सरोकारी पत्रकारिता गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि


gandhi and journalism of his time

 

संपादक बाबूराव विष्णु पराड़कर ने 1925 में वृंदावन में आयोजित हिंदी संपादक सम्मेलन को संबोधित करते हुए भविष्य में हिंदी के समाचार पत्र कैसे होंगे, इस पर कहा था, ‘पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे. आकार बड़े होंगे. छपाई अच्छी होगी. मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे. लेखों में विविधता होगी. कल्पकता होगी. गंभीर गवेषणा की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी. ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जायगी. यह सब होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे.’

करीब 93 साल पहले पराड़करजी की कही बात से पता चलता है कि वह पत्रकारिता की मौजूदा अनुभूतियों के साथ भविष्य में होने वाले बदलावों को भी पहचान रहे थे. उन्होंने हिंदी समाचार पत्रों के संबंध में जब यह बात कही थी उस समय टीवी पत्रकारिता नहीं थी, लेकिन उनकी बात समाचार पत्रों के साथ आज की टीवी पत्रकारिता पर भी लागू होती है.

देश में पत्रकारिता का शुरुआती लक्ष्य नवजागरण लाने और उस नवजाग्रत समाज को स्वतन्त्रता आंदोलन के लिए प्रेरित करने का था. उस वक्त लेखकों ने समाचार पत्र निकालने और उसमें सहयोग करने का जिम्मा लिया था. लेखक ही पत्रकार/संपादक होते थे. उसी तरह अधिकांश नेता भी पत्रकार/संपादक की जिम्मेदारी निभाते थे. बाबूराव विष्णु पराड़कर जिस समय पत्रकारिता करते हुए नवजागरण लाने की दिशा में काम कर रहे थे उसी समय महात्मा गांधी स्वतन्त्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे.

पराड़करजी जिस समाचार पत्र ‘आज’ के लंबे समय तक संपादक रहे वह गांधी की नीतियों का प्रबल पक्षधर था. गांधी पत्रों की ताकत पहचानते थे. उसका सदुपयोग वह दक्षिण अफ्रीका में ‘इंडियन ओपीनियन’ के जरिए कर चुके थे. वह जानते थे कि उन्हें अपनी बात जनमानस के बीच कैसे पहुंचानी है. इस बात को स्वीकार करते हुए उन्होंने 2 जुलाई 1925 को ‘यंग इंडिया’ में लिखा था, ‘पत्रकारिता में मेरा क्षेत्र मात्र यहां तक सीमित है कि मैंने पत्रकारिता का व्यवसाय अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में एक सहायक के रूप में चुना है.’

गांधी तकरीबन आधा दर्जन समाचार पत्रों के संपादन और प्रकाशन से जुड़े रहे. उनका प्रयास रहता था कि उनकी लिखी और बोली बातों को देश के अन्य समाचार पत्र भी महत्व दें. इसके लिए वह जिस भी शहर की यात्रा करते वहां के पत्रों के संपादकों से अवश्य मिलते. उन्हें विरोधी पक्ष वाले संपादकों से भी मिलने में गुरेज नहीं था. एक घटना प्रयाग से प्रकाशित ‘पायोनियर’ से जुड़ी है.

जुलाई 1896 में गांधी कलकत्ता-बम्बई मेल से राजकोट के लिए जा रहे थे. पांच जुलाई को लगभग 11 बजे दिन में ट्रेन इलाहाबाद पहुंची, जहां उसका 45 मिनट का स्टॉपेज होता था. गांधी इस समय का सदुपयोग करना चाहते थे. इतने समय में इलाहाबाद की एक झलक लेने के साथ ही उन्हें दवा लेनी थी. दवा लेने में देर लग गई और जब गांधी स्टेशन पहुंचे तो गाड़ी चलती दिखाई दी. स्टेशन मास्टर भला था सो उसने गांधीजी का सामान उतरवा दिया था. इस परिस्थिति में गांधी को अब दूसरे दिन ही जाना था. एक दिन का उपयोग कैसे हो, इसके लिए गांधी ने अंग्रेज सरकार के हिमायती पत्र ‘पायोनियर’ के संपादक से मिलने की सोची.

