है.

2014 में आरएसएस-बीजेपी का केंद्र की सत्ता में आना इसीलिए भारतीय लोकतंत्र के लिए एक ख़ास परिघटना है. आरएसएस नागरिकों को पहले सांप्रदायिक विचारधारा से जोड़ता है और फिर अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उन्हें लाठी चलाने का प्रशिक्षण देता है. यह ख़ुद में एक ख़तरनाक जुगलबंदी है, क्योंकि सांप्रदायिक विचारधारा अपने राजनीतिक विरोधियों और अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के प्रति मन में घृणा भरती है.

सांप्रदायिक विचारधारा का मुख्य उद्देश्य होता है कि वो लोकतंत्र का लगा घोंटकर किसी ख़ास तरह का अधिनायकवाद स्थापित कर दे या जमीनी स्तर पर इतनी अराजक स्थिति पैदा कर दें कि सरकार पंगु हो जाए. लेकिन जब ऐसा कोई सांप्रदायिक दल या गठजोड़ आम चुनावों में भाग लेते हुए बहुमत हासिल कर सरकार बना लेता है, तो जिस सरकार पर ऐसे तत्वों को नियंत्रित करने की महती ज़िम्मेदारी होती है, वह सरकार और उसकी प्रशासनिक मशीनरी ख़ुद ही सांप्रदायिक तत्वों के चंगुल में चली जाती है.

आज का भारत और उसके विभिन्न प्रदेश इसी विकट द्वैध से गुजर रहे हैं. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार इस मामले में फ़िलहाल सबसे बुरी स्थिति में है. योगीजी की छवि एक फायरब्रांड नेता की रही है, जिनको मुख्यमंत्री बनने के पहले मुख्यतः तीन बातों के लिए जाना जाता था— एक उनकी कट्टर हिंदूत्वादी छवि; दूसरा गोरखपुर में उनके द्वारा स्थापित, संचालित और पोषित हिंदू युवा वाहिनी के क्रियाकलाप और तीसरा गोरखपुर के प्रख्यात गोरखनाथ मठ के महंत के रूप में.

2017 में उनके मुख्यमंत्री बनते ही गले में भगवा गमछे डालकर उनकी राजनीति के समर्थक लोग इस मुद्दे पर पुलिस-प्रशासन को आंख दिखाने लगे. भगवा गमछा एक तरह से सत्ता में भागीदार होने का प्रतीक बन गया. यह इस बात की गारंटी भी बन गया कि भगवा गमछा डाले लोगों को पुलिस और प्रशासन परेशान नहीं कर सकेगा. उत्तर प्रदेश में भगवा गमछाधारी लोगों द्वारा जगह-जगह सीनाज़ोरी एक आम बात बन चुकी है. इन तत्वों ने गौरक्षा सहित एंटी-रोमिओ स्क्वाड जैसे तमाम मामलों में जब भी कानून हाथ में लिया, सरकार और आरएसएस-भाजपा के लोग एक तरफ यह कहकर पल्ला झाड़ते रहे कि यह उनके लोग नहीं बल्कि फ्रिंज एलिमेंट (मुख्यधारा के बाहर) हैं और दूसरी तरफ़ ऐसे लोगों को बचाने की भी भरसक कोशिश की गई.

सांप्रदायिक दल हमेशा इस प्रयास में रहते हैं कि वो अपने लोगों द्वारा किये गए किसी भी कृत्य से औपचारिक रूप से पल्ला झाड़ लें और यह सिद्ध करें कि यह तो जनता की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी. उनके मुद्दे की वैधानिकता ही इस बात पर निर्भर होती है कि लोग स्वयं ही इस मुद्दे पर आंदोलित हो रहे हैं और सांप्रदायिक दल तो बस उस जनभावना की राजनीति अभिव्यति मात्र हैं.

बहरहाल, सत्ता के इस ख़ास समीकरण के चलते आरएसएस-भाजपा और उनके अन्य आनुषांगिक संगठनों के लोग उत्तर प्रदेश जैसी जगहों पर खुद को ही सत्ता मान बैठे हैं. थाना-कचहरियों से लेकर सड़कों पर प्रदर्शन तक, हर बार उनकी अपेक्षा यही होती है कि पुलिस और प्रशासन उनके इशारों पर कठपुतली की तरह काम करे. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश पुलिस के कुछ आला अधिकारियों ने सरकार के प्रति अपनी निष्ठा सिद्ध करने के अति उत्साह में अपनी प्रशासनिक मर्यादा का उल्लंघन भी किया है.

