हमारे नुमाइंदों को क्यों नहीं दिखती भूख की समस्या?
दुनिया में भूख की समस्या विकराल होती जा रही है. अध्ययन बताते हैं कि किस तरह हर साल पचास लाख बच्चे कुपोषण के कारण मौत के शिकार हो जाते हैं, किस तरह गरीब मुल्कों के दस में से चार बच्चे उसी के चलते कमजोर शरीर और दिमाग के साथ बड़े होते हैं.
वैसे 21वीं सदी में आर्थिक महाशक्ति बनने का इरादा रखने वाला भारत भी इसका कोई अपवाद नहीं है. हर साल जारी होने वाले ग्लोबल हंगर इंडेक्स अर्थात वैश्विक भूख सूचकांक के आंकड़े भारत की बद से बदतर होती स्थिति को ही रेखांकित करते रहे हैं. अगर 2018 में 119 मुल्कों की कतार में वह 103 नंबर पर स्थित था तो 2017 में यही आंकड़ा 97 पर था.
भूख से होने वाली मौतें भी अब अजूबा चीज़ नहीं रही. पिछले साल झारखंड में सिमडेगा जिले के कारीमाटी गांव की 11 वर्षीय संतोषी की हुई मौत के बाद ऐसी मौतों पर लोग और समाज की अधिक निगाह गई है. पता चला कि पूरा परिवार कई दिनों से भूखा था और राशन मिलने के भी कोई आसार नहीं थे क्योंकि राशन कार्ड के साथ आधार लिंक न होने के चलते उनका नाम लिस्ट से हटा दिया गया था. इस मौत के बाद ऐसे तमाम आंकड़ों का दस्तावेजीकरण किया जा चुका है कि कहां कहां किस की मौत हुई.
यह अलग बात है कि देश में भूख से होने वाली मौतों को लेकर केन्द्रीय सरकार इस कदर गाफिल दिखती है कि वह अपने आधिकारिक जवाब में संसद के पटल पर कह सकती है कि ‘किसी राज्य या केन्द्र शासित प्रदेश के प्रशासन ने ऐसी घटनाओं के बारे में उसे सूचित नहीं किया’’ और खुलेआम अपनी तमाम योजनाओं के बखान में जुट सकती है कि किस तरह वह सस्ते दरों पर गरीबों, वंचितों को अनाज पहुंचाने में मुब्तिला है. पिछले दिनों संसद के पटल पर यही हुआ जब ग्राहक मामलों और अन्न और सार्वजनिक वितरण मामलों के केन्द्रीय राज्यमंत्री जनाब सीआर चैधरी से इस बाबत पूछा गया.
जबकि रितिका खेरा और सिराज दत्ता ने ‘राईट टू फुड कैंपेन’ के कार्यकर्ताओं और दूसरे सहयोगियों की मदद से भूख से कथित तौर पर हुई ऐसी 56 मौतों की सूची पहले ही जारी की है जिनमें से 42 मौतें 2017 और 2018 में हुईं. उनका यह भी कहना रहा है कि ‘इन मौतों में से अधिकांश मौतें आधार प्रणाली के चलते हुई हैं क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की गड़बड़ियों, नेटवर्क की समस्याओं आदि के चलते वह अपना अनाज प्राप्त नहीं कर सके थे.’
विडम्बना ही रही है कि भले ही सुप्रीम कोर्ट ने बार बार स्पष्ट किया हो कि राशन कार्ड अगर आधार लिंक न भी हो तो उसे अनाज से वंचित न किया जाए, भले ही सरकारों की तरफ से दावे किए जाते रहते हों कि बायोमेटरिक आईडेंटिफिकेशन के अनिवार्य किए जाने के बावजूद किसी को अनाज से वंचित नहीं किया जा रहा है, लेकिन यही देखने में आ रहा है कि ज़मीनी हक़ीक़त इन दावों से मेल नहीं खाती है.
