गांधी, गीता और अहिंसा
यह एक विदित तथ्य है कि गांधीजी ने भगवद्गीता में अहिंसा को प्रतिष्ठायित होते हुए देखा था. उनके पाठ में अहिंसा इस ग्रन्थ के मूल में रचा-बसा हुआ सिद्धांत है और बिना इसे समझे गीता को नहीं समझा जा सकता. गांधी इस ग्रन्थ में श्रीकृष्ण को अहिंसा की अनिवार्यता पर विमर्श करता हुआ देखते हैं. वे मानते हैं कि इसके सन्दर्भ में किसी भी अपवाद की सम्भावना स्वीकार नहीं की जा सकती.
श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को दी गयी सबसे महत्वपूर्ण सीख, गांधी जी की नज़र में, अहिंसा की तात्विक महत्ता है और इसकी अनदेखी करने पर गीता को सही ढंग से ग्रहण कर सकना संभव नहीं. लेकिन साथ ही यह भी विदित है कि स्वयं गांधीजी ने कुछ अवसरों पर हिंसा की अपरिहार्यता, (जैसे आत्म-रक्षा के सवाल पर) स्वीकार की है.
वे यह भी मानते रहे की बहादुर की हिंसा, कायर की अहिंसा से कहीं बेहतर है. यह भी विदित है कि गांधी जी ने इस प्रश्न पर भी समय-समय पर विचार किया कि किन-किन परिस्थितियों में हत्या तक अहिंसक हो सकती है.
अब अगर एक ओर अहिंसा को अस्तित्व के निरपवाद नियम की तरह रखें और दूसरी ओर इस संसार में हिंसा की ज़रुरत को भी मान लें तो क्या एक गंभीर अंतर्विरोध नहीं पैदा होता?
यह भी कि ऊपरी तौर पर तो गीता हिंसा का समर्थन करती दिखती है, तो ऐसे में गांधी का उसमें अहिंसा देखना कहां तक सही है? फिर गांधी से बेहतर तो उनके समकालीन हैं जो कम से कम जायज़ हिंसा को ना केवल यथार्थ बल्कि नैतिक रूप से सही भी मानते हैं और श्रीकृष्ण के प्रवचनों में अहिंसा का सन्देश नहीं युद्ध के लिए ललकार सुनते हैं.
साथ ही यह भी लग सकता है की अहिंसा केवल सन्यासियों के लिए ही हो सकती है, व्यापक जगत में तो इसके लिए कोई जगह नहीं या इसे हिंसा के साथ समझौता करके ही रहना होगा.
गांधीजी के चिंतन और दर्शन को अव्यवहारिक और बेकाज करार देने के पीछे भी अक्सर हम अहिंसा के महज़ एक आदर्श होने के बात सुनते हैं. प्रश्न यह उठता है की क्या इस तरह से सोचना सही है या फिर यह अहिंसा के स्वभाव और बर्ताव को समझने में हुई चूक का नतीजा है?
गांधीजी के प्रपौत्र और मौलिक दार्शनिक रामचंद्र गांधी इस ओर हमारा ध्यान खींचते हैं कि कहीं अहिंसा को केवल ‘नॉन-वॉयलेंस’ (Non-violence) के रूप में देखना ही तो उपरोक्त धारणाओं का स्रोत नहीं?
यह सभी को ज्ञात है की स्वयं गांधीजी ने अहिंसा के लिए अंग्रेज़ी के ‘नॉन-वॉयलेंस’ पद का उपयोग किया था. पर क्या यह अनुवाद अहिंसा शब्द के सभी अर्थों और खुद गांधीजी की उसकी समझ को अभिव्यक्त कर सकने में सक्षम है?
रामचंद्र गांधी स्पष्ट रूप से असहमत होते हैं. उनका मानना है की शाब्दिक और तात्विक दोनों ही तरह से अहिंसा को ‘नॉन-वॉयलेंस’ नहीं, ‘नॉन-इंजरी’ समझना उचित रहेगा. उनके अनुसार स्वयं गांधीजी की समझ में और गीता की निष्पत्ति में भी अहिंसा का यही अर्थ है. पर कहीं ये महज़ शब्दों का खेल तो नहीं? नहीं, आइए देखते हैं कैसे.
