भारत में सामाजिक लोकतंत्र भी चाहते थे आंबेडकर
आज बाबासाहब भीमराव आंबेडकर की 62वीं पुण्यतिथि के अवसर पर उनके द्वारा हिंदुस्तान की राजनीति और समाज के बारे में संविधान सभा में दिए गए एक प्रसिद्ध भाषण में कही बातों की याद दिलाना प्रासंगिक हो उठता है. वर्तमान समय में जब भारत में सत्तासीन लोगों द्वारा लोकतांत्रिक संस्थाओं को लगातार कमजोर करने की कोशिश की जा रही हो, तो डॉक्टर आंबेडकर द्वारा कही गई ये बातें और भी मौजूँ हो उठती हैं.
उल्लेखनीय है कि डॉक्टर आंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा की प्रारूप-समिति के अध्यक्ष के रूप में सभा को अंतिम बार संबोधित करते हुए एक विचारोत्तेजक भाषण दिया था. इस भाषण में डॉक्टर आंबेडकर ने संवैधानिक प्रणाली पर ज़ोर देते हुए कहा था कि लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए सबसे जरूरी चीज है कि हम अपने सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संविधान के सुझाए रास्ते पर चलें.
जब सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों को पाने के लिए संविधानसम्मत कोई रास्ता ही न बचा हो, तभी और केवल तभी, डॉक्टर आंबेडकर के अनुसार गैर-संवैधानिक तरीकों के इस्तेमाल को न्यायसंगत ठहराया जा सकता है. लेकिन जब तक संविधानसम्मत रास्ते खुले हों, तब तक गैर-संवैधानिक तरीकों को अपनाने की कोई वजह नहीं दिखती. डॉक्टर आंबेडकर के अनुसार, ऐसे गैर-संवैधानिक तरीके ‘अराजकता के व्याकरण’ के अलावे कुछ नहीं हैं और वे भारतीयों को चेताते हुए कहते हैं कि जितनी जल्दी वे उन तरीकों को छोड़ दें, यह उनके लिए उतना ही बेहतर होगा.
डॉक्टर आंबेडकर हमें विचारक जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा दी गयी उस चेतावनी ध्यान दिलाते हैं, जो उन्होंने लोकतंत्र को सहेजने को इच्छुक हरेक शख्स को दी थी यानी “अपनी स्वतंत्रता को किसी व्यक्ति के चरणों में रखने से बचना, चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो; या उस पर भरोसा करते हुए उसे ऐसी शक्तियां देना कि वह लोकतान्त्रिक संस्थाओं के लिए ही खतरा बन जाए.”
डॉक्टर आंबेडकर ने आयरिश देशभक्त पैट्रिक डैनियल ओ’कॉनेल को उद्धृत करते हुए कहा कि कृतज्ञ होना एक बात है, लेकिन अपने सम्मान, प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हुआ जा सकता. डॉक्टर आंबेडकर के मतानुसार यह चेतावनी दुनिया के किसी और देश के बरअक्स भारत के लिए ज़्यादा जरूरी है क्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा ने राजनीति में कहीं ज़्यादे बड़ी भूमिका निभाई है. आंबेडकर साफ कहते हैं कि बतौर धर्म भक्ति “आत्मा की मुक्ति की राह” भले हो सकती है, पर राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा “लोकतंत्र को अवसान और अंततः देश को तानाशाही की ओर ही ले जाएगी.”
सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो उन्होंने इस भाषण में कही वह यह कि “हम महज राजनीतिक लोकतंत्र से ही संतुष्ट न हो जाएँ, हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी जरूर बनाएं. जब तक राजनीतिक लोकतंत्र के आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो, सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र अधिक समय तक नहीं चल सकता.”
