राम मंदिर मुद्दे की शरण में बीजेपी


bjp politics on babri masjid

 

बाबरी मस्जिद तोड़ने की तारीख का आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में निर्विवाद रूप से ख़ास महत्व है, लेकिन इस घटना की 26 वीं बरसी का देश की वर्तमान राजनीति और संभवतः उसके तात्कालिक भविष्य से इतना गहरा नाता कभी नहीं रहा, जितना इस बार है.

निस्संदेह, इससे पहले भी इस घटना के बहाने बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा विश्व हिन्दू परिषद जैसे उसके सहयोगियों द्वारा बहुसंख्यक राजनीति की जमीन को उर्वर बनाए रखने का काम किया जाता रहा है. बल्कि, इस लिहाज से, विहिप द्वारा अयोध्या में 6 दिसंबर को शौर्य दिवस और 18 दिसंबर को गीता दिवस मनाने की घोषणाएं कोई बहुत अप्रत्याशित नहीं लगतीं हैं.

लेकिन अगले साल होने वाले आम चुनाव की पृष्ठभूमि में देखें तो इस बार बाबरी मस्जिद तोड़ने की तारीख का राजनीतिक महत्व पहले से कहीं अधिक व्यापक है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यह घटना बीजेपी को वह बड़ा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य तैयार करने में मदद कर सकती है जिसकी तलाश पार्टी को आम चुनाव से पहले है. यह अटकलें पहले ही तेज हैं कि संघ और विहिप ने वर्तमान बीजेपी सरकार के अलोकप्रिय कदमों (नोटबंदी और जीएसटी) तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आकर्षक छवि में आ रही गिरावट को भांपकर रामजन्म भूमि मुद्दे को पुर्नजीवित किया है.

संघ जानता है कि सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले पर अगले साल जनवरी में होने वाली सुनवाई देश के चुनावी माहौल को नाटकीय मोड़ दे सकती है. हालांकि बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों में बीते कुछ वर्षों में अयोध्या मसले पर चल रही न्यायिक सुनवाई के प्रति एक उत्साहजनक रवैया रहा है. उन्हें लगता रहा कि केंद्र की सत्ता में होने और देश में हिन्दू बहुसंख्यक मांगों के प्रति हाल में तैयार हुई एक व्यापक सहमति के चलते इस मामले की न्यायिक सुनवाई उनके हक में रहेगी.

लेकिन संघ और विहिप जैसे संगठन ये भी जानते हैं कि न्यायिक प्रक्रियाओं से जुड़ी अपनी अनिश्चितताएं होती हैं और ऐसी किसी भी प्रतिकूल स्थिति को अपने हक में मोड़ने के लिए उन्हें अयोध्या के मुद्दे को लगातार हवा देते रहनी होगी. देखा जाए तो संघ प्रमुख मोहन भागवत के विजयदशमी पर दिए गए भाषण में इस रणनीति के संकेत भी छिपे थे. राम मंदिर निर्माण को राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा बताकर उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में न्यायिक सुनवाई की शर्तें जैसे पहले ही तय कर दीं. इसके बाद राम मंदिर निर्माण के लिए संसदीय कानून बनाने की मांग को जोर-शोर से आगे बढ़ाना तथा बीते दिनों अयोध्या में धर्म संसद का आयोजन करना, सब कुछ इस व्यापक रणनीति का हिस्सा भर ही था.

दरसअल, आम चुनाव करीब आते-आते बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों का रामजन्म भूमि मुद्दे पर लौटना कोई बहुत अप्रत्याशित नहीं है. यह दोहराने की आवश्यकता नहीं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की राजनीतिक और वैचारिक आधार का जो विस्तार हुआ, उसकी जड़ें कहीं न कहीं बाबरी मस्जिद तोड़ने के बाद बनी राजनीतिक परिस्थितियों में ही थीं. इस दौर में बहुसंख्यक वर्चस्ववाद और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की खुराक ने पार्टी के राजनीतिक वनवास को खत्म किया. साल 2014 और उसके आस-पास बने राजनीतिक माहौल में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की इस सांस्कृतिक राजनीति को कॉरपोरेट जगत का अभूतपूर्व साथ मिला. नतीजतन, नरेंद्र मोदी बीजेपी की इस आक्रामक राजनीति को विकास के मुहावरे में लपेटकर पेश करने में सफल रहे.

हालांकि, यह मानना गलत होगा कि विकास के इस नए राजनीतिक मुहावरे के चलते बीजेपी ने अपने जनाधार के पारंपरिक मुद्दों से कोई सचेत दूरी बरत ली. बीते सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदुत्व की इस राजनीति की अभिव्यक्ति के लिए कुछ नए अवसर पैदा तो किए लेकिन इन्हें राजनीतिक ख़ुराक उन्हीं मूल्यों और भाषा से मिलती रही जिन्हें संघ परिवार गर्व से अपनी थाती कहता है. आश्चर्य नहीं कि इन सालों में राम जन्मभूमि मुद्दा भी पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं से कभी पूरी तरह विस्थापित नहीं हुआ. पार्टी के नेतृत्व में हुए अंदरूनी परिवर्तनों और बदली हुई परिस्थितियों में इस मुद्दे को संबोधित करने की रणनीति में कुछ बदलाव अवश्य हुआ, लेकिन बीजेपी और संघ परिवार की मूल वैचारिक समझ जस की तस रही.

उदाहरण के तौर पर, बीते सालों में पार्टी ने यह प्रचार जोर-शोर से किया कि वह रामजन्म भूमि विवाद के शांतिपूर्ण न्यायिक समाधान के पक्ष में है, लेकिन इन बातों के साथ ये शर्त हमेशा जोड़ी गई कि इस समाधान के लिए सबसे पहले बाबरी मस्जिद पक्षकारों को जमीन पर अपना दावा छोड़ना होगा. यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि संघ परिवार और बीजेपी के सहयोगी संगठन अब भी अपने दिग्गज नेताओं की सक्रिय भूमिका को नकारते हुए बाबरी मस्जिद तोड़ने को अनियंत्रित भीड़ का कृत्य मानते हैं. वहीं कुछ नेता यह बेलाग कहते हुए नज़र आते हैं कि उन्हें बाबरी मस्जिद तोड़ने पर गर्व है. क्या ये सब वही बातें नहीं हैं जिन्हें संघ परिवार बरसों से दोहराता रहा है?

वास्तव में, बीजेपी की राजनीतिक और वैचारिक परियोजना से राममंदिर मुद्दा अब भी बहुत गहराई से जुड़ा है. नाजुक और निर्णायक राजनीतिक मौकों पर ऐसे मुद्दों का इस्तेमाल कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना और राजनीतिक विमर्श की शर्तें तय करना बीजेपी की वैचारिकी की सीमा है. इसमें संदेह नहीं कि विकास की नई राजनीतिक भाषा के खोल के भीतर बहुसंख्यक राजनीति का सत्व ही घुला हुआ है. हालांकि यह अच्छा ही है कि बीजेपी अपनी राजनीति के वास्तविक मूल्यों के साथ खुलकर सामने आ रही है. कम से कम इससे उसके कथित विकासवादी एजेंडे की पोल खुलने लगी है.


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