बिहार: किसकी ज़मीन कितनी मज़बूत?


bihar political scenario in the context of loksabha election

 

2 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जमुई में जन सभा कर बिहार में अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की. जमुई लोकसभा क्षेत्र से केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे और सांसद चिराग पासवान एक बार फिर से एनडीए के उम्मीदवार हैं जबकि महागठबंधन में यह सीट उपेन्द्र कुशवाहा की अगुवाई वाली रालोसपा के खाते में गई है.

नरेन्द्र मोदी ने दो अप्रैल को ही अपनी दूसरी सभा गया में की जहाँ से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी महागठबंधन के उम्मीदवार हैं. इस सभा में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी नरेन्द्र मोदी के साथ मंच साझा किया और इस तरह नीतीश कुमार ने भी अपने प्रचार की शुरूआत की. राहुल गांधी और अमित शाह सूबे में पहले ही चुनाव प्रचार शुरू कर चुके हैं. तेजस्वी करीब-करीब हर रोज एक साथ कई सभा कर रहे हैं. इस तरह होली के बाद ही सही बिहार पर चुनावी रंग बड़ी तेजी से चढ़ रहा है.

इसके पहले होली के बाद बिहार के दोनों गठबंधनों ने अपने-अपने उम्मीदवारों की घोषणा की थी. यह काम जहां एनडीए ने व्यवस्थित तरीके तो महागठबंधन ने गिरते-पड़ते किया.

महागठबंधन अब तक भी अपने आठ उम्मीदवारों की घोषणा नहीं कर पाई है जबकि एनडीए ने खगड़िया को छोड़ अपने सारे उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं. ऐसे में आइए देखते हैं कि सूबे के दोनों अहम गठबंधन लोक सभा क्षेत्रों और उम्मीदवारों की घोषणा के बाद कितने पानी में और क्यों हैं?

चुनावी लड़ाई में फिलहाल दोनों गठबंधनों की बराबर की हैसियत दिखाई दे रही है. दोनों का पलड़ा बराबर दिखाई दे रहा है. सामाजिक समीकरणों के आधार पर देखें तो एनडीए ने करीब दो साल पहले नीतीश कुमार को अपने साथ वापस जोड़ कर बढ़त जरूर बनाई थी मगर समय के साथ महागठबंधन ने जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा को एनडीए से तोड़ अपने साथ मिलाकर और फिर बॉलीवुड सेट डिज़ाइनर से नेता बने मुकेश साहनी को अपने साथ जोड़कर इसकी भरपाई करने की कोशिश की है. साथ ही राजद ने सीपीआई-एमएल के लिए एक सीट छोड़कर एक हद तक वामपंथ का भी समर्थन हासिल किया है.

एकजुटता दिखाने में पिछड़ा महागठबंधन

गठबंधनों के अंदर सीट बंटवारे के आईने में देखें तो एनडीए ने अक्टूबर में ही इस दिशा में सार्वजनिक रूप से घोषणा कर बढ़त लेने की कोशिश की थी लेकिन उसने घोषणा पहले की तो उसकी अंदरूनी खींचतान भी पहले सामने आई और नतीजा ये हुआ कि बीते साल दिसंबर में बिहार में एनडीए एक बार फिर तब टूटा जब उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा एनडीए से अलग हो गई. रालोसपा के बाद रामविलास पासवान की लोजपा ने भी आंखें तरेरीं मगर मोल-भाव के बाद अपने लिए 6 लोकसभा और 1 राज्य सभा सीट हासिल कर वह एनडीए में बनी रही.

इस खींचतान के बाद महागठबंधन के पास एक बेहतर तैयारी के साथ जनता के सामने आने का मौका था. अगर वह समय पर, पूरी एकजुटता दिखाते हुए एक साथ अपने सभी उम्मीदवारों की घोषणा करती तो वह अपनी ऐसी छवि पेश कर सकती थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और उसके घटक दलों ने गिरते-पड़ते सीटों और उम्मीदवारों की घोषणा की. अभी तक आठ सीटों पर उसके उम्मीदवारों का नाम तय होना बाकी है. समग्रता में देखें तो एनडीए ने एलायंस बनाने, सीट बंटवारे से लेकर उम्मीदवारों की घोषणा करने में बिहार सहित पूरे देश में बेहतर तैयारी दिखाई है. बीजेपी इस मामले में ज्यादा उदार और समझौतापरक दिखी. इस मामले में विपक्ष पूरे देश सहित बिहार में भी पिछड़ा.

‘तीसरे’ की मौज़ूदगी ने बढ़ाई चिंता

जहां तक सीट बंटवारे और उम्मीदवारों की घोषणा के बाद नेताओं की बगावत की बात है तो दोनों गठबंधनों को थोड़ा-बहुत इससे जूझना पड़ रहा है. एनडीए को बेगूसराय, पटना साहिब, बांका, कटिहार जैसी सीटों पर इससे दो-चार होना पड़ा तो वहीं महागठबंधन के सामने दरभंगा, खगड़िया, शिवहर, औरंगाबाद, सीतामढ़ी में ऐसी चुनौती पेश आई. लेकिन चुनाव के माहौल में ऐसी नाराजगी और आकांक्षाएं सामने आना स्वाभाविक है और गठबंधन के दौर में इसे पूरा करना किसी भी पार्टी या गठबंधन के लिए मुमकिन नहीं है.