सवाल उठता है कि आखिर सामाजिक लोकतंत्र के मायने क्या हैं? इसका मतलब है ऐसी जीवन शैली जो स्वाधीनता, समानता व बंधुत्व को जीवन के सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करती हो. डॉक्टर आंबेडकर का मानना था कि स्वाधीनता, समानता व बंधुत्व आपस में इस तरह जुड़े होते हैं कि एक-दूसरे से अलग किए जाने पर वे लोकतंत्र के उद्देश्य को हासिल करने में ही बाधक बन जाएँगे. यानी बराबरी के बगैर आज़ादी अल्पतन्त्र को पैदा करेगी, जबकि बगैर आज़ादी के बराबरी व्यक्तिगत पहल में बाधक बनेगी. और बंधुत्व के बिना, आज़ादी और बराबरी कभी हकीकत नहीं बन सकती.
भारतीय समाज में समानता और बंधुत्व के अभाव पर टिप्पणी करते हुए डॉक्टर. आंबेडकर ने ज़ोर देकर कहा कि सामाजिक धरातल पर देखें तो भारतीय समाज “श्रेणीबद्ध असमानताओं का समाज” है. इस अंतर्विरोध पर टिप्पणी करते हुए डॉक्टर आंबेडकर ने कहा कि “26 जनवरी 1950 के दिन हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में तो हमारे पास समानता होगी, पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी. राजनीति में तो हम ‘एक व्यक्ति एक वोट, एक वोट एक मूल्य’ के सिद्धांत को स्वीकार कर लेंगे, पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में, अपने सामाजिक और आर्थिक संरचनाओ के चलते, ‘एक व्यक्ति एक मूल्य’ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे.”
डॉक्टर आंबेडकर संविधान सभा के सामने यह सवाल उठाते हैं कि “हम कब तक ऐसे अंतर्विरोधों के जीवन में जीते रहेंगे? हम कब तक सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारना जारी रखेंगे?” वे चेतावनी देते हुए कहते हैं कि ‘अगर हमने ऐसा और अधिक समय तक किया, तो हम ऐसा अपने राजनीतिक लोकतंत्र की कीमत पर ही कर रहे होंगे. हमें इस अंतर्विरोध को जल्द से जल्द मिटाना होगा’. कहना न होगा कि गैर-बराबरी और भारतीय समाज के अंतर्विरोधों से जुड़े हुए ये सवाल आज भी अनुत्तरित ही हैं.
भारतीय समाज में बंधुत्व की भावना की कमी के संदर्भ में डॉक्टर आंबेडकर ने कहा – ‘हम एक राष्ट्र हैं’ ऐसा मानकर हम एक बड़े भ्रम को बढ़ावा दे रहे हैं. हजारों जातियों में बंटे हुए लोग भला एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? जितनी जल्दी यह बात हम समझ लें कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अभी हम एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना ही हमारे लिए बेहतर होगा.”
बकौल डॉक्टर आंबेडकर, ऐसा समझने के बाद ही हम राष्ट्र बनने की जरूरत को बेहतर समझ पाएंगे और इस उद्देश्य को हासिल करने के साधनों के बारे में सोच पाएंगे. डॉक्टर आंबेडकर इस बात से वाकिफ थे कि जाति-व्यवस्था के बने रहते इस उद्देश्य की प्राप्ति कठिन है. इसीलिए उन्होंने लिखा कि “जातियाँ और उनका अस्तित्व ही खुद में राष्ट्र-विरोधी है.”
इसका पहला कारण तो डॉक्टर आंबेडकर ये बताते हैं कि जातियाँ सामाजिक जीवन में अलगाव को बढ़ावा देती हैं. दूसरे, एक जाति और दूसरी जाति के बीच ईर्ष्या और असहिष्णुता को बढाती हैं. अगर हम सच में राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सब मुश्किलों से पार पाना होगा. क्योंकि डॉक्टर आंबेडकर के शब्दों में कहें तो “बंधुत्व यथार्थ तभी हो सकता है जब राष्ट्र मौजूद हो. बगैर बंधुत्व के समानता और स्वाधीनता की बात करना महज दिखावा होंगी.”
(शुभनीत कौशिक इतिहास के शिक्षक हैं और आधुनिक भारत के इतिहास में गहरी दिलचस्पी रखते हैं।)