हिंदूवादी संगठनों के निशाने पर क्यों हैं तर्कवादी?


hindu fanatic group against rationalist

 

इन दिनों हिंदूवादी संगठनों और तर्कशील संगठनों के बीच टकराव तीखा हो गया है. सत्ता के सहयोगी माने जाने वाले संगठन हिंदू समाज और देशज ज्ञान को नकारने वाला बताकर तर्कवादियों को देशद्रोही घोषित कर रहे हैं. इस टकराव ने वैचारिक विकृति का माहौल पैदा कर दिया है, जिसमें धर्म, विज्ञान, तर्क का कोई सम्मान दिखाई नहीं दिखाई देता. एक तरफ हिंदूवादी कट्टरपंथी हत्या करने से भी गुरेज नहीं कर रहे, तो वहीं कई तर्कवादी आम लोगों की आस्था पर सीधे चोट करने से बाज नहीं आ रहे.

मशहूर इतिहासकार डीडी कौशांबी की इस बात को सभी नजरंदाज कर देते हैं कि पौराणिक धार्मिक ग्रंथों में प्राचीन समाज की प्रवृत्तियों को समझा जा सकता है. मतलब, अगर रामायण लेखन के समय भले ही विमान का अविष्कार नहीं हुआ, लेकिन उस समय के मानव की इस कल्पना को समझा जा सकता है. हालांकि हिंदूवादी कट्टरवाद को इससे भी परेशानी है.

अंधविश्वास का तर्कवाद से टकराव

धार्मिक आयोजन करके जमीन में गड्ढा खोदवाकर कई दिन तक बंद रहने के खेल को काफी लोगों ने देखा होगा. अंदर रहने वाला जब बाहर आता है तो इस कारनामे को तपस्या और श्रद्धा के आडंबर में पिरोकर दान लेता है.

इस बात का खुलासा हरियाणा की तर्कशील सोसायटी ने कुछ वर्ष पहले किया और बताया कि किस आकार के गड्ढे में कितनी ऑक्सीजन होती है और कितना समय रुका जा सकता है. इस कारनामे को तर्कशील टीम ने करके भी दिखाया और एक ढोंगी बाबा का पर्दाफाश किया. इसी तरह अंगारों पर चलना और गर्म सलाखों को हाथों से बुझाना आदि रोमांचक खेल दिखाकर उनके वैज्ञानिक तरीके जगह-जगह बताते रहते हैं.

भूतों का शिकार, और देव पुरुष हार गए, ज्योतिष झूठ बोलता है जैसी पुस्तिकाओं से माध्यम से लोगों तक तर्कशील बनाने का प्रयास करते हैं. तर्कशील सोसायटी ने 1963 में मशहूर तर्कवादी डॉक्टर अब्राहम टी कोवूर के 22 इनामी चैलेंज जारी रखा है, जिनमें से एक भी कारनामा दिखाने वाले बाबा, संत, महात्मा, जादूगर, ज्योतिषी कर दे तो नकद एक लाख रुपये दिया जाएगा. इस चैलेंज को किसी ने अब तक नहीं स्वीकारा. जब इन बातों को वैज्ञानिक तरीके से झूठा साबित किया जाता है तो व्यवसाय करने वाले परेशान हो उठते हैं. वे इसे धर्म पर हमले की संज्ञा देकर ऐसी ताकतों को उकसाते हैं जो धर्म की राजनीति करती हैं.

दरअसल, तर्कशीलता से जुड़े कई पक्ष भी हैं. एक वो जो सिर्फ सवालों के तौर पर तर्क करते हैं, दूसरे वे जो सलीके से विज्ञान के जरिए सदियों के अंधविश्वास को गलत साबित करते हैं, तीसरे वे जो अतिवामपंथी विचारों के चलते मजाकिया अंदाज में उपहास उड़ाते हैं. चौथे, दलित आंदोलन ने भी हिंदुत्व की बरसों पुरानी अवधारणाओं को अपने नजरिए से नकार दिया है.

जाति व्यवस्था से आहत ये समुदाय हिंदू अवधारणाओं पर तीखा प्रहार करता है. राजनीतिक तौर पर विचारधाराओं की जंग ज्यादा तीखी रहती है, लिहाजा वोट की अहमियत के चलते समाज में भी इसका प्रभाव दिखाई देता है. ऐसे में सभी तर्कवादी एक ही पलड़े में तुल जाते हैं, जिन्हें आमतौर पर कम्युनिस्ट या वामपंथी मानकर वैचारिक दुश्मन घोषित करना आसान होता है. इसको इस मिसाल से समझा जा सकता है, जैसे हिंदू देवता शिव की आराधना.

