झारखंड: सर्जिकल स्ट्राइक नहीं है गांवों का मुद्दा


Jharkhand: surgical strike is not issue in villages

 

झारखंड में चुनावी मुद्दों को लेकर शहरों और गांवों में विभाजन स्पष्ट दिख रहा है. शहरों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने जहां सर्जिकल स्ट्राइक और मोदी फैक्टर को मुद्दा बनाने की कोशिश की है. वहीं दूसरी ओर ग्रामीण इलाकों में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) और झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) जैसे क्षेत्रीय दल विकास के मामले में केंद्र के साथ ही राज्य सरकार की कथित विफलता को मुद्दा बनाने में कामयाब दिख रहे हैं. हालांकि बीजेपी की पूरी कोशिश है कि किसी भी सूरत में स्थानीय मुद्दे चुनाव में न उछलने पाए.

जेएमएम के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और जेवीएम नेता और मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी अच्छी तरह जानते हैं कि सत्तारूढ़ दल की कमजोर नस केंद्र व राज्य सरकार की विकास योजनाएं हैं. दोनों क्षेत्रीय दलों के नेता राज्य की बदहाली, आदिवासियों के साथ अन्याय, सिंचाई सुविधाओं का अभाव, बेरोजगारी आदि को मुद्दा बनाए हुए हैं. शायद ग्रामीण जनता का सरोकार भी इन्हीं मुद्दों से है.

इसलिए उनके बीच राफेल सौदे से लेकर पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक तक पर शायद भी बात होती है. आमतौर पर लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट डाले जाते हैं. लेकिन झारखंड के आदिवासी गांवों में चले जाएं तो फर्क करना मुश्किल होगा कि मतदाता लोकसभा चुनाव की बात कर रहे हैं या विधानसभा चुनाव की.

बीजेपी को पता है कि विकास मुद्दा बना तो कई मामलों में मतदाताओं को जवाब देना मुश्किल होगा. सत्तारूढ दल की इसी कमजोर कड़ी को भांपकर विपक्षी दलों के नेता क्षेत्रीय विकास के मुद्दों को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं. चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले तक बीजेपी के कद्दावर नेता और झारखंड सरकार के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री सरयू राय विपक्षी नेताओं से एक कदम आगे बढकर राज्य सरकार के कामकाज पर सवाल खड़े करते रहे हैं. विकास का मामला हो या भ्रष्टाचार का, उन्होंने राज्य सरकार की पोल-खोल करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. नौबत यहां तक आ गई थी कि वे कहने लगे थे कि जब जनता को जवाब ही नहीं दे पाएंगे तो ऐसी सरकार में बने रहने का क्या औचित्य?

झारखंड में कुपोषण की भयावह तस्वीर प्रस्तुत करने वाली खबरें राष्ट्रीय स्तर के अखबारों की सुर्खियां बनीं तो शहरों के विकास को पूरे राज्य के विकास का पैमाना मान लेने वाले अनेक लोगों को एक बार फिर राज्य के समग्र विकास के सवाल पर मंथन करने को मजबूर होना पड़ा है. जो लोग खनिज संपदा से परिपूर्ण झारखंड की विकास गाथा अखबारों में पढ़ते होंगे, उन्हें पहली नजर में नरकंकाल जैसा दिखने वाले नवजात की तस्वीर कैरेबियन क्षेत्र की लग सकती है. लेकिन हकीकत यह है कि यह नवजात खनिज संपदा से परिपूर्ण उस झारखंड का है, जो देश में कारोबार करने में सुगमता के लिहाज से बहुचर्चित गुजरात से भी एक पायदान आगे चौथे स्थान पर है.

इससे भी बड़ी बात यह कि यह शिशु झारखंड के उस कोल्हान क्षेत्र से ताल्लुकात रखता है, जिसने झारखंड राज्य बनने के बाद बीते 18 साल से तीन मुख्यमंत्री दिए. सत्तारूढ बीजेपी के प्रतिनिधि को दो-दो बार लोकसभा में भेजा. मौजूदा मुख्यमंत्री रघुवर दास और बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ कोल्हान क्षेत्र से ही हैं. गिलुआ कोल्हान क्षेत्र के सिंहभूम संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. तीसरी बार संसद में जाने के लिए जनता के सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं.

साल 2000 में बिहार का विभाजन करके झारखंड राज्य का गठन किए जाने के बाद से राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद सर्वाधिक समय बीजेपी की सरकारें रहीं. अब तक के दस मुख्यमंत्रियों में पांच बीजेपी के, चार झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के और एक कांग्रेस समर्थित निर्दलीय रहे.

लेकिन 18 साल में गैर बीजेपी दलों की सरकारों का कार्यकाल बमुश्किल सवा चार साल रहा है. 18 साल में झारखंड पर 13 महीने राष्ट्रपति शासन रहा है. बाकी समय बीजेपी का शासन रहा.

यह शर्मनाक और बेहद चिंताजनक है कि विकास के लंबे-चौड़े दावों के बावजूद क्षेत्र में कुपोषित बच्चों की संख्या सर्वाधिक है. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और टाटा ट्रस्ट के साझा अध्ययनों के आधार पर जारी रिपोर्ट से यह तस्वीर उभर कर सामने आई है. रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में कुपोषण की वजह से बच्चों की सर्वाधिक बुरी स्थिति पश्चिमी सिंहभूम जिले में है. इस जिले में कुपोषण की वजह से पांच साल तक उम्र के बच्चों में 59.41 फीसदी नाटेपन के शिकार हैं. साथ ही 66.85 फीसदी बच्चे कुपोषण के कारण तय मानक से काफी कम वजन वाले हैं.

