गांधीजी की हत्या पर सरोजनी नायडू का वो ऐतिहासिक संबोधन


historical address of sarojini naidu on mahatma gandhi's assassination

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सरोजिनी नायडू ने महात्मा गाँधी को न केवल नजदीक से जाना-समझा और उनके साथ काम किया बल्कि उन मूल्यों को जिया भी जिनके लिए गाँधी जिये और मरे.

ऑल इण्डिया रेडियो पर 1 फरवरी 1948 को प्रसारित उनके इस भाषण का अनुवाद डॉ रमाशंकर सिंह और अखिलेश सिंह ने किया है.

यह अविकल रूप से यहां प्रस्तुत है:

कहानियों में बताया जाता है कि ईसा अपनी मौत के तीन दिन बाद अपने शिष्यों और दुनिया को जवाब देने के लिए फिर उठ खड़े हुए जिससे वे दुनिया को फिर से राह दिखा सकें, अपनी मोहब्बत, सेवा और प्रेरणा दे सकें. और हम सब जो उनके जाने का सोग मना रहे हैं, जिन्होंने उनसे मोहब्बत की, उन्हें व्यक्तिगत रूप से जाना-समझा, और जिनके लिए उनका नाम ही किसी किस्से-कहानी और चमत्कार से कम नहीं था. यद्यपि आज उनकी मौत के तीसरे दिन भी हमारी आँखों मे आँसू भरे हैं, हम दुःख में डूबे हैं, वे अपनी चिता से उठ खड़े हुए हैं और मुझे ऐसा महसूस होता है कि मेरा दुःख छँट गया है एवं आँसू ईशनिंदा बन गए हैं.

आखिर वह कैसे मर सकता है जिसने अपने पूरे जीवन, आचरण और त्याग से, प्रेम, साहस एवं निष्ठा से पूरी दुनिया को सिखाया कि विचार महत्वपूर्ण होते हैं न कि हाड़-माँस का शरीर. विचार में उतनी ताकत है जितनी कि धरती पर मौजूद अभी सेनाओं की भी नहीं है.

वे छोटे कद के और जर्जर इंसान थे. हाथ में एक पाई भी नहीं, और यहाँ तक कि उनके पास काया को ठीक से ढँकने के लिए कायदे के कपड़े भी नही होते थे. वे धरती से उतना ही लेते थे जिस क्षेत्रफल को सुई की नोंक मूँद सके, फिर वे हिंसा, साम्राज्यों और युद्ध के लिए सन्नद्ध संसार भर की सेनाओं के आगे इतने मजबूत कैसे थे?

यह क्यों हुआ यह छोटे से कद का आदमी, यह दुबला-पतला आदमी, किसी बच्चे जैसी काया वाला यह आदमी, संन्यासियों जैसा यह आदमी, अपने चयन के आधार पर भूखों मर जाने की कगार पर जा चुका यह आदमी गरीबों के जीवन से इतना तादाम्य स्थापित कर चुका यह आदमी उन लोगों पर इतना प्रभाव स्थापित कर सका जो उससे मोहब्बत या घृणा करते थे. क्या इतना प्रभाव दुनिया के किसी शहंशाह का कभी था?

ऐसा इसलिए था क्योंकि उन्होंने प्रशंसा नहीं चाही और न ही किसी के कुछ कहने की परवाह की. उन्होंने केवल सही-गलत की ओर जाने वाली राह की परवाह की. उन्होंने केवल उन आदर्शों की परवाह की जिसका उन्होंने उपदेश दिया और आचरण में उतारा. मनुष्य की हिंसा और लालच से उपजे सबके भयानक हादसों के बीच, जब यह इतना बढ़ गया था कि मानों सुखी पत्तियों का अंबार लगा हो, युध्द के मैदान में कुचले फूलों का ढेर लगा हो, तब भी अहिंसा के आदर्शों में उनकी आस्था अविचल रही.

उनका मानना था कि पूरी दुनिया खुद ही मर-कट जाए और उसका लहू बह जाए तो भी उनका विश्वास था दुनिया मे एक नयी सभ्यता की आधारशिला अहिंसा ही रखेगी और वे यह भी मानते थे कि जो अपने जीवन से चिपका रहेगा, वह इसे खो देगा और जो इसका मोह त्याग देगा वह इसे सही अर्थों में हासिल करेगा.

हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए उनका पहला उपवास 1924 में हुआ. इस उपवास से मैं भी जुड़ी थी. इसे पूरे देश की सहानुभूति प्राप्त हुई थी. उनका अंतिम उपवास भी हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए था लेकिन इस बार उनके साथ पूरा देश नहीं था. पूरा देश इतना विभाजित हो चुका था, इतनी कटुता थी, इतनी घृणा और अविश्वास था, इस देश के विभिन्न पंथों में इतना नक़लीपन पनप चुका था कि केवल वे लोग जिनका महात्मा पर विश्वास था और इसका आशय समझते थे, वे ही इसमें भागीदार बने.

