पॉपुलिज्म के पसरते पांव


article on populist governments across the world

 

“इस उभार का अनुभव सिर्फ यूरोप में ही नहीं हो रहा है बल्कि सात सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में से पांच में पॉपुलिस्ट् नेता निर्वाचित होकर सत्ता में पहुंचे हैं. ये देश हैः भारत, अमेरिका, ब्राजील, मेक्सिको और फिलीपीन्स.” ये बात प्रतिष्ठित ब्रिटिश अखबार ‘द गार्जियन’ ने पॉपुलिस्ट नेताओं/पार्टियों के उदय के बारे में अपने विस्तृत अध्ययन की रिपोर्ट देते हुए कही है.

ज़ाहिर है, द गार्जियन से जुड़े अध्ययनकर्ताओं ने नरेंद्र मोदी, डोनल्ड ट्रंप, जेयर बोलसोनारो, आंद्रेस मेनुएल लोपेज़ ओब्राडोर और रोड्रिगो दुतेर्ते को एक ही प्रकार या श्रेणी का नेता माना है. इनमें सिर्फ मेक्सिको के नए राष्ट्रपति ओब्राडोर हैं, जिनका रूझान वामपंथ की तरफ है. बाकी सभी दक्षिणपंथी नेता हैं. द गार्जियन का ताजा अध्ययन बताता है कि ये नेता जिस तरह की राजनीति की नुमाइंदगी करते हैं, उसकी ताकत पिछले 20 साल में लगातार बढ़ी है. 2008 में दुनिया में आए आर्थिक संकट के बाद से ऐसे नेताओं या पार्टियों के लिए जन समर्थन में और तेज गति से इजाफा हुआ है.

इस अध्ययन में वाम और दक्षिणपंथी नेताओं को एक साथ रखने पर अनेक लोगों को एतराज हो सकता है. पॉपुलिज्म की परिभाषा पर मतभेद की काफी गुंजाइश है. द गार्जियन ने कहा है कि जाने-माने राजनीति-शास्त्री कास मुदे ने पॉपुलिज्म की जो परिभाषा दी है, उसे ही इस अध्ययन में अपनाया गया. इसके मुताबिक पॉपुलिस्ट नेता राजनीति को ईमानदार आमजन बनाम कुटिल या भ्रष्ट अभिजात्य वर्ग (इलीट) की लड़ाई रूप में पेश करते हैं. मुदे के मुताबिक पॉपुलिज्म अक्सर एक खास विचारधारा पर आधारित होती है. ये विचारधारा वाम या दक्षिणपंथी दोनों हो सकती है.

ये परिभाषा समस्या-ग्रस्त है. इसलिए कि फिलहाल दुनिया में आए पॉपुलिज्म के दौर के पीछे सबसे प्रमुख कारण दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनी उदारवादी-लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का आम जन की आकांक्षाओं पर खरा ना उतरना माना जाता है. खुद कास मुदे ने इसकी तीन वजहें बताई हैं. ये हैं- 2008 में आई मंदी, तथाकथित शरणार्थी समस्या और कई गैर-पॉपुलिस्ट पार्टियों का पॉपुलिस्ट पार्टियों में तब्दील हो जाना. दरअसल, ऐसी पार्टियों ने अपना रूप बदला तो इसके पीछे पहली दो वजहें रही हैं. असल में मूल कारण मंदी ही है. इससे पैदा हुए अंसतोष के कारण शरणार्थी या अल्पसंख्यकों को लेकर नफरत फैलाना और मतदाताओं को गोलबंद करना आसान हो गया. जब ऐसे हालत बने, तो इस तरह का रूझान रखने वाली पार्टियों ने अपना रुख उग्र कर लिया.