आस्था-श्रद्धा के अलावा राजनीतिक कारोबार करने वालों के लिए इस दैवीय व्यक्तित्व को स्थापित करने का प्रयास देखा जा सकता है. जब ये बात सार्वजनिक मंच पर कही जाती है कि भगवान शिव ने गणेश के हाथी का सिर लगा दिया और ये प्राचीन सर्जरी थी. तब, तर्कवादी इसको गलत ठहराते हैं और वे सर्जरी के विकास का इतिहास बताने की कोशिश करते हैं.

विज्ञान के तौर पर इस बात को गलत साबित करना कोई मुश्किल नहीं, वहीं विज्ञान शिक्षक और बहुत से वैज्ञानिक भी शिव आराधना में लगे होते हैं. शिक्षितों की बड़ी संख्या ऐसी है जो किताबों का ज्ञान करियर के लिए हासिल करते हैं और दैनिक जीवन परंपरागत ढर्रे पर जीते हैं. शिव के व्यक्तित्व को चिढ़ाने वाले अंदाज में अतिवामपंथी उपहास उड़ाने के तरीके से पेश करते हैं जिससे पहले हिंसक वैचारिक तकरार और फिर आगे कुछ भी अप्रिय संभावना जन्म ले लेती है.

इसी बात को इतिहास अध्ययन के नजरिए से समझा जाए तो शिव का व्यक्तित्व आदि पूर्वज मानव जैसा है, सादगी भरा जीवन, जंगल निवासी, सांप-बिच्छू से हर वक्त साथ, मामूली सा हथियार और सवारी. बेशक! पात्रों को अपनी तरह से बाद में गढ़ा गया होगा, पौराणिक कहानियां भी रची गई होंगी. उन कहानियों के आधार की शुरुआती कल्पना इस तरह हो सकती है, जैसे इंसान ने जब ये जाना कि खून बह जाने से इंसान की मौत हो जाती है तो पहले उसने यही कोशिश की होगी कि खून उसके अंदर किसी भी तरह भर दिया जाए. गर्दन कट गई तो गर्दन जोडने का प्रयास किया ही होगा. असली गर्दन नहीं बची तो कोई भी गर्दन जोडने की कोशिश भी हो सकती है.

ज्ञान के विकास का क्रम कुछ इसी तरह होता है और तथ्य जुडने के साथ वो विज्ञान बन जाता है. यानी पुराने ज्ञान से नए ज्ञान को लगातार तराशना, जिसमें सदियां लगती हैं. इन बातों को अवैज्ञानिक तरीके से राजनीतिक आधार बनाने से बखेड़ा होता है, जिसका खामियाजा पूरा समाज भुगतता है.

सही बात तो ये है, जिस काम को तर्कवादी करने की कोशिश कर रहे हैं, वह वैज्ञानिक शिक्षा को दैनिक अभ्यास से समझाकर भी किया जा सकता है. इस काम का दायित्व सरकार पर है और ये संवैधानिक भी है. आपातकाल के बाद अनुच्छेद 51ए को 1976 में 42वें संशोधन के तहत भारतीय संविधान में जोड़ा गया था. इसने एक नागरिक के कर्तव्यों को विस्तृत करने की एक नई अवधारणा को सूचीबद्ध किया.

खासतौर पर, अनुच्छेद 51ए (एच) प्रत्येक भारतीय नागरिक पर वैज्ञानिक स्वभाव और मानवतावाद की भावना विकसित करने की बात करता है. अनुच्छेद में निहित कर्तव्य कहता है कि हर नागरिक समाज के प्रति अपने दृष्टिकोण में तर्कसंगत होने के लिए बाध्य है. फिर भी आज तक किसी भी राज्य या केंद्र सरकार ने उन शब्दों को व्यवहार में लाने के लिए गंभीरता नहीं दिखाई. विज्ञान क्लबों के जरिए खानापूरी होती है. नेशनल साइंस कांग्रेस का हश्र सभी देख रहे हैं. उल्टा मीडिया में धनवर्षा यंत्र, वशीकरण के दावों का विज्ञापन कर अंधविश्वास को बढ़ावा देने में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं. विज्ञापन ही क्या, धर्म-कर्म की खबरों के माध्यम लोगों के जेहन में गहराई से बातों को बैठाया जाता है. ऐसे कार्यक्रमों की स्पेशल कवरेज की व्यवस्था होती है.

ये सच है कि विज्ञान प्रकृति के सैकड़ों अबूझ रहस्यों को खोल चुका है और समाज की उन्नति का पैमाना है. लेकिन ये भी सच है कि मानव प्रकृति की छाती पर चढ़कर राज नहीं कर सकता, क्योंकि वो खुद उसका एक अंग मात्र है. आस्था और तर्क के बीच लड़ाई नई नहीं है. ये संघर्ष न होता तो मानव समाज और सभ्यता का विकास ही ठहर जाता. गार्गी याज्ञवल्क्य से उलझकर सृष्टि निर्माण पर सवाल खड़ा करेंगी, ऐसा प्राचीन दौर में किसी ने कल्पना नहीं की होगी.