इतना स्पष्ट हो चुका था कि देश ने अपनी निष्ठा उनके उपवास के नाम पर विभाजित कर दी थी. यह भी स्पष्ट था किसी अन्य समुदाय ने नहीं बल्कि उनके अपने लोगों ने उन्हें हिंसक रूप से खारिज किया और इतने भद्दे तरीके से अपना गुस्सा और आक्रोश प्रकट किया. हिंदुओं के लिए यह शर्म की बात है कि उनमें से सबसे महानतम हिंदू, हमारे युग का एकमात्र हिंदू जो इस धर्म के सिद्धांतों, आदर्शों एवं दर्शन के प्रति इतना अमोघ एवं नैष्ठिक रूप से सच था, उसे ही एक हिंदू के हाथों क़त्ल होना पड़ा.

यह वास्तव में हिंदू आस्था के लिए एक समाधि-लेख की तरह है कि हिंदू अधिकारों के नाम पर सबसे महान हिंदू को ही बलिदान हो जाना पड़ा और इन सबके पीछे एक हिंदू का ही हाथ था. लेकिन यह बहुत मायने नहीं रखता। यह एक ऐसा निजी दुःख है जोकि प्रतिदिन और साल दर साल हमारे हृदय सालेगा क्योंकि हममें से कुछ लोग उनके साथ पिछले 30 वर्षों से इतनी घनिष्ठता से जुड़े रहे हैं कि उनका जीवन और हमारा जीवन एक दूसरे से अविभाज्य हो गया है. हममें से कुछ लोगों की वास्तव में आस्था मर चुकी है: उनकी मृत्यु के कारण हम लोग बिल्कुल छिन्न-भिन्न हो गए हैं, क्योंकि हमारे अस्तित्व के तंतु, हमारी मांसपेशियां, शिरायें, हृदय और रक्त सभी कुछ उनके जीवन के साथ गुँथे हुए थे.

लेकिन, जैसा कि मैंने कहा है, कि अगर हम हताशा की तरफ बढ़ते हैं तो यह आस्थाविहीन भगोड़ों का कार्य होगा. अगर हम वास्तव में यह मान लें कि वे मर चुके हैं, अगर हम यह मान लें कि सब कुछ खो चुका है क्योंकि वे चले गये तो फिर उनके प्रति हमारे प्रेम और आस्था की क्या दशा होगी? अगर हम यह मान लें कि उनका पार्थिव शरीर अब हमारे बीच नहीं तो अब सब कुछ समाप्त हो चुका है तो उनके प्रति हमारी निष्ठा की दशा होगी? क्या हम उनके वारिस नहीं हैं, उनके आध्यात्मिक वंशज नहीं हैं, और उनके महान आदर्शों के खेवैया और उनके महान कार्यों के उत्तराधिकारी नहीं हैं? जो काम वे अकेले कर रहे थे क्या हमें मिलजुलकर उस काम को लागू नहीं करना है, उसे और अधिक समृद्ध तरीके से आगे नहीं बढ़ाना है? इसीलिए मैं यह कह रही हूँ कि व्यक्तिगत दुःख का समय ख़त्म हो चुका है.

बाल नोचने और छाती पीटने का समय ख़त्म हो चुका है. अभी और इसी वक़्त हमें खड़े होना है और कहना है कि हमें उन चुनौतियों से निपटना है जिन्होंने महात्मा के सम्मुख सर उठाया था. हम उनके जीवित प्रतीक हैं. हम उनके सैनिक हैं. इस युद्ध से घिरे हुए जगत में हम उनके ध्वज वाहक हैं. हमारा ध्वज सत्य है. हमारा कवच अहिंसा है. हमारा खड्ग वह आध्यात्म है जो कि जगत को बिना रक्तपात के विजित करता है. भारत के लोगों को अपने आँसू पोंछना है और उठ खड़े होना है, उन्हें उठना है और अपने मन को शांत करना है, उम्मीद व आनन्द से भर जाना है. हमें उनसे यही चीज उधार लेनी है, और उधार क्यों, उन्होंने इसे खुद ही हमें सौंपा है- अपने व्यक्तित्व की चमक, अपने साहस की कीर्ति और अपने चरित्र का शानदार आख्यान.

क्या हमें अपने रहबर के पदचिन्हों पर नहीं चलना है? क्या हमें अपने पिता के आदेशों को नहीं मानना है? क्या हम उनके युद्ध को विजय की तरफ ले जाने वाले वे सिपाही नहीं बनेंगे? क्या हम संसार को महात्मा गांधी के पूर्ण संदेश नहीं देंगे? यद्यपि अब उनकी आवाज हमारे बीच फिर कभी नहीं होगी, लेकिन क्या हम दुनिया के लिए उनके संदेशों को धारण करने वाले लाखों-करोड़ों संदेश वाहक की तरह नहीं हैं? न सिर्फ अपने समकालीन जगत के लिए बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए भी. क्या उनका बलिदान व्यर्थ जाएगा? क्या उनका रक्त विलाप के इस निरर्थक उद्देश्य के लिए बहा है? या, क्या हम उनके रक्त से अपने माथे पर तिलक नहीं करेंगे और उसे जगत को बचाने के लिए उनके शांतिप्रेमी सिपाहियों के दल का प्रतीक नहीं बनायेंगे? अभी और इसी वक़्त, मैं अकेले ही खुद से और मुझे सुनने वाले इस जगत के समक्ष अमर महात्मा की सेवा में तत्पर होने का वचन लेती हूँ, क्योंकि इसी वचन का पिछले 30 सालों से मैं पालन करती आई हूँ.