गांधी लिखते हैं, ‘यहां के पायोनियर पत्र की ख्याति मैंने सुनी थी. भारत की आकांक्षाओं का वह विरोधी है, यह मैं जानता था. मुझे याद पड़ता है कि उस समय मिस्टर चेजनी उसके संपादक थे. मैं तो सब पक्षों के आदमियों से मिलकर सहायता प्राप्त करना चाहता था. इसलिए मैंने मि. चेजनी को मुलाकात के लिए पत्र लिखा। चेजनी ने बुला लिया. उन्होंने गौर से मेरी बातें सुनीं. मुझे आश्वासन दिया कि आप जो कुछ लिखेंगे, मैं उस पर तुरन्त टिप्पणी करूंगा. परन्तु मैं आपको यह वचन नहीं दे सकता कि आपकी सब बातों को मैं स्वीकार कर सकूंगा.’

गांधी पत्रकारिता में बाहरी धन लगाने को खतरनाक मानते थे. इसीलिए वह अपने पत्र ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ में विज्ञापन नहीं छापते थे. अपनी इस नीति के बारे में उनका मानना था कि विज्ञापन न छापने से उन्हें अथवा उनके पत्रों को किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ बल्कि ऐसा करने से पत्रों के विचार स्वातंत्र्य की रक्षा करने में मदद मिली. वह पत्रकारिता को दो रूपों में विभाजित करते थे-एक व्यवसायिक पत्रकारिता और दूसरा लोकसेवी पत्रकारिता.

वह मानते थे कि पत्रकारिता को व्यवसाय बनाने से वह दूषित हो जाती है और लोकसेवा के लक्ष्य से भटक जाती है. इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि उस समय की पत्रकारिता में कमियां नहीं थीं. लेकिन गांधी पत्रों की शक्ति सकारात्मक और नकारात्मक दोनों सन्दर्भों में पहचानते थे. इसी बात को केन्द्र में रखकर आत्मकथा में लिखा, ‘समाचार पत्र एक जबरदस्त शक्ति है, किन्तु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है. यदि अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी अधिक विषैला सिद्ध होता है.’

वैसे पत्रकारिता में जब-जब कलम निरंकुश होती है तो उसकी भरपाई देश और समाज को करनी पड़ती है. राष्ट्रीय आंदोलन के दरम्यान जहां पत्रकारिता के एक हिस्से पर ही सवाल उठे थे वहीं आजादी के बाद खासकर सत्तर के दशक के बाद उसमें खासी गिरावट देखने को मिली. आपातकाल एक ऐसी घटना है, जहां पत्रकारिता दो खेमों में बंटी नजर आई. एक पक्ष उसके समर्थन में खड़ा नजर आया तो दूसरा विरोध में. बहुत कम लोगों ने संतुलित होकर बात की. इस घटना से पता चला कि आधुनिक कही जाने वाली भारतीय पत्रकारिता ने स्वतन्त्रता आंदोलन की पत्रकारिता की विरासत से स्वयं को अलग कर लिया है. सत्ताधारियों और पत्र मालिकों को अहसास हो गया कि पत्रकारों का इस्तेमाल किया जा सकता है. फिर क्या था-संपादकीय आचार-विचार का दोहन शुरू हो गया. प्रबंधन और विज्ञापन संस्था का प्रभुत्व बढ़ने लगा तो संपादकीय का प्रभुत्व कमजोर होने लगा.

जनता पार्टी सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अभियान चलाकर पत्रकारिता में एक खास विचारधारा के लोगों को नियुक्त कराया, जिसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे पत्रों में उस खास विचारधारा के लोगों की बहुतायत हो गई. यही वजह है कि जब मंडल के बाद कमंडल का दौर आया तो पत्रकारिता खासकर हिंदी पत्रकारिता में उक्त विचारधारा वालों ने पत्रकार कम बल्कि विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और संघ के कार्यकर्ता वाली भूमिका ज्यादा निभाई. दूसरी ओर उर्दू पत्रकारिता में पत्रकारों ने पत्रकार कम बल्कि मुस्लिम लीग से जुड़े होने का परिचय अधिक दिया. उन्होंने गांधी की उन पंक्तियों को भी याद नहीं रखा, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘अपनी निष्ठा के प्रति ईमानदारी बरतते हुए मैं दुर्भावना या क्रोध में कुछ भी नहीं लिख सकता. मैं निरर्थक नहीं लिख सकता. मैं केवल भावनाओं को भड़काने के लिए भी नहीं लिख सकता. लिखने के लिए विषयों तथा शब्दावली को चुनने में मैं हफ्तों तक जो संयम बरतता हूं, पाठक उसकी कल्पना नहीं कर सकता.’

