मनमोहन और मोदी सरकार के बीच का बुनियादी फर्क


comparison between nehru and modi government

 

कांग्रेस के शासनकाल को दिनरात कोसने वालों के लिए एक बुरी ख़बर है. “सत्तर सालों में कुछ नहीं हुआ” की उनकी आस्था को भारी ठेस लग सकती है.

यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) और ऑक्सफ़ोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव (ओपीएचआई) ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण शोध किया है.

दोनों ने दुनिया में गरीबी का अध्ययन करने के लिए मल्टीडायमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स (एमपीआई) यानी बहुआयामी गरीबी सूचकांक विकसित किया है. याद रहे इन दोनों में से कोई भी दूर-दूर तक कांग्रेस से जुड़ा नहीं है— एक संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था है और दूसरा दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों का इनिशिएटिव है.

अथाह गरीबी को पहचानने के लिए लिए यह सूचकांक दुनिया भर में स्वीकृत मापदंडों का पालन करता है.

स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा के अभाव, जीवन-स्तर के विभिन्न कारकों जैसे कुपोषण, पीने के साफ़ पानी के अभाव, साफ़-सफ़ाई की अपर्याप्त व्यवस्था और स्वच्छ ईंधन इस सूचकांक में शामिल हैं. यह दुनिया के 105 देशों को अपने अध्ययन में शामिल करता है जो दुनिया की तकरीबन 77 प्रतिशत आबादी को ख़ुद में समेटते हैं. इन 77 प्रतिशत लोगों में से कुल 23 प्रतिशत लोग अति ग़रीब आबादी की श्रेणी में आते हैं.

भारत में अति गरीब आबादी के जीवन स्तर में सुधार के लिए एमपीआई ने 2005-6 से लेकर 2015-6 तक के दशक को अपने अध्ययन का समयकाल बनाया है.

ध्यान रहे यह दस साल मनमोहन सिंह नीत यूपीए सरकार का शासनकाल हैं. यह वो समय है जब सोनिया गांधी के नेतृत्व में नेशनल एडवाइजरी कमिटी देश के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों के लिए एक के बाद एक कल्याणकारी योजनाओं का खाका तैयार करने में जुटी थी. यह भी बताना ज़रूरी है कि यह वो ही समय है जब पहले आडवाणीजी और फिर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में समूची बीजेपी मनमोहन सिंह और उनकी सरकार की खिल्ली उड़ाने में जुटी थी.

आम गरीब जनता के पक्ष में काम करने की सजा के तौर पर देश के कुछ कॉर्पोरेट घरानों ने कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने के लिए नरेंद्र मोदी के प्रोजेक्ट पर पैसा लगाया. पिछले पांच सालों में जनता के पैसे की कॉर्पोरेट लूट और पूंजीपतियों के लाखों करोड़ रुपये के कर्जों की माफी मोदी द्वारा इसी अहसान को चुकाने की कवायद है.

बहरहाल, यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) और ऑक्सफ़ोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव (ओपीएचआई) की इस रिपोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर ध्यान दिलाना बहुत ज़रूरी है.

(1) भारत ने अपनी ग़रीबी की दर 2005-6 से 2015-6 के बीच 55 प्रतिशत से घटाकर 28 प्रतिशत करने में सफलता हासिल की है.

(2) इस दौरान मनमोहन सिंह सरकार को 27 करोड़ 10 लाख लोगों को ग़रीबी रेखा से ऊपर लाने में सफलता मिली.

(3) बहुआयामी ग़रीबी की दर सबसे प्रभावी ढ़ंग से दस साल से कम उम्र के बच्चों के बीच कम की जा सकी है.

(4) वर्ष 2005-6 में जहां देश के भीतर तकरीबन 29 करोड़ 20 लाख बच्चे बहुआयामी गरीबी से प्रभावित थे, वर्ष 2015-6 तक आते-आते इसमें 47 प्रतिशत की कमी आई और करीब 13 करोड़ 60 लाख बच्चे बहुआयामी गरीबी के कुचक्र से बाहर लाए जा सके. बच्चों की शिक्षा और पोषण के सम्बन्ध में यह मनमोहन सिंह सरकार की एक बड़ी और दूरगामी सफलता थी.