मृत्यु क्या है? मेरे अपने पिता की जब मृत्यु निकट थी तो उन्होंने मृत्यु के किसी पूर्वाभास के चलते कहा, “कोई जन्म नहीं होता, कोई मृत्यु नहीं होती. केवल एक आत्मा होती है जोकि महत्तर सत्य की तलाश करती रहती है.” महात्मा गांधी इस जगत में सत्य के लिए ही जिये, और अब चाहे किसी हत्यारे के ही हाथों, वे सत्य की तलाश के अगले चरण में पहुँच चुके हैं. क्या हम उनका स्थान नहीं लेंगे? क्या हमारी संयुक्त ताकत, जगत को दिए गए उनके संदेश का पालन करने व उसका प्रसार करने के लिए पर्याप्त नहीं है? मैं खुद को महात्मा का सबसे तुच्छ सिपाही मानती हूँ, लेकिन मैं जानती हूँ कि मेरे साथ जवाहरलाल नेहरू जैसे उनके प्रियतम शिष्य हैं, वल्लभभाई पटेल जैसे उनके विश्वसनीय मित्र व अनुचर हैं, राजेन्द्र बाबू जैसे लोग हैं जोकि गांधी रूपी ईसा के हृदय में रहने वाले संत जॉन की तरह हैं, इनके अलावा अन्य वे संबन्धी हैं जोकि उनको अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए देश के कोने-कोने से आ रहे हैं. क्या हम सभी मिलकर उनके संदेशों का बीड़ा नहीं उठा सकते हैं और उन्हें पूरा नहीं कर सकते हैं?

उनके बहुत से उपवासों/अनशनों में मुझे उनकी सेवा करने, उन्हें सांत्वना देने, उन्हें हँसाने (क्योंकि वे अपने मित्रों के हँसी-मजाक को टॉनिक मानते थे) का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, और इस दौरान मैं बारंबार सोचती रही हूँ, कि यदि उनकी मृत्यु सेवाग्राम में हुई तो! यदि वे नोआखली या फिर किसी सुदूर जगह पर मृत्यु का शिकार हुए तो! तो फिर हम उन तक कैसे पहुँच पाएंगे? इसलिए यह अच्छा और उचित ही हुआ कि उनकी मृत्यु राजाओं के शहर में हुई, प्राचीन हिन्दू साम्राज्यों के स्थल पर हुई, वहाँ हुई जोकि मुगलों की कीर्ति का स्थल रहा है, यह वही जगह है जिसे महात्मा ने विदेशियों के हाथ से छीनकर भारत की राजधानी बनाया, यह सही है कि उनकी मृत्यु दिल्ली में हुई; यह सही है कि उनका अंतिम संस्कार उन मृत राजाओं के बीच होगा जोकि दिल्ली में ही समाधिस्थ हैं, क्योंकि वे सभी राजाओं के अन्यतम राजा हैं.

और यह भी सही है कि वे शांति के महान दूत थे इसलिए अंतिम संस्कार के लिए उनके शव को महान योद्धा के रूप में सम्मान देते हुए ले जाना चाहिए था; यह छोटे कद का आदमी युद्ध के मैदान में सेनाओं का नेतृत्व करने वाले योद्धाओं से कहीं अधिक महान था, सबसे अधिक बहादुर, और उन सबमें सबसे बड़ा विजेता. ऐतिहासिक रूप से दिल्ली सात साम्राज्यों की राजधानी रही है और आज यह उस महानतम क्रांतिकारी के नाम से एक अभयारण्य और केंद्र की तरह है जिसने अपने गुलाम देश को विदेशी दासता से मुक्त कराया और इसे इसका अपना राष्ट्रीय ध्वज दिया. मेरे नायक, मेरे रहनुमा, मेरे पिता की आत्मा शान्तिधाम में निवास करे, साथ ही उनकी राख में जीवनी गति की वह महक हो जैसे चंदन की जली हुई राख, उनकी अस्थियाँ जीवनी शक्ति से इस तरह आवेशित हों और लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बनें कि पूरा भारत उनके बाद की इस घड़ी में आजादी की वास्तविकता में प्राणपूरित हो.

मेरे पिता, शांति से न रहो. हम सबको भी शांति से न रहने दो. हमें हमारी ली हुई शपथ पर कायम रखो.

हमें अपने उत्तराधिकारियों, उत्तरवर्तियों, तुम्हारे सपनों के रहबरों से भारत की नियति से किए गए वादों को निभाने की ताकत दो. तुमने जिसका जीवन इतना शक्तिशाली था, उसने अपनी मौत को भी इतना शक्तिशाली बना दिया, जो मरण से इतनी दूर है. जो उद्देश्य तुम्हें सबसे प्यारा था, उसके लिए तुमने मरण को अपनी उत्कृष्ट शहादत से पीछे छोड़ दिया.


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