वहीं चुनाव मैदान में कुछ सीटों पर ‘तीसरे’ की मौज़ूदगी ने भी दोनों गठबंधनों की चिंता बढाई है. बेगूसराय में भाकपा के कन्हैया कुमार जहाँ दोनों गठबंधनों को चुनौती दे रहे हैं. बांका में बीजेपी नेत्री और पूर्व सांसद पुतुल कुमारी गठबंधन द्वारा प्रत्याशी नहीं बनाए जाने के कारण निर्दलीय मैदान में हैं और इससे एनडीए उम्मीदवार की परेशानी बढ़ी है. इसी तरह मधेपुरा से पप्पू यादव ने वहां कि लड़ाई को त्रिकोणीय बना दिया है जबकि जहानाबाद से वर्तमान सांसद अरुण कुमार का एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ना वहां के जदयू प्रत्याशी के लिए मुश्किलें खड़ी करेगा. इसी तरह दरभंगा, मधुबनी, खगड़िया, शिवहर, सीतामढ़ी, बेतिया सीटों पर भी त्रिकोणीय मुकाबले की संभावना है मगर पूरी तस्वीर नामांकन के बाद साफ़ होगी.

किस पार्टी ने किसे अपनाया, किसे छोड़ा

अब ये देखा जाए कि किस गठबंधन ने किस जातीय समूह को किस तरह से साधने की कोशिश की है और इसका क्या असर अभी दिखाई दे रहा है. माना जाता है कि सवर्ण कही जाने वाली जातियों का समर्थन बड़े पैमाने पर हाल के वर्षों या दशकों में बीजेपी को मिला है. बिहार में इन जातियों में भूमिहार जाति सबसे मुखर मानी जाती है मगर बीजेपी ने इस बार एक मात्र भूमिहार उम्मीदवार गिरिराज सिंह के रूप में उतारा है जबकि उसने राजपूत जाति से पांच और दो ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे हैं.

ऐसे में ज़मीनी हालात बताते हैं कि अभी भूमिहार बीजेपी से थोड़े नाराज चल रहे हैं. माना जाता है कि गिरिराज सिंह के बेगूसराय से चुनाव लड़ने में शुरुआती अनिच्छा की एक वजह उनके समुदाय की यह नाराजगी भी रही. यह भी कहा जा रहा है कि बेगूसराय और मुंगेर जैसी जिन सीटों पर भूमिहार उम्मीदवारों के बीच मुकाबला है वहां एनडीए को दिक्कत हो सकती है.

वहीं बीजेपी ने एक भी उम्मीदवार कुशवाहा (कोइरी) समुदाय से नहीं दिया है जो कि पिछड़ा वर्ग से आने वाली जातियों में यादवों के बाद सबसे ज्यादा आबादी वाला समुदाय है. उपेंद्र कुशवाहा के बीजेपी से अलग हो जाने की स्थिति में बीजेपी का यह फैसला कोइरी समुदाय को एनडीए से और दूर कर सकता है. हालांकि जदयू ने कुशवाहा (कोइरी) समुदाय से तीन उम्मीदवार दिए हैं लेकिन इस पर बड़ा सवालिया निशान है कि उपेंद्र कुशवाहा के अलग होने के बाद नीतीश के नाम पर कुशवाहा एनडीए के साथ पहले की तरह बने रहेंगे.

बीते साल कांग्रेस ने मदन मोहन झा के रूप में जब एक ब्राह्मण को बिहार प्रदेश अध्यक्ष बनाया था तो तब इसे सवर्ण वोटरों का फिर से समर्थन हासिल करने की कोशिश के रूप में भी देखा गया था. मगर कांग्रेस को सीट बंटवारे में इतनी सीट ही नहीं मिली है कि वह बड़ी संख्या में सवर्ण उम्मीदवार उतार कर बीजेपी का बड़ा समर्थक वर्ग माने जाने वाले सवर्ण मतदाताओं में सेंध लगा सके.

ब्राह्मण को प्रदेश अध्यक्ष बनाने वाली पार्टी का हाल यह है कि वह अब तक एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दे पाई है. मदन मोहन झा जिस मिथलांचल के इलाके से आते है और जहां मैथिल ब्राह्मण आम तौर पर सभी सीटों पर असर रखते हैं और कुछ सीटों पर निर्णायक होते हैं, उस इलाके में भी कांग्रेस सहित महागठबंधन के किसी दल ने कोई ब्राह्मण उम्मीदवार नहीं दिया है.