कमंडल के दौरान ही लागू की जाने वाली भूमंडलीकरण की नीतियों ने देखते ही देखते पत्रकारिता का परिदृश्य बदल दिया. समाचार पत्रों के राज्य संस्करण जिलेवार संस्करणों में तब्दील हो गए, जिन्हें भरने के लिए कुछ भी प्रकाशित किया जाने लगा. गंभीर बातों को नजरअंदाज कर हल्की-फुल्की बात करने वालों को महत्व दिया जाने लगा. दूसरे प्रेस आयोग ने कहा था कि भारतीय भाषाओं, स्थानीय तथा अन्य छोटे और मध्यम समाचार पत्रों के विकास में योगदान देना जरूरी है. ऐसा होने से पत्रकारिता में विविधता बनी रहेगी. मोनोपॉली का खतरा नहीं होगा, लेकिन आयोग की सिफारिश पर ध्यान नहीं दिया गया.

आज करीब 40 साल बाद आयोग की आशंका पूरी तरह सच साबित हो रही है. पत्रकारिता में कुछ कॉरपोरेट घरानों का एकाधिकार हो गया है. देश के प्रिंट मीडिया पर नौ बड़े मीडिया घरानों का प्रभुत्व हो चुका है. यही स्थिति इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भी है. वे एक तरह के मीडिया एकाधिकार के तहत काम कर रहे हैं.

इक्कीसवीं सदी में पत्रकारिता और लोकतंत्र को चोट पहुंचाने वाली अनेक घटनाएं घटी हैं. सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाली पेड न्यूज की कुप्रवृत्ति का सामने आना है. पेड न्यूज मतलब पैसा देकर प्रकाशित/प्रसारित कराई जाने वाली प्रचार सामग्री, जिसमें पाठक और दर्शक को यह तक न बताया जाए कि उक्त सामग्री खबर नहीं विज्ञापन है. पेड न्यूज की शिकायतें पहले से थीं, लेकिन 2009 के आम चुनाव में यह भयावह रूप में सामने आईं.

शुरुआती दौर में लगा था कि इक्के-दुक्के समाचार पत्र ही इसकी गिरफ्त में हैं. मगर धीरे-धीरे पेड न्यूज की शिकायतें आम हो गईं. उसने एक ओढ़ी जाने वाली बीमारी की तरह अधिकांश पत्रों और न्यूज चैनलों को घेर लिया. कुछ पत्रकारों/संपादकों ने इसके खिलाफ अभियान चलाया. प्रेस परिषद से लेकर संसद की स्थायी समिति तक ने इसका अध्ययन किया. सभी ने पेड न्यूज को भारतीय लोकतंत्र और पत्रकारिता के लिए खतरनाक माना. परिषद की जांच रिपोर्ट पर यूपीए सरकार ने मंत्री समूह गठित किया. समूह ने उस पर विचार किया. इसके बावजूद उसकी सिफारिशों को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका.

असल में पत्रकारिता को लेकर जितने भी नियम-कानून बने, उनको मीडिया घराने ठेंगा दिखाते रहे हैं. ऐसे में इन घरानों पर अब कानून लागू करने की जरूरत है. इसके लिए एक नियामक अधिकरण (नियामक की बात करते हुए हम मीडिया पर सरकारी हस्तक्षेप की वकालत नहीं कर रहे) बने, जिसमें प्रिन्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रमुख लोग रखे जाएं. उन्हें विषय वस्तु की जांच करने, चेतावनी देने फिर कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाए. प्रेस परिषद की शक्तियों में इजाफा किया जाए. समिति ने परिषद की सिफारिशों पर फैसला न लेने के लिए सरकार के प्रति नाराजगी जताई थी. परिषद का पुनरुद्धार करने पर बल देते हुए मीडिया की आय के स्रोत को सूचना का अधिकार के अधीन एवं लोकपाल विधेयक के दायरे में लाने की बात कही थी.

