डरे हुए सावरकर ‘अदम्य’ वीर कैसे हो गए?


article on modi visit to cellular jail and appreciation of savarkar

 

अंडमान की सेलुलर जेल में नरेंद्र मोदी सावरकर की फोटो के सामने ध्यानस्थ बैठे हैं. इसमें कोई समस्या नहीं है कि वे सावरकर को अपना ‘वीर’ नायक मानते हैं. नायकों का चयन लोगों की अपनी समझदारी, निष्ठा और लक्ष्य पर आधारित होता है. यह अचरज की बात है कि आज़ादी की लड़ाई की गौरवशाली परंपरा में आरएसएस को सिर्फ़ और सिर्फ़ सावरकर ही क्यों वीर नज़र आते हैं? क्या इसकी वजह यह है कि सावरकर हिन्दू राष्ट्र के विचार के प्रणेता थे और उन्होंने गांधीजी की हत्या की साजिश रची थी? अगर यह ही वजह है तब भी हमें इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.

हमारी आपत्तियां दरअसल ख़ालिस ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हैं. सेलुलर जेल में सावरकर को श्रद्धांजलि देते हुए मोदीजी ने उन्हें न सिर्फ़ ‘अदम्य’ (जिसका दमन न किया जा सकता हो) वीर सावरकर कहा बल्कि यह भी बोले कि अंग्रेजों की कठोर सजा भी सावरकर की जज़्बे को कम न कर पाई और वो जेल से भी भारत की आज़ादी के बारे में लिखते-बोलते रहे. यह शोध और जिज्ञासा का प्रश्न हो सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इतिहास की कौन-सी किताबें पढ़कर सावरकर के बारे में यह राय स्थापित की है.

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एक बार एक सभा में किसी सज्जन ने पूछा कि सावरकर को आप किस प्रकार समझते हैं. उनकी जिज्ञासा का स्रोत पहचानते हुए मैंने जवाब दिया— जैसे जिन्ना को समझा जा सकता है. दोनों ही अपने जीवन के शुरुआती दिनों में स्वाधीनता संघर्ष से किसी न किसी प्रकार जुड़े थे लेकिन अपने जीवन के दूसरे भाग में उन्होंने साम्प्रदायिकता का दामन थामकर स्वाधीनता संघर्ष के साथ गद्दारी की. यानी अपने जीवन के शुरुआती हिस्से में इन दोनों ने जो कुछ कमाया, उसे अपने जीवन के बाद के हिस्से में आकर लुटा दिया.

निश्चित रूप से अपने राजनीतिक जीवन के आरंभिक वर्षों में सावरकर लंदन में श्यामजीकृष्ण वर्मा के इंडिया हाउस से जुड़े रहे जो कि ब्रिटेन के भारतीय छात्रों में राष्ट्रवाद के विचारों के प्रचार-प्रसार का केंद्र था. भारत में उनके द्वारा स्थापित मित्र मेला और अभिनव भारत ने भी सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से अंग्रेजी राज को उखाड़ फेंकने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लिया था. 1910 में इंडिया हाउस पर स्कॉटलैंड यार्ड द्वारा छापेमारी के बाद उनकी गिरफ़्तारी हुई. उनको भारत लाए जाने के क्रम में जहाज से कूदकर भागने के उनके प्रयास और पुनः पकड़े जाने के बीच ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुए विवाद ने उनको ख्याति प्रदान कर दी. हालांकि कहा यह भी जाता है कि सावरकर कूदे नहीं बल्कि पानी के ज़हाज की बाहरी खिड़की से फिसल गए थे और फ्रांस के मार्शीले पहुँच गए थे. बहरहाल, इसके बाद दो अलग-अलग मामलों में हुई उम्रकैद की सजा काटने के लिए उनको अंडमान स्थित कुख्यात सेलुलर जेल भेज दिया गया.

