पुलवामा: मीडिया की भूमिका और देशभक्ति का सवाल


article on pulwama attack and role of media

 

इतिहास के किस्सों में बताया जाता है कि जब विदेशी हमलावर भारत की धरती पर पहुंचे और उन्होंने देखा कि इतने चूल्हे जल रहे हैं तो उनके चेहरे विजयी भाव से खिल गए. उन्होंने इस बंटवारे का फायदा उठाया और लूटपाट मचा दी. लुटे वे, जिनके पास धन संपदा थी.

वो लोग इस लूटपाट को देखते रहे, जिनकी जिंदगी पहले ही लुटी हुई थी. जातियों में बंटा समाज और उसमें बड़े हिस्से को जहां देखना भी पसंद न किया जाता हो, उनकी ओर से आने वाली हवा भी प्रदूषित मान ली गई हो, उनका आगे बढ़ना जुल्म हो जाता.

पुलवामा में आतंकी हमले के तीसरे दिन. महज एक घंटे में पांच किलोमीटर शहर का रास्ता तय करने के दौरान ऐसा ही महसूस हुआ.

सबसे पहले घर की गली में करीब दो दर्जन लोग हाथों में मोमबत्ती थामे, हवा से लौ को बचाते हुए गगनभेदी नारे लगाते गुजरे. नारे थे, वंदे-मातरम, भारत माता की जय, पाकिस्तान मुर्दाबाद, देश के गद्दारों को जूते मारो सालों को.

इसके बाद नॉवेल्टी चौराहे पर दर्जन भर लड़कों को उन्हीं नारों के साथ पुतला फूंकते देखा, कुछ ही दूर पर दूसरे चौराहे पर भी लगभग उन्हीं नारों के साथ पुलवामा हमले का विरोध हो रहा था. यहां से सौ मीटर दूरी पर दो कतारों में लगभग दो दर्जन लोगों को तिरंगे झंडे लेकर चौकी चौराहे पर जाते देखा, नारे यहां भी वही थे.

तीन दिन से दिन भर से शाम आठ बजे तक यही हो रहा है. श्रद्धांजलि सभाएं, पुतला दहन और पाकिस्तान को नेस्तोनाबूद करने की मांग. इस गमगीन पल में भी लोगों का गम और गुस्सा एकता के सूत्र में नहीं बंध पाया है. कोई भी जगह ऐसी नहीं, जहां पूरा शहर या कस्बा एक हो कर मांग कर पाया हो. भले ही जज्बात कमोबेश एक जैसे दिखते हों. किसी मुहल्ले या गांव में हुए प्रदर्शन के अलावा सामने यही है. सबके अपने जुलूस, अपनी तस्वीरें, मीडिया में आने की ललक और अपनी देशभक्ति का मुजाहिरा.

इसकी वजह भी है. हर शहर और कस्बे में दर्जनों सामाजिक और राजनीतिक संगठन हैं. सभी ने मीडिया कवरेज में संगठन और पदाधिकारियों के नाम छपवाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम किए, पुतले फूंके, नारे लगाए, मोमबत्तियां जलाईं.

हर शहर और कस्बे में दर्जनों संगठन आक्रोश और दुख की घड़ी में काफी लोग ऐसे हैं, जो या तो सियासी चौसर का मोहरा बन गए हैं या फिर पहचान का संकट हल करने के लिए अपनी हाजिरी दर्ज कराने को सक्रिय हुए हैं.

कारण जो भी हो, लेकिन देश की एकता दिखाने के लिए ये बंटवारा सबके सामने है. देश के बंटवारे, कश्मीर या पूर्वोत्तर के राज्यों में अलगाववादी ताकतों को पानी पी-पीकर गालियां देने और अखंड भारत की बात करने वालों को ये बंटवारा नहीं दिखाई दे रहा. जिसने एक बार ये कर दिया, वह अपने फर्ज को अदा कर चुके होने के मूड में आ गया. बंटवारे का सिलसिला अब जातिवाद और धर्म के मुद्दे पर अटक गया है.

इस बीच कई दूसरे पहलू भी गौर करने लायक हैं. हिंदू शादी विवाहों का सिलसिला तो चल ही रहा है. तीनों दिन बैंड की धुन पर सड़क पर जाम लगाकर थिरकते, फैशनेबल कपड़ों और नशे में धुत युवाओं से लेकर हर वर्ग के लोगों को देखा गया. उन लोगों पर भी नजर गई जो पाकिस्तान को नष्ट करने, लाहौर को जलता हुआ देखने की हसरत पूरी होने से कम पर मानने वाले नहीं. सोशल मीडिया पर उनकी पोस्ट खून उबालने वाली हैं, लेकिन बारातों में बाबू साहब बनकर ‘तेरी आंख्या का यो काजल’ पर बेहतरीन अदाकारी करते भी दिखे.

