कश्मीर नहीं, कश्मीरी भी देश का अभिन्न हिस्सा हैं


article on pulwama attack and its impact on fight against terrorism

 

इस बात में कोई संदेह नहीं कि जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में 14 फरवरी को सीआरपीएफ के काफिले पर किए गए आत्मघाती हमले ने देश में जबरदस्त आक्रोश पैदा किया है. ऐसे मौकों पर इन भावनाओं की अभिव्यक्ति तर्कसंगत है. लेकिन एक जिम्मेदार राष्ट्र या नागरिक के तौर पर हम कुछ बातों को कतई नहीं भूल सकते.

पुलवामा हमले के बाद से मीडिया और आम लोगों के बीच ऐसी कुछ बातें चल रही हैं जो भारतीय हितों की रक्षा के खिलाफ हैं. या फिर ऐसा कहा जा सकता है कि गंभीरता से उन पर विचार नहीं किया गया है. मसलन, पाकिस्तान से बदला लेने के लिए जल्दबाजी में किसी युद्ध या हमले की वकालत ऐसी ही सोच का परिणाम है. इस बात को हमें समझना होगा कि ऐसी कोई भी कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय या घरेलू स्तर पर कई तरह के संकटों को बुलावा दे सकती है.

इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हम हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएं. अंग्रेजी की एक कहावत है, “प्रतिशोध एक ऐसा पकवान है जिसे ठंडा करके खाना ही बेहतर है.”

लेकिन एक दूसरी प्रवृति देखी जा रही है जो इससे भी ज्यादा गंभीर है. देश के कई हिस्सों से ऐसी खबरें आ रही हैं कि उन जगहों पर रह रहे कश्मीर छात्र और नागरिक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. उन्हें ऐसी संभावना सता रही है कि उन्हें स्थानीय आबादी द्वारा निशाना बनाया जा सकता है.

हालांकि, केंद्र सरकार, स्थानीय प्रशासन और सीआरपीएफ की तरफ से ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले लोगों को किसी परेशानी का सामना न करना पड़े. जम्मू-कश्मीर के नेता भी इस मामले को लेकर सक्रिय हैं. कश्मीर के लोगों को देश भर में जरूरत के वक्त सुरक्षा प्रदान करने के लिए कई तरह की निजी और सामूहिक पहल भी की गई है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसी नौबत तो आनी ही नहीं चाहिए.

अगर हम कश्मीर को देश का अभिन्न हिस्सा मानते हैं तो हमें कश्मीरियों को भी अपना अभिन्न हिस्सा समझना होगा. वे भारत के नागरिक हैं. उनके पास समान लोकतांत्रिक अधिकार और जिम्मेदारियां हैं. निर्दोष कश्मीरियों पर पर किया गया कोई भी हमला भारत के विचार पर भी हमला है. 

आज यह खबर आई है कि जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने हुर्रियत कांफ्रेंस के कई अलगाववादियों को राज्य से मिली सुरक्षा वापस ले ली है. उनमें मीरवाइज फारूक, शब्बीर शाह, हाशिम कुरैशी, बिलाल लोन और अब्दुल गनी बट के नाम शामिल हैं. एक राजनीतिक तबका लंबे समय से इसकी मांग कर रहा था. पिछले दिनों गृह मंत्रालय की तरफ से भी इस बात का इशारा किया गया था.

लेकिन सवाल यह उठता है कि उनको सुरक्षा देने और उसे जारी रखने का फैसला भी अलग-अलग दौर की भारत सरकारों का ही था. इसके पीछे कई वजहें थीं और एक सोची-समझी नीति भी. 

ये सभी बातें एक खास स्थिति की तरफ इशारा कर रही हैं. पुलवामा हमले के खिलाफ हमारा गुस्सा तो जायज है, लेकिन कहीं ऐसा न हो कि आतंकवाद से निपटने के लिए हम गलत दिशा में कदम उठा रहे हों.


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