अंडमान की यह जेल उस समय भारतीय क्रांतिकारियों की हिम्मत तोड़ने के लिए बनाई गयी थी. अंग्रेजों ने पूरी दुनिया में अपने उपनिवेशों के भीतर असंतोष को कुचलने के लिए इस प्रकार की दमनकारी और अमानवीय जेलों का निर्माण किया था. जब सावरकर 1911 में इस जेल में लाए गए तो यहीं पर भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए उनकी प्रतिबद्धता का अंत हो गया और भीतर से बुरी तरह टूटे हुए सावरकर ने तीन महीने के भीतर ही पहली बार माफ़ीनामा लिखकर अंग्रेज़ों से दया की भीख माँगनी शुरू कर दी. इसके बाद 1921 तक वो और उनकी पत्नी तब तक एक के बाद एक माफ़ीनामे लिखते रहे जब तक उनकी अंडमान जेल से रिहाई नहीं हो गई.

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यह भी समझा जा सकता है कि सावरकर अंडमान जेल की कठोर यातनाओं को सह नहीं सके और टूट गए. यह जेल 698 कोठरियों की एक तीनमंजिला इमारत थी जिसकी सेंट्रल टावर से पूरी जेल पर सख्त निगाह रखी जाती थी. इस जेल में किसी भी कैदी को जरा-सा मुँह खोलने पर भी कठोर से कठोर सजाएं दी जाती थीं. जेल का माहौल इतना डरावना और उदासी भरा था कि किसी भी कैदी के लिए यहां सजा भुगतना नरक के सामान था. 13.5×7.5 फीट की काल कोठरियों में 6×3 फीट के बेड पर लोहे की सलाखों और उनके पार ऊँची दीवार बाहरी दुनिया से कैदी को एकदम काटकर उकता देती थी. बावजूद इसके शायद ही कोई ऐसा मामला रहा हो जब जब किसी कैदी ने अंग्रेज़ों से माफ़ी या रियायत की दरख्वास्त की हो. अमानवीय सजाओं और खीझ से भरे माहौल से उकताए कई कैदियों ने आत्महत्या का विकल्प चुन लिया, लेकिन उन्होंने ब्रिटिश राज की जिद के आगे घुटने नहीं टेके.

जेल हिस्ट्री टिकट अंडमान के कालापानी की सजायाफ़्ता कैदियों के हर दिन की रिपोर्ट रखने वाला जेल रिकॉर्ड होता था. सावरकर का जेल हिस्ट्री टिकट बताता है कि न जाने क्यों अन्य सजायाफ्ता कैदियों के विपरीत सावरकर को अंडमान जेल में कभी भी 1914 के बाद कठोर शारीरिक परिश्रम का काम नहीं सौंपा गया. तेल निकालने जैसे कठिन कामों की बजाय अंडमान जेल के सबसे दुर्दांत अधिकारी ने भी उनको सिर्फ़ रस्सी बटने जैसे हलके काम सौंपे जबकि उनकी सेल के दूसरे कैदियों को दिन में कई-कई घंटे तक तेल निकालने के काम में खटना पड़ता था. शायद सावरकर अंडमान आते ही अपने अच्छे व्यवहार से जेल अधिकारियों को प्रभावित करने का प्रयास करने लगे थे. हालांकि 1912 से 14 के बीच उन्हें जेल नियम तोड़ने के जुर्म में कुल आठ बार सजाएं भुगतनी पडीं.

अब सवाल उठता है कि अंडमान जेल में क्रांतिकारी परंपरा के अपवादस्वरूप बार-बार लिखित माफ़ी मांगने वाले सावरकर को ‘अदम्य’ कहना कहाँ तक उचित है? अदम्य तो तब होता जब वो त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती जैसे तमाम दूसरे सजायाफ़्ता क्रांतिकारियों की तरह हर प्रकार का कष्ट उठाकर भी दशकों तक कालापानी की सजा भुगतकर आते या इंदुभूषण रॉय जैसे बंगाली क्रांतिकारी युवकों की तरह उकताकर फांसी लगाना बेहतर समझते बजाए अंग्रेजों से गिड़गिडाकर माफ़ी मांगने के. शायद आरएसएस की अपनी परम्परा में आज़ादी की लड़ाई एक नकली लड़ाई थी और अंग्रेज़ों के दिमाग की उपज हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना ही असली संघर्ष था. वरना आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह, बाघा जतीन और खुदीराम बोस सरीखों की वीर परंपरा के बीच सावरकर से उन्हें इतना ख़ास प्रेम क्यों होता?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के सहायक प्रवक्ता है और आज़ादी की लड़ाई को समर्पित संगठन राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट के संयोजक हैं.)


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