जुलाई माह में आईआईटी दिल्ली और रांची विश्वविद्यालय के रिसर्चरों की तरफ से इस मामले में किए गए अध्ययन और इसे लेकर प्रस्तुत डॉक्युमेंट्री के माध्यम से यह बात नए सिरे से सामने आयी थी.
इसके मुताबिक जहां झारखंड की आबादी 3.29 करोड़ है वहीं गरीबी और अभाव का आलम यह है कि 2.63 करोड़ लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर है, अलग-अलग प्रभावितों या सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात किए जाने पर यही बात सामने आती है कि अगर बिना तैयारी के साथ और समूची परिस्थिति का आकलन किए कोई कदम उठाया जाए तो वह किस तरह सबसे अधिक वंचितों पर कहर बरपा करता है.
प्रस्तुत डॉक्युमेंट्री के पहले जानेमाने अर्थशास्त्राी जां द्रेज और उनके सहयोगियों द्वारा झारखंड के 32 गांवों के एक हजार परिवारों का किया गया अध्ययन कम विचलित करनेवाला नहीं है, जिसके मुताबिक आधार लिंक न होने, या लिंक होने के बावजूद अंगूठे के न पहचानने के चलते अनाज से वंचित लोगों का अनुमान 20 फ़ीसदी है. निश्चित तौर पर यह सभी ऐसे लोग हैं जिन्हें ऐसे सस्ते अनाज की सबसे सख्त जरूरत है, उसकी उपलब्धता/अनुपलब्धता लोगों के जीवन मरण को निर्धारित करती है.
पिछले दिनों भूख की विकराल होती समस्या को एक अलग कोण से सम्बोधित करने की कोशिश अग्रणी पत्रिका ‘इकॉनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली’ में की गयी थी कि ‘आखिर अधिक अनाज पैदा करने के बावजूद हम भूख की समस्या को मिटा क्यों नहीं पा रहे हैं.’
लेख में बताया गया था कि अगर नीतिगत स्तर पर देखें तो ‘भूख के मुददे से सीधे नहीं सम्बोधित किया जाता बल्कि उसे आर्थिक विकास के बड़े परिप्रेक्ष्य में रखा जाता है और यह उम्मीद की जाती है कि समाज की सम्पदा छन-छन कर नीचे आएगी और भूख की समस्या का समाधान करेगी.’ यह समझ कई ‘‘गलत अवधारणाओं पर टिकी होती है, जिसका ताल्लुक भूख और दूसरी सामाजिक संरचनाओं के अन्तर्सम्बन्ध पर टिका होता है. अधिक से अधिक कह सकते हैं कि यह वह एक अप्रत्यक्ष तरीका है जो भारत के सामने खड़ी भूख की विकराल समस्या को तुरंत सम्बोधित नहीं करता.’’
इसी आलेख में इस प्रश्न पर भी विचार किया गया कि भूख की समस्या से निपटना हो तो “आय वितरण की नीतियों को अमल में लाना होगा, जो सामाजिक न्याय के उददेश्यों को मजबूत करती हों न कि नवउदारवाद के तहत आर्थिक कार्यक्षमता के तर्कों को पुष्ट करती हों.” प्रोफेसर प्रवीण झा और नीलाचला आचार्य को उदध्रत करते हुए कहा गया था ‘‘अधिकतर विकासशील मुल्कों में सबसे बड़े मुद्दों में से एक होता है, सामाजिक सुरक्षा के लिए सार्वजनिक प्रावधान, ताकि भूख और अनाज सुरक्षा को सम्बोधित किया जा सके जो पर्याप्त ‘‘राजकोषीय/फिस्कल’’ या ‘‘व्यय’’ के दायरे से जुड़ा होता है. इस नज़रिये के विपरीत कि ऐसे मुल्क जिनका सकल घरेलू उत्पाद कम है, वह ऐसे दायरे का निर्माण नहीं कर सकते हैं, लेखक द्वय ने इस बात पर जोर दिया था कि आय के निम्न स्तरों पर भी सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है.’’