समिति की सिफारिशों का भी वही हाल हुआ जैसा पहले प्रेस संबंधी बनी समितियों, आयोगों और वेज बोर्डों की सिफारिशों का हुआ था. लिहाजा समिति ने जो आशंका व्यक्त की थी उसका परिणाम 2014 के चुनाव में देखने को मिला. पूरा चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तरह लड़ा गया. पैसा भी उसी तरह से लगाया गया. उस चुनाव से दो साल पहले अमेरिका में हुए चुनाव पर 42,000 हजार करोड़ रुपये लगे थे, वहीं भारत के चुनाव पर अनुमानतः 31,950 करोड़ रुपये खर्चे गए, जिसमें अकेले बीजेपी ने ही 21,300 करोड़ रुपये खर्चे. शेष राशि सभी दलों ने मिलकर खर्च की. करीब 3,350 करोड़ रुपये प्रिन्ट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया पर न्योछावर किए गए. एक तरह से कॉरपोरेट व पीआर ने मिलकर चुनाव को कैप्चर कर लिया. भारतीय राजनीति में यह नया फेनोमिना था, जिसमें सब कुछ कॉरपोरेट और पीआर ने तय किया. यह फेनोमिना जहां भारतीय पत्रकारिता की कब्र खोदने का काम कर रहा है वहीं लोकतंत्र को तहस-नहस कर रहा है.

नरेन्द्र मोदी सरकार के शुरुआती महीनों में भारतीय दूरसंचार नियामक आयोग (ट्राई) की मीडिया स्वामित्व व उससे जुड़े मसलों पर रिपोर्ट आई थी. आयोग ने खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में स्वतंत्रता और बहुलता सुनिश्चित करने के लिए समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में प्रवेश करने वाले राजनीतिक दलों और कारपोरेट घरानों पर पाबंदी लगाने सहित अनेक महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं. साथ ही प्रिंट और टीवी मीडिया के लिए एक ही स्वतंत्र नियामक बनाने की बात कही थी, लेकिन जैसी आशंका थी, मोदी सरकार ने ठीक वैसा ही किया. सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. उसके पास दूसरा विकल्प भी नहीं था, क्योंकि जिन लोगों ने सामूहिक रूप से मोदी को यहां तक पहुंचाने में अहम किरदार निभाया हो उन पर मोदी सरकार शिकंजा कसेगी, यह उम्मीद करना बेमानी था.

गांधी ने भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन को दिशा देने का काम किया. जीवन के अंतिम समय तक राजनीतिक और सामाजिक काम किए. इसके बावजूद उन्होंने अपनी पत्रकारिता को कभी किसी व्यक्ति विशेष अथवा संगठन का मोहरा नहीं बनाया. वह अपने लिखे एक-एक शब्द पर मनन करते थे. उसके सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम के बारे में सोचते थे. सच की कसौटी पर खरा उतरने वाली भाषा का इस्तेमाल करते थे. साथ ही पाठकों को यह अधिकार देते थे कि वे समाचार पत्र पर नजर रखें कि कहीं कोई अनुचित और झूठी खबर तो नहीं छपी है. अविवेकपूर्ण भाषा का इस्तेमाल तो नहीं हुआ है.

उन्होंने यहां तक लिखा है, ‘संपादक पर पाठकों का चाबुक रहना ही चाहिए, जिसका उपयोग संपादक के बिगड़ने पर हो.’ ऐसा लिखते हुए गांधी एक तरह से पत्रकारिता को चोट पहुंचाने वालों को शक की नजर से देखने की वकालत करते थे. शक करने वाली उनकी सीख का मायने आज कहीं अधिक है. आज पत्रकारिता में जिस तरह से खबरों के प्रकाशन/प्रसारण में पक्षपात किया जा रहा है उसे देखते हुए पाठकों/दर्शकों को हर खबर को शक की नजर से देखना होगा. पत्रकारिता ने तथ्यों को क्रॉस चेक करने वाला सिद्धांत लगभग बिसरा दिया है, लेकिन लोगों को ये जिम्मेदारी उठानी होगी. अगर ऐसा कर लेंगे तो वही महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के वर्ष में उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)


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