अब बात राजद की. उम्मीदवारों के चयन के लिहाज से देखें तो लालू की गैर मौजूदगी में कहीं से ऐसा नहीं लगा कि तेजस्वी के नेतृत्व में कोई नया राजद सामने आ रहा है. एक ओर गंभीर अपराध में दोषी करार दिए गए नेताओं की पत्नियों (सिवान और नवादा) को टिकट मिला तो दूसरी ओर उम्मीदवारों में युवा चेहरे लगभग गायब रहे.

अपनी पुरानी सोच-समझ और रणनीति के तहत ही इस बार भी राजद ने अपने खाते में आए करीब आधे सीटों पर यादव उम्मीदवार उतारे हैं. अपने खाते की 20 सीटें में से उसने 9 सीटों पर (आरा सीट पर समर्थन सहित) यादव नामधारी उम्मीदवार उतारे हैं.

किधर जाएंगी गैर-यादव पिछड़ी जातियां

बिहार में बीते कुछ विधान सभा और लोक सभा चुनावों (2015 के विधानसभा चुनाव को छोड़) में राजद के खिलाफ गैर-यादव पिछड़ा गोलबंदी होती रही है जिसके केंद्र में नीतीश कुमार रहे हैं. लालू यादव के पास अबकी इस ध्रुवीकरण को रोकने का मौका था क्योंकि वे सत्ता में नहीं हैं और जेल जाने की वजह से लालू के प्रति सहानभूति भी है.

इन सब बातों को अपने पक्ष में संगठित करने का लालू के पास मौका था लेकिन यह काम महज नारों और भाषणों से मुमकिन नहीं है. इसके लिए राजद को चुनाव सहित कर पूरी पार्टी में गैर-यादव पिछड़ों और अति पिछड़ों को उचित प्रतिनिधित्व देने की जरूरत पड़ती. फिलहाल यादव समुदाय की उम्मीदवारी कम करके और गैर-यादव पिछड़ों और अतिपिछड़ों को ज्यादा टिकट देकर लालू ऐसा कर सकते थे.

मगर लगता है कि इसमें वह चूक गए. इस बड़े वर्ग से महज एक उम्मीदवार को उन्होंने भागलपुर से टिकट दिया है और इस बड़े और निर्णायक वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की पूरी जिम्मेदारी अपने सहयोगियों पर डाल दी है. राजद के सहयोगी दल कुल मिलाकर ज्यादा से ज्यादा दस सीटों (अब तक पांच सीट) पर गैर-यादव पिछड़ा और अतिपिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को टिकट देने की स्थिति में हैं जबकि एनडीए ने इस बड़े वर्ग से सात अति पिछड़ा उम्मीदवारों सहित 14 को प्रत्याशी बनाया है.

इस सबके बाद भी ऐसा माना जा रहा है कि उम्मीदवारों के चयन में महागठबंधन ने सतर्कता और समझदारी का परिचय देकर मुकाबले को बराबरी पर ला दिया था. मल्लाहों की अतिपिछड़ों में बड़ी आबादी मानी जाती है और वीआईपी पार्टी प्रमुख मुकेश सहनी अभी इसके बड़े नेता के रूप में उभरे हैं. यूँ तो इस समुदाय की आबादी यादवों की तरह लगभग पूरे बिहार में है मगर मुजफ्फरपुर, खगड़िया, समस्तीपुर, भागलपुर, दरभंगा, मधुबनी जैसे क्षेत्रों में ये चुनाव में अहम भूमिका निभाते हैं.

ऐसे में मुकेश सहनी सहित मल्लाह समुदाय के दो प्रत्याशी उतारे जाने से इस बड़े समुदाय का इस बार समर्थन महागठबंधन को मिलने की बात कही जा रही है. गौरतलब है कि इस समुदाय ने 2014 में बड़े पैमाने पर एनडीए के लिए वोट किया था.

इसी तरह महागठबंधन द्वारा राजपूतों का गढ़ कहे जाने वाले औरंगाबाद और नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा की सीट पर अतिपिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को उतारकर भी इस बड़े और निर्णायक समुदाय को संदेश देने का काम लिया है.

चुनाव प्रचार

जैसा की आम तौर पर होता है चुनावी तैयारी के लिहाज से बीजेपी आगे दिखाई दे रही है, चाहे मामला तैयारी, संसाधन, कार्यकर्ताओं का हो या स्टार प्रचारकों का. लालू यादव के जेल में होने के कारण महागठबंधन के सामने स्टार प्रचारकों की कमी रहेगी.

महागठबंधन के घटक दलों के हर शीर्ष नेता को छोड़ उनका कोई नेता शायद ही जनता के बीच खास आकर्षण रखता हो. शत्रुघ्न सिन्हा का कांग्रेस में शामिल होना महागठबंधन को एक स्टार प्रचारक दे सकता है मगर अभी यह साफ़ नहीं है कि वे पूरे प्रदेश में कितने सक्रिय होंगे. वहीं एनडीए के पास नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की अगुवाई में लोकप्रिय चुनाव प्रचारकों की लंबी लिस्ट है.


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