अगर गांधीजी के अर्थ के नज़दीक जाने की कोशिश करें तो अहिंसा के व्रत-पालन का मतलब यह हुआ कि किसी भी सूरत में आपके आचरण या व्यवहार से किसी को कोई क्षति अथवा चोट नहीं पहुंचनी चाहिए. यहां क्षति अथवा चोट का अर्थ केवल मानसिक या शारीरिक सन्दर्भ में नहीं है.
असल क्षति तो वह है जो किसी के आत्मिक विकास को अवरुद्ध कर दे. गीता के अनुसार, किसी व्यक्ति का वर्तमान जीवन या जन्म उसके आत्मिक विकास की यात्रा में एक चरण की तरह होता है. जन्म, पुनर्जन्म के चक्र से होते हुए आत्मा ईश्वर रूप होती जाती है.
गांधीजी गीता की अपनी व्याख्या में यह रेखांकित करते हैं की ईश्वर की ओर उर्ध्व गति आत्मा का सहज स्वभाव होता है. पर जहां एक ओर आत्मा अनित्य एवं अमर है वहीं असुरक्षित और अकेली भी.
ढेरों भुलावे या घटनाएं ऐसी हो सकती हैं जो उसे उर्ध्व पथ से डिगा दें और उसे नीचे खींचने लगें. ऐसे में कर्म से सिंचित उसका ईश्वरोन्मुख मार्ग अवरुद्ध होता है और उसे ईश्वर में लय होने में देर होती है.
आपका कोई भी क़दम जो किसी के आत्मिक विकास में बाधा बने, हिंसा का प्रतीक है और यदि कोई स्वयं ही अपना अनिष्ट करने पर तुला हो एवं अपने आप को ही आत्मिक क्षति पहुंचा रहा हो तो आपके द्वारा ऐसा होने देना, उदासीन बने रहना भी हिंसा का प्रतीक है.
क्या गांधीजी के अंग्रेज़ों से संघर्ष में यह बात दिखाई नहीं देती? गांधीजी जितना अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ रहे थे उतना ही वे उनके लिए भी जूझ रहे थे ताकि उन्हें उनकी ही विनाशकारी सभ्यता से बचाया जा सके. इसलिए इस तरह से देखें तो नाजायज़ हिंसा और नाजायज़ अहिंसा (या नॉन-वॉयलेन्स) दोनों ही गलत हैं.
कृष्ण जब अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहते हैं तो केवल इसलिए नहीं की यदि ऐसा ना किया गया तो कौरव ना जाने कितनों को मौत के घाट उतार देंगे बल्कि इसलिए भी के अपने कृत्यों से वे स्वयं का भी आत्मिक विकास अवरुद्ध कर लेंगे. केवल दुनिया को कौरवों से बचाने के लिए नहीं बल्कि कौरवों को अपने आप से बचाने के लिए भी अर्जुन का युद्ध करना ज़रूरी था, खासकर तब जबकि यह युद्ध खुद चलकर उस तक आया था.
यदि गांधीजी की अहिंसा की समझ, जिसकी ओर प्रो. रामचंद्र गांधी इशारा करते हैं, को मद्देनज़र रखें तो गीता में अहिंसा की स्थापना और युद्ध से मुंह ना चुराने की सीख के बीच कोई तनाव नज़र नहीं आएगा.
बल्कि यह कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि गांधीजी की गीता को सामने रखकर की गई अहिंसा की व्याख्या, अहिंसा को एक खूबसूरत एक्टिविस्ट रूप दे देती है और उसे महज़ हिंसा के नकार मात्र रह जाने से परे ले जाती है.
अगर अहिंसा की इस गहरी समझ को संज्ञान में रखें तो ही इस बात को भी समझ सकते हैं की एक व्यक्ति स्वयं अपने प्रति भी हिंसक हो सकता है. तमाम तरह के समझौते, छलनायें, सफलता-असफलता के दुनियावी मापदंड उसे सामाजिक रूप से तो गतिशील बनाये रखते हैं पर उसकी आत्मा को छलनी कर देते हैं.