हकीकत यह है कि आर्थिक मंदी नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के बेलगाम और नाकाम होने के कारण आई. दूसरे विश्व युद्ध के बाद वजूद में आई उदारवादी व्यवस्थाओं ने कल्याणकारी राज्य का नकाब ओढ़ा था. सोवियत खेमे के ढहने के बाद उन्होंने अपना चोला उतार फेंका. इससे ही वो हालात बने, जिनकी परिणति 2008 से जारी मंदी में हुई. मंदी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है, तो वजह है कि बेलगाम पूंजीवाद समाज में मांग पैदा करने में विफल है. मांग इसलिए नहीं बढ़ रही है, क्योंकि यूरोपीय और अमेरिकी अर्थों में मध्य वर्ग की आमदनी घटती चली गई है. भारत जैसे देश में उच्च आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद रोजगार और लोगों की आमदनी में बढ़ोतरी ना होने का नतीजा गहरे सामाजिक असंतोष के रूप में देखने को मिला है. इस असंतोष से नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने का रास्ता खुला. लेकिन मोदी ने जो उम्मीदें जगाई थीं, वो अब टूट रही हैं. नतीजतन, नए सिरे से जन असंतोष के संकेत दिखने लगे हैं.

उदार व्यवस्थाओं से लोगों के मोहभंग की प्रक्रिया लंबी रही है. बेशक पुरानी व्यवस्था की अपनी उपलब्धियां हैं. लेकिन रोनाल्ड रेगन-मार्गरेट थैचर का दौर आने के बाद धनी लोकतांत्रिक देशों के शासक समूहों ने खुद उदारवादी-लोकतंत्र की संभावनाओं को नष्ट किया. यूरोप में लोकतंत्र धीरे-धीरे बहुराष्ट्रीय पूंजी के शिकंजे में फंसता चला गया. आज ब्रेग्जिट हो या डोनल्ड ट्रंप का सत्ता में आना अथवा ऐसे अन्य नेताओं और पार्टियों का उभार- उसे इसी परिघटना का नतीजा समझा जा रहा है.

इसीलिए उग्र दक्षिणपंथी नेताओं को वामपंथी (या रैडिकल वामपंथी) नेताओं के समान तराजू पर रखना समस्या-ग्रस्त है. इसलिए कि एक तरफ वो नेता हैं, जो उन्हीं नीतियों में यकीन करते हैं, जिनकी वजह से ये समस्या आई. दूसरी तरफ वो नेता हैं, जो इन नीतियों के विकल्प की बात करते हुए जन समर्थन बना रहे हैं. इन दोनों को एक जैसा कैसे समझा जा सकता है?

बहरहाल, द गार्जियन के अध्ययन से सामने आया कि यूरोप में गुजरे 20 वर्षों के दौरान पॉपुलिस्ट पार्टियों के समर्थन में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है. इसके परिणामस्वरूप आज 11 देशों में ऐसी पार्टियों के नुमाइंदे सरकार में शामिल हैं. इनमें से ज्यादातर दक्षिणपंथी पॉपुलिस्ट पार्टियों के नेता हैं. दो दशक पहले यूरोपीय मतदाताओं के बीच ऐसी पार्टियों का समर्थन आधार महज सात फीसदी था, जो आज 20 प्रतिशत से ऊपर हो चुका है. ये पार्टियां या पॉपुलिस्ट नेता दावा करते हैं कि वे साधारण जन के हितों के समर्थक हैं. वे “निहित स्वार्थी तत्वों का विरोध कर रहे हैं, जिन्होंने व्यवस्था पर कब्जा जमा रखा है.” लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसी ताकतें लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पटरी से उतार देती हैं. वे लोकतांत्रिक संस्थाओं, मीडिया और न्यायपालिका की कद्र नहीं करतीं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का खुलेआम उल्लंघन करती हैं.

भारत के लोगों के लिए इन रूझानों को समझना कठिन नहीं है. 2011 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की नकाब ओढ़े पॉपुलिस्ट राजनीति ने अपने कदम यहां फैलाए. उसका नतीजा आज संस्थाओं और आम नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए खड़े हुए खतरे के रूप में हमारे सामने है. मगर सवाल है कि इस हालत से कैसे निकला जाए? क्या नव-उदारवादी नीतियों का बिना विकल्प अपनाए ऐसा करना संभव है? जिन लोगों को सचमुच लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की चिंता है, उन्हें आज इस प्रश्न का जवाब ढूंढना ही होगा.


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