(5) 1998-9 से लेकर 2005-6 के दौरान यानी अटल बिहारी बाजपेयी के समय में गांवों में रहने वाले लोगों, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों सहित बच्चों के विकास की प्रक्रिया अत्यंत धीमी थी जिसको बहुत तेजी से बढ़ाना मनमोहन सरकार की क्रांतिकारी उपलब्धि है.

अब जबकि पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने न्याय यानी न्यूनतम आय योजना को अपनी चुनावी घोषणा का मुद्दा बनाया है, कांग्रेस की पिछली सरकार की यह उपलब्धि आम लोगों तक पहुँचाना जरूरी हो जाता है.

नरेंद्र मोदी 2014 के चुनावों में लोगों को काला धन वापस लाकर हर भारतीय को पंद्रह लाख रुपये देने का वादा करके सत्ता में आये थे. लेकिन उनकी सरकार जाने के काफ़ी पहले ही भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने यह स्वीकार कर लिया था कि यह तो महज़ एक चुनावी जुमला था.

इस सरकार का अंत होते-होते नरेन्द्र मोदी ने आम गरीब भारतीय किसान को ऐन चुनावों से पहले लुभाने के लिए सालाना 6000 रुपये देने का वादा किया है जिसकी पहली किश्त 2000 रुपये के रूप में बड़ी तेजी के साथ लोगों के खातों में पहुंचाई जा रही है.

दरअसल मोदी सरकार पूंजीपतियों के पैसों के बल पर एक चुनावी हवा बनाकर सत्ता में आई थी, उसने पिछले पांच साल अम्बानी और अडानी जैसे कॉर्पोरेट को फायदा पहुंचाने के लिए काम किया है.

हर सही-गलत काम करते हुए श्रम कानूनों में बदलाव हो या ग्रीन ट्रिब्यूनल की संस्तुतियों की अनदेखी करते हुए पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली तमाम कॉर्पोरेट परियोजनाओं को हरी झंडी देना हो या अनिल अंबानी को कर्जे की भरपाई करने के लिए राफ़ेल की दलाली देना— यह सब दरअसल मोदी सरकार के गरीब विरोधी चेहरे को उजागर करने वाली बातें हैं.

ठीक चुनावों के पहले लोगों को मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी सरकार के बीच का यह बुनियादी फर्क बताना जरूरी है क्योंकि पिछले पांच सालों में मोदी सरकार ने आम लोगों की जिंदगी को लगातार दुरूह बनाया है और सरकारी जिम्मेदारी को लगातार कम करते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य सहित आम लोगों को फायदा पहुंचाने वाले तमाम सार्वजनिक उपक्रमों को बर्बाद करने का काम किया है.

वहीं दूसरी ओर, कांग्रेस की पिछली सरकार ने गरीबी की दर में व्यापक गिरावट लाने वाली योजनाओं को अमली जामा पहनाया और अब राहुल गांधी उस पर निर्णायक प्रहार करते हुए तकरीबन पांच करोड़ परिवारों और 25 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने को प्रतिबद्ध दिख रहे हैं.

न्यूनतम आय गारंटी योजना ठीक उसी तरह क्रांतिकारी सिद्ध हो सकती है जैसे भोजन, शिक्षा, सूचना और काम के अधिकार संबंधी क़ानून थे. प्रतिमाह 12 हज़ार की न्यूनतम आय का बेंचमार्क भी उसी तरह आम मजदूर की दिहाड़ी में वृद्धि करेगा जिस तरह मनरेगा ने अचानक प्रतिदिन की मजदूरी बढाकर 130 रुपये कर दी थी.

जाहिर है अगर देश की एक बड़ी आबादी अगर अपनी बढ़ी हुई क्रय क्षमता और अन्य योग्यताओं के साथ मुख्यधारा में शामिल होगी तो निश्चित ही देश की अर्थव्यवस्था को इससे बहुत तेज उछाल मिल सकता है.

(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के संयोजक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता हैं.)


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