मालूम हो कि इस सन्दर्भ में भारत अफ़्रीकी मुल्क इथिओपिया से बहुत कुछ सीख सकता है जिसकी प्रति व्यक्ति आय भारत के चौथे हिस्से के बराबर है और जिस मुल्क को बीसवीं सदी में तमाम अकालों का सामना करना पड़ा. आज की तारीख में अन्न असुरक्षा के कई सूचकांक जैसे बच्चों के पोषण दर, इथिओपिया की तुलना में भारत में बदतर हैं. अगर अन्न असुरक्षा से निपटने के दोनों मुल्कों के अनुभवों पर गौर करें तो दिखता है कि इस ‘‘दक्षिण एशियाई पहेली’’ को – जिसके तहत तेज आर्थिक विकास और गरीबी के कम करने के बावजूद अन्न असुरक्षा बेहद अधिक है, समझना हो तो इन दोनों मुल्कों की बच्चों के पोषण और सैनिटेशन की नीतियों पर गौर किया जा सकता है, जो उसके जन्म से उसके 1,000 दिन के होने तक अमल में आती है.
अंत में, प्रश्न उठता है कि भूख की विकराल होती समस्या के बावजूद उसे लेकर यहां हंगामा खड़ा होता क्यों नहीं दिखता? दरअसल यह हक़ीक़त है कि चाहे भूख हो या कुपोषण हो दोनों भारतीय राजनीति के लिए गैर-महत्वपूर्ण विषय हैं. इसे हम सत्ता के अलमबरदारों के तकरीरों में ही नहीं बल्कि संसद में चल रही बहसों या उठ रहे प्रश्नों में भी देख सकते हैं. एक अध्ययन के मुताबिक संसद में उठाए गए सवालों में से महज तीन फ़ीसदी बच्चों से जुड़े थे और जिनमें से पांच फ़ीसदी प्रारंभिक देखभाल और विकास पर केन्द्रित थे जबकि भारत एक ऐसा मुल्क है जहां बच्चों की मृत्यु दर दुनिया में सबसे अधिक है. यही हालात मीडिया में भी है.
आखिर भूख जैसी सेक्युलर समस्या को लेकर मीडिया या प्रबुद्ध जनों के विराट मौन को कैसे समझा जा सकता है. निश्चित ही इसके कई कारण तलाशे जा सकते हैं, मगर इसका सबसे प्रमुख कारण उंची जातियों द्वारा राष्ट्रीय आख्यान पर किया गया कब्जा दिखता है.
भारत के सामने विकराल होती स्वास्थ्य समस्या हो, मगर उसकी अनोखी जाति व्यवस्था की उपस्थिति यह सुनिश्चित करती है कि ऊंची जातियों के लोग इससे अछूते रह जाते हैं.
‘स्क्रेाल’ पर लिखे अपने आलेख में शोएब दानियाल बताते हैं कि ‘भारत के कमजोर और मरणासन्न बच्चों का विशाल बहुमत आदिवासी, दलितों और शूद्र जातियों से ताल्लुक रखता है. इकॉनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित 2011 के एक अध्ययन के मुताबिक, “हिन्दू उंची जातियों के तुलना में कम वजन के दलित बच्चे 53 फीसदी अधिक मिलते हैं तो आदिवासी बच्चे 69 फ़ीसदी अधिक हैं.” फिर इसमें क्या आश्चर्य कि भारत में भूख की समस्या पर इतनी कम चर्चा होती है.
सत्तर के दशक में मशहूर नाटककार गुरूशरण सिंह द्वारा लिखा एक स्ट्रीट प्ले ‘हवाई गोले’ बहुत चर्चित हुआ था, जिसमें लोकतंत्र की विडम्बनाओं को उजागर किया गया था. नाटक में भूखमरी से हुई मौत को छिपाने के लिए सरकारी अफसरों द्वारा किया गया दावा कि उसने ‘सूखे पत्तों का साग खाया था’ आज के दिनों में हक़ीक़त बनता प्रतीत होता है, जब संसद के पटल पर सरकार के नुमाइंदे भूख की समस्या की विकरालता को देखने से भी इंकार करते हैं.
(लेखक वरिष्ठ लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)