बहरहाल, भारतीय या राज्य सरकार भले ही आरएसएस के प्रति सम्मान भाव रखने वाले दल के हाथ में हो, लेकिन समूचे राज्यतंत्र पर उसका कब्ज़ा अभी भी दूर की कौड़ी है. इसलिए राज्यतंत्र के भीतर से भी सरकारी सांप्रदायीकरण की कोशिशों को लगातार चुनौती मिलती रहती है. उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह भी इसी तरह से अधिकारियों में शामिल थे, जिन्होंने कार्यपालिका के अपने कार्यक्षेत्र का ईमानदारी और निष्ठा के साथ पालन करने का प्रयास किया था. जिस समय दादरी में गाय का मांस खाने के आरोप में एक उकसाई गयी भीड़ ने अखलाक़ की हत्या की थे, सुबोध कुमार सिंह दादरी में ही तैनात थे. उनकी जांच की दिशा और उनके द्वारा की गयी गिरफ्तारियों को लेकर हिंदुत्वादी राजनीति के अलमबरदार ख़ुश नहीं थे. इसीलिए उनकी हत्या को लेकर शक पुख्ता होता जा रहा है.

बुलंदशहर में जो कुछ हुआ उसके कुछ ख़ास पैटर्न हैं. पहला यह कि मुस्लिम समाज के धार्मिक जमावड़े से तकरीबन पचास किलोमीटर दूर एक खेत में रातोंरात अनेक गायों के अस्थिपंजर बिखर जाना एक बहुत पुराने ढ़र्रे की ओर इशारा करता है. इलाके में भारी तादाद में आये मुस्लिमों के साथ स्थानीय हिंदुओं को लड़ाने से दो फायदे थे— एक यह कि इलाक़े में दंगे फ़ैलाने से स्थानीय सांप्रदायीकरण संभव होता और दूसरा यह कि लाखों की तादाद में बुलंदशहर आए मुसलमान अगर भड़क जाते, तो बड़ी संख्या में हिंदुओं को भी नुकसान होने की संभावना थी.

आम तौर पर उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुसंख्यक जिलों में भी हिंदू-मुसलमान का जनसंख्या औसत लगभग बराबर ही बैठता है. लेकिन इज्तेमा के अवसर पर कई लाख मुस्लिम बुलंदशहर आए थे, जो अपने घरों की ओर वापस लौटते हुए दंगों की असुरक्षा की स्थिति में आक्रामक हो सकते थे. जाहिर है दंगों में स्थानीय हिंदुओं की जान की कीमत पर यह साजिश रची जा रही थी. यह जिस तरह से पिछले कुछ समय से यूपी में दंगे कराने का प्रयास होते रहे हैं, संभवतः बुलंदशहर भी उसी प्रयास की एक ताज़ा कड़ी है.

इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर इस कोशिश को नाकाम कर दिया. उनके बेटे के बयान से यह भी स्पष्ट है कि वो धर्म के नाम पर खेले जा रहे खूनी खेल के ख़तरे को पहचानते थे. उनकी बहन बताती हैं कि किसी ख़ास मामले में (स्पष्टतः अखलाक़ की हत्या का मामला) उनके ऊपर लगातार राजनीतिक दबाव डाला जा रहा था. यानी सुबोध कुमार यह जानते थे कि वो जो कर रहे हैं उसकी कीमत उनको चुकानी पड़ सकती है, इसलिए उनकी हत्या को हमें शहादत मानना चाहिए. उन्होंने अपनी जान देकर न जाने कितने लोगों की जान बचाई है, कितनों को बेघर होने से और कितने बच्चों को अनाथ होने से बचाया है.

अपने प्राणों का उत्सर्ग करते हुए दंगे रोकने का भारत में एक गौरवशाली इतिहास है. 1931 में गणेशशंकर विद्यार्थी की शहादत ने कानपुर के लोगों को इतना शर्मिन्दा कर दिया था कि उसके बाद कई दशकों तक कानपुर में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ. 1946 को अहमदाबाद में रजब अली और वसंत राव नामक दो दोस्तों की शहादत तो हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की मिसाल ही बन गई थी. रजब अली ने एक हिंसक मुस्लिम सांप्रदायिक भीड़ से हिंदुओं को बचाते हुए और वसंत राव ने हिंसक हिंदू सांप्रदायिक भीड़ से मुस्लिमों को बचाते हुए उपने प्राण न्योछावर कर दिए थे. हम उम्मीद करते हैं कि इंस्पेक्टर सुबोध कुमार को आने वाली पीढ़ियां इसी परम्परा के एक अन्य योद्धा के रूप में याद करेंगी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के सहायक अध्यापक हैं और आज़ादी की लड़ाई को समर्पित संगठन राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक हैं)


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