ऊपरी तौर पर व्यक्ति का उठना तो दिखाई देता है पर आत्मा का गिरना नहीं. ऐसे में क्या आत्मा के निस्पृह रहने की बात करके, कर्म फल से अलिप्तता के गीता के सन्देश को इस तरह व्याख्यायित किया जा सकता है कि: आदमी जो भी करे, जैसे भी जिए, आत्मा तो निर्लिप्त रहती है? क्या ऐसा हो सकता है की आत्मा अलिप्त रहे और देह तमाम तरह के भोग-व्यसनों में लिप्त रहे?
अद्वैतवाद की यह गहरी द्वैतवादी समझ है जो देह को आत्मा से अलग करके देखती है. गांधीजी के गीता-पाठ में ये बेहद खूबसूरती से उभर कर आता है कि अर्जुन की व्यथा सिर्फ इसको लेकर नहीं है की वह युद्ध करे या ना करे बल्कि इस उलझन से भी जुड़ी है की क्या वह अजर-अमर आत्मन है या फिर एक नश्वर देह भर.
गांधीजी का जीवन इस बात का खरा प्रमाण है की बिना देह की अलिप्तता के आत्मा की अलिप्तता की कल्पना ही नहीं की जा सकती. देह आत्मा को नीचे भी खींच सकती है और ऊपर भी उठा सकती है और ठीक ऐसा ही आत्मा के सन्दर्भ में भी सत्य है. बल्कि कर्म फल त्याग तो सही अर्थों में तभी संभव है जब स्वयं कर्म में वह गुण निहित हो कि फल की आकांक्षा ही ना रह जाए.
ऐसा ही कर्म अहिंसक हो सकता है क्योंकि वह आत्मा पर किसी प्रलोभन की छाया नहीं डालता और नतीजतन उसे कोई क्षति नहीं पहुंचाता, बल्कि उसे दृढ़ और ऊर्ध्वगामी बनाए रखता है. इसी कर्म का नाम है सेवा. सेवा ना केवल अन्य को क्षति से बचाने का नाम है बल्कि स्वयं को मज़बूत और उत्तरदायी बनाने का पर्याय भी. साथ ही सेवा कर्म का वह रूप भी है जिसके सन्दर्भ में कर्म-फल त्याग के सन्देश को एक व्यवहारिक आयाम मिलता है.
इसलिए यदि हम अहिंसा को ‘नॉन-इंजरी’ के रूप में देखते हैं तभी इसके और सेवा के बीच के अनिवार्य सम्बन्ध को देखने की सलाहियत पैदा होती है और नतीजतन हम खुद को गांधीजी के अनोखे गीता-पाठ के केंद्रीय तत्त्व के समीप पहुंचता सा पाते हैं.
इसलिए अपने समकालीनों के बरक्स गांधीजी गीता को गहरी दार्शनिक मनोवृत्ति और अपने राजनीतिक अनुभवों की रौशनी में पढ़ने की कोशिश कर रहे थे.
उनका प्रयास था कि अहिंसा को एक सभ्यता-सिद्धांत के रूप में स्थापित किया जा सके जिसे हिंदुस्तान में रहने वाले सभी धर्म-सम्प्रदाय अपना मान सकें. ताकि अहिंसा महज़ एक फ़ौरी रणनीति होकर ना रह जाए इसलिए इसे एक तात्विक और आत्मीय अर्थ देना ज़रूरी था.
यह गांधीजी के लिए कितना महत्वपूर्ण था, यह इसी से समझ में आता है की उन्होंने बक़ाएदे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन से लम्बा अवकाश लेकर अहिंसा की यह समझ विकसित की. हालांकि उन्हें यह स्पष्ट रूप से पता था कि गीता की रचना अहिंसा की स्थापना के लिए नहीं, कर्मफल त्याग का सन्देश देने के लिए हुई थी. इसके बावजूद वे यह दिखाने में सफल हुए कि ये दो सिद्धांत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाते हैं और गांधी के दर्शन पर अध्ययनरत हैं.