ऐसा सिर्फ उनके साथ नहीं, बल्कि समाज के सबसे अधिक पढ़े लिखे होने के साथ आम लोगों के लिए प्रेरणा बताए जाने वाले लोगों को भी इस रंग-ढंग में देखा गया. बरेली शहर में हमले के ही दिन शाम को चिकित्सकों और उनकी पत्नियों ने डीजे पर जो नाच गाना किया, वह काफी लोगों को चुभा.

सबसे हास्यास्पद रोल मीडिया संस्थानों का है, जो नसीहत भी दे रहे हैं और हद दर्जे की खुदगर्जी का परिचय भी. वे इस बहाने ब्रांड प्रमोशन और विज्ञापन झटक लेने के मौके लपक लेने को आतुर दिखाई दिए. अखबारों ने पन्ने भरकर दर्द और एकता से दुश्मन को चुनौती देने की इबारतों को उकेरने को कलम तोड़ीं. लेकिन, शायद ही कोई अखबार हो, जिसमें फुल पेज से लेकर अलग-अलग साइज के विज्ञापनों का खुशमिजाज तस्वीरों से सजा पन्ना न हो.

प्रमुख अखबारों को देखिए, वैलेंटाइन डे की तस्वीरों वाले डॉक्टरों और कारोबारियों के जोड़े के साथ मुस्कुराते विज्ञापन, या फिर कारोबारियों से शहीदों की श्रद्धांजलि के विज्ञापन. हद तो ये भी रही कि सेक्स ताकत कैसे बढ़ाएं और छोटी इंद्री को लंबा करने से लेकर मनचाही इच्छा पूरी करने वाले झूठे विज्ञापनों से भी अखबार सजे रहे. इन विज्ञापनों से बची जगह ही शहीदों के लिए आंसू बहाने और गम दिखाने के लिए छोड़ी गई.

ब्रांड प्रमोशन की प्रतिद्वंद्विता के लिए भी इस मौके से भी अखबार नहीं चूके. उत्तर प्रदेश के बरेली में तीनों प्रमुख हिंदी अखबार अमर उजाला, दैनिक जागरण और हिंदुस्तान ने लगभग एक ही समय शहीदों को श्रद्धांजलि देने के कार्यक्रम रखे. सभी के पास शहर के चुनिंदा संगठनों के नेताओं और कारोबारियों की सूचियां थीं, सभी का आमंत्रण आनन-फानन में पहुंचा.

अखबार में छपना भी है और उनकी नाराजगी से बचना भी है, लिहाजा जो जहां पहुंच सका वहां पहुंचा और सभी जगह पहुंचने के लिए दौड़ा. बीट रिपोर्टरों को रुटीन खबरों, एक्सक्लूसिव खबरों के अलावा इस काम में भी लगाया गया कि उनकी बीट के प्रमुख लोगों को कार्यक्रम में लाना सुनिश्चित करें. जिनकी बीट के लोगों की आमद ठीक से नहीं हुई, उनकी अगले दिन बीट पर पकड़ कमजोर होने का सबूत माना गया.

अखबारों के प्रबंधन का शहादतों के प्रति रुख और धंधे की फिक्र का ही नतीजा था कि जितनी जगह उत्तर प्रदेश में झांसी के संस्करण में प्रधानमंत्री की रैली दिखाने की रही, उतनी शहीदों के लिए नहीं रही. निश्चय ही, इससे केंद्र और प्रदेश की सरकार का चेहरा भी सामने आया, जिसको रैली और सरकार की योजनाओं के विज्ञापन छपवाने में दिलचस्पी पर जोर रहा.

ऐसे में कोई सवाल उठा सकता है कि अखबार क्या खाली छोड़ देते? या फिर, क्या पहले से शेड्यूल विज्ञापनों को रोक देते? दोनों की सवाल कारोबारी मानसिकता की उपज हैं. खाली अखबार नहीं छपता, संवाददाताओं को समाज के हर तबके की राय और इस नौबत के जिम्मेदार कारणों को जानकर रिपोर्ट लिखने की जरूरत महसूस कराई जाती.

अखबारों के प्रबंधन तालमेल करते कि इस दुखद क्षण में हम साथ मिलकर शहर को एक साथ लाएंगे. उसकी कवरेज उसी तरह हर एंगल से कराई जाती, जैसे प्रधानमंत्री की रैली में की. दूसरा सवाल, शेड्यूल किए विज्ञापनों की हंसी-खुशी को एक दिन रोककर कोई पहाड़ नहीं टूट जाता, विज्ञापन पार्टियां भी इससे इनकार तो नहीं करतीं. या फिर ऐसे भी शेड्यूल विज्ञापन हो सकते कुछ, जैसे अमूल ने किया, कि छोटी बच्ची श्रद्धांजलि देती दिखी अमूल की ओर से.


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