मार्टिन लूथर की बात सब समझ गए कि ईश्वर और उसके भक्त के बीच पाप के नाम पर कमाई खाने वाला एक वर्ग झूठा है. गैलीलियो को सलाखों को पीछे धकेलने वालों, ब्रूनो को खूंटे से बांधकर भून देने वालों ने इसका अंदाजा भी नहीं लगाया होगा कि कुछ ही दशक बाद आम लोग ये जान जाएंगे कि सूर्य पृथ्वी की नहीं बल्कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है. बाइबिल का अनुवाद दूसरी भाषाओं में होना और सब तक पहुंच बनाने के लिए छापेखाने का अविष्कार इसकी सीढ़ी बनी. ये सब तर्क और विज्ञान के विकास के साथ हुआ.

तमाम रहस्यों के बेपर्दा हो जाने के बाद भी परंपराओं के बदलने की धीमी चाल समाज के अंधविश्वास को बनाए हुए हैं. जैसे, ये उदाहरण- चांद की पूजा भी होती है और ये बात प्राथमिक कक्षाओं में ही स्पष्ट हो जाती है कि चांद पृथ्वी का हिस्सा है, उसका कुदरती उपग्रह है. भारत चंद्रयान भेज चुका है और हाल ही में चीन ने चंद्रमा के दूसरे ध्रुव पर उपग्रह भेजा. इन सबके बाद भी करवाचौथ की पूजा हो ही रही है, बल्कि बाजार ने उसको और ज्यादा रंगरोगन में लपेटकर कुंवारी लड़कियों और गैर हिंदू समुदाय में क्रेज पैदा कर दिया है.

कुप्रथाओं को निभाने में सहयोगी रही सत्ताएं

नानक, कबीर, रैदास, ज्योतिबा फूले, राजा राममोहन राय आदि की शिक्षाओं और दखल से कुछ परंपराएं-कुप्रथाएं टूटीं. हालांकि समाज के पिछड़ेपन का फायदा ब्रितानी शासकों ने देसी भूस्वामियों और उभरते व्यापारियों के माध्यम से खूब उठाया. देसी शासकों को भी इसी में लाभ था, क्योंकि धर्म और अंधविश्वास के जरिए लोगों को पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम बनाए रखा जा सकता है.

यूरोप में कैथोलिक चर्च को जैसी चुनौती का सामना करना पड़ा, वैसा भारत में होने की नौबत ही नहीं आई. कांग्रेस नेतृत्व वाले आजादी के आंदोलन ने कुछ इसी तरह किया कि परंपराएं भी निभ जाएं और साझा मिशन पूरा हो जाए. मतलब अंग्रेजों से आजादी मिल जाए, बाकी किसी बात से दिक्कत नहीं है. तर्कवादी आंदोलन की राह में देसी समाज का नेतृत्व करने वाला वर्ग ही बाधा बना रहा. हिंदू बहुल देश होने से उन परंपराओं को सरकारी आयोजनों में भी निभाया जाता रहा, जिनकी जड़ में अंधविश्वास है.

मौजूदा सरकार की मंशा भी सवालों के घेरे में

फेडरेशन ऑफ इंडियन रेशनलिस्ट एसोसिएशन (फीरा) के अध्यक्ष और बायोटेक्नॉलॉजिस्ट प्रोफेसर नरेंद्र नायक बताते हैं, “शुरुआती दौर 1973 में, जब तर्कवादियों ने अलौकिक चिकित्सकों, इंजील बैठकों या ढोंगी बाबाओं के खिलाफ बोलना शुरू किया तो हिंदुत्ववादियों ने सोचा कि हम इतने तक ही सीमित रहेंगे. जब हमने ज्योतिष और हिंदुत्व के दूसरे गूढ़ दावों के खिलाफ बोलना शुरू किया, तब उनको एहसास हुआ कि हमारी तर्कसंगत सोच उनकी तर्कहीनता पर भी सवाल उठाएगी. हमारे आंदोलन ने डायन, काले जादू और इसी तरह की अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ कानून बनाने की मांग शुरू की, तो भगवा गिरोह को उकसाया गया, क्योंकि हमने उनके शोषित अनुयायियों को अंधविश्वास और प्रथाओं पर सवाल उठाकर दूर करना शुरू कर दिया”

नायक कहते हैं, “तर्कवादी दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश की हत्या की आरोपी सनातन संस्था और दूसरे हिंदुत्ववादी गिरोह हमसे छुटकारा पाने की साजिश रचते हैं. ऐसे हिंदुत्ववादी संगठनों को कहीं न कहीं ये विश्वास है कि सरकार उनके साथ है. हो भी क्यों न, जब सरकार के मंत्री, सरकारी संस्थाओं के शीर्ष पदों पर बैठे जिम्मेदार लोग अंधविश्वास को खुले मंच पर बढ़ावा दे रहे हों. शिक्षामंत्री सत्यपाल सिंह, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिल्लव देव, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति जी नागेश्वर राव ही नहीं खुद प्रधानमंत्री मोदी के ही बयान देखिए. अंधविश्वास फैलाने और उसका समर्थन करने वाले संगठन बीजेपी के वैचारिक सहयोगी हैं. ऐसे में हिंदू धर्म की तर्कहीन प्रथाओं पर सवाल हिंदू नामों वाले उठाते हैं तो वे तिलमिला जाते हैं. वे इसे धर्म की तौहीन बताते हैं, साथ ही दावा करते हैं कि तर्कवादियों को मिशनरियों या विदेशी ताकतों द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा है, इस तरह वे हमें व्यवस्थित रूप से समाप्त करना चाहते हैं.”

अंधविश्वास को कुछ कदम पीछे धकेला

दक्षिण भारत के तर्कवादी राजा सुरेश कहते हैं कि कट्टरपंथियों का भ्रम है कि तर्कवादियों को मारकर वे आंदोलन से छुटकारा पा सकते हैं. महाराष्ट्र में तर्कवादी दाभोलकर की हत्या के बाद आंदोलन तेज ही हुआ है.

तर्कवादियों ने ज्योतिष और रामवाण बताए जाने वाले गौमूत्र-लाभों आदि के खिलाफ अभियान चलाकर छद्म विज्ञान को चुनौती दी है. फीरा के महासचिव रहे बलविंदर सिंह बरनाला कहते हैं कि तथाकथित देव-पुरुषों और धार्मिक संस्थानों की अवैध गतिविधियों के खिलाफ हमारे संघर्ष ने पीड़ितों की मदद को कानून का दरवाजा भी खटखटाया है.

‘फीरा’ के पदाधिकारी हरचंद भिंडर कहते हैं कि आंदोलन की मजबूती का नतीजा है कि हम अंधविश्वास के खिलाफ महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन (2013) और कर्नाटक अंधविश्वास विरोधी विधेयक (2017) जैसे कानून बनाने को बाध्य कर सके. अब, केंद्र सरकार से भी इस तरह के कानून की मांग की जा रही है.

तर्कशील सोसायटी, हरियाणा के अध्यक्ष गुरमीत सिंह कहते हैं कि विज्ञान किसी धर्म का शत्रु नहीं, बल्कि अंधविश्वास से उपजी उन परंपराओं को झूठ साबित करता है, जो समाज के विकास में बाधा बनी हुई हैं. जो लोग पौराणिक कहानियों को प्राचीन भारत का ज्ञान बताते हैं, उनके पास अंधश्रद्धा के अलावा कोई तर्क नहीं है. भारत के ज्ञान पर फख्र करने के लिए और भी बहुत कुछ है. पाखंडी हिंदुत्ववादी वैज्ञानिक सीवी रमन, होमी जहांगीर भाभा, एस चंद्रशेखर, सत्येंद्रनाथ बोस, मेघनाद साहा, जगदीश बोस, हरगोबिंद खुराना जैसे दर्जनों लोगों की विश्वविख्यात खोजों और उनके बारे में बताने की जरूरत महसूस नहीं करते. तर्कवादी अच्छी तरह जानते हैं कि परिवर्तन आसान नहीं, सांप्रदायिक ताकतें अधिक हताश हो रही हैं, वे आतंक फैलाएंगे और हम पर हमला करेंगे.

तर्कवादियों के लिए चुनौती

‘फीरा’ का मानना है आंदोलन को दक्षिणी राज्यों, महाराष्ट्र, पंजाब, केरल, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, यूपी, और झारखंड में अच्छी उपस्थिति मिली है, लेकिन जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों से अंधविश्वास विरोधी पहल के बारे में बहुत नहीं सुना. वहीं उत्तर प्रदेश में नास्तिकों की सबसे बड़ी संख्या है, लेकिन तर्कवादियों की आवाज बिल्कुल नहीं सुनी जाती.

यह आंदोलन उत्तर पूर्वी राज्यों में अस्तित्वहीन है. तमिलनाडु राज्य में, ईवी रामासामी पेरियार के आंदोलन ने तर्कवादी आंदोलन को मजबूती दी है. विभिन्न विषयों पर कई प्रगतिशील संगठन, विचारक और बुद्धिजीवी मौजूद हैं, लेकिन संगठित तरीके से तर्कवादी आंदोलन खड़ा करना अभी भी यहां बड़ा लक्ष्य है.


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