हाई प्रोफाइल सिंहभूम संसदीय क्षेत्र के छह विधानसभा क्षेत्रों में पांच पर जेएमएम का कब्जा है. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और टाटा ट्रस्ट की रिपोर्ट के सार्वजनिक होने से पहले तक जेएमएम ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया था. सच तो यह है कि विपक्षी गठबंधन के किसी भी दल ने कुपोषण को चुनावी मुद्दा बनाया ही नहीं. जब रिपोर्ट सार्वजनिक हुई और झारखंड में कुपोषण की भयावहता सामने आई तो पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता सुबोधकांत सहाय और पूर्व मुख्यमंत्री व जेएमएम के नेता हेमंत सोरेन हरकत में आए. इन दोनों ने ट्वीट करके सरकार की खिंचाई की. उन्होंने सवाल किया, “यदि अच्छे दिन ऐसे होते हैं तो बुरे दिन कैसे होते हैं?”

बीते साल जब ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ के मामले में झारखंड को देश के अग्रणी चार राज्यों में शामिल किया गया था तो जाहिर है कि रघुवर सरकार की खुशी का ठिकाना न था. मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कहा था, “झारखण्ड ने इतिहास रच दिया है. सरकार की निवेश अनुकूल नीतियों के चलते ही यह संभव हो सका है. तभी मोमेंटम झारखंड का आयोजन अपने मकसद में कामयाब है. राज्य में टैक्सटाइल उद्योग से जुड़ी तीस कंपनियों का शिलान्यास हो चुका है. इसमें चार कंपनियां ओरिएंट क्राफट, किशोर एक्सपोर्ट, सिद्दिटेक व अरविंद मिल्स ने उत्पादन भी शुरू कर दिया है. अकेले अरविंद मिल्स में 2,000 लोगों को रोजगार मिल चुका है. औद्योगिक विकास की यह झांकी है. राज्य खुशहाली के पथ पर अग्रसर है.”

सिंहभूम संसदीय क्षेत्र के छह में से पांच विधानसभा क्षेत्र पश्चिमी सिंहभूम जिले में हैं. वहां के सांसद लक्ष्मण गिलुआ सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष होने के नाते केंद्र और राज्य सरकार की उपलब्धियों का बखान करते हुए जनता से वोट मांग रहे हैं. वह यह तो दावा नहीं करते कि पूरे राज्य में दूध की नदियां बहने लगी हैं. लेकिन विकास के दावों में संदेश यही होता है कि झारखंड खुशहाली की ओर अग्रसर है. बड़ा सवाल है कि कुपोषित समाज विकसित कैसे हो रहा है? सच तो यह है कि असंतुलित विकास समग्र विकास का पैमाना नहीं हो सकता है. वरना खनिज संपदा से परिपूर्ण और तरह-तरह के उद्योगों की मौजूदगी वाले कोल्हान क्षेत्र खासतौर से लक्ष्मण गिलुवा के संसदीय क्षेत्र सिंहभूम में 60.9 फीसदी कम वजन वाले बच्चे नहीं होते.

झारखंड के एक अखबार में हाल ही खबर प्रकाशित हुई कि कोल्हान प्रमंडल में कुपोषण काल बनकर जच्चा-बच्चा को निगल रहा है. टाटा इस्पात नगर के महात्मा गांधी मेमोरियल (एमजीएम) मेडिकल कॉलेज अस्पताल में जन्म लेनेवाले करीब 55 फीसदी नवजात का वजन सामान्य से कम पाया गया है. ये नवजात न्यूनतम 400 ग्राम और अधिकतम दो किलोग्राम के थे. 30 फीसदी नवजात का वजन दो से ढाई किलो तक पाया गया . मात्र 15 फीसदी नवजात का वजन ही सामान्य था. कुपोषण की वजह से अकेले एमजीएम अस्पताल में ही हर माह करीब 50 से 60 बच्चों की मौत हो जाती है. नेशनल हेल्थ सर्वे 2015-16 के अनुसार जिले में 49 फीसदी लोग कुपोषण के शिकार हैं. कोल्हान प्रमंडल में पश्चिम सिंहभूम जिले के अलावा पूर्वी सिंहभूम और सरायकेला खरसावां जिले हैं.

कुछ समय पहले ही एमजीएम मेडिकल कालेज अस्पताल के महिला एवं प्रसूति वार्ड में भर्ती गायत्री सोरेन अपने नवजात शिशु के साथ भर्ती हुई थी. जच्चा-बच्चा की स्थिति नरकंकाल जैसी थी. उनकी ओर मीडिया की नजर गई तो वह घटना काफी चर्चित हुई थी. गायत्री के मुताबिक उन्हें गर्भावस्था के दौरान सरकार से कोई सुविधा नहीं मिली. आंगनबाड़ी केंद्र से न पोषाहार मिला, न सेहत की जांच हुई. मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया है कि ऐसे मामले अब आम हैं. नियमानुसार गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाली गर्भवती महिलाओं को जननी शिशु स्वास्थ्य योजना के तहत सभी सुविधाएं मुहैया करानी हैं. मसलन गर्भवती को अस्पताल में प्रसव कराने से घर ले जाने तक की जिम्मेदारी सरकार की है. साथ ही दवा, खून और प्रोत्साहन राशि भी देनी है. हैरानी है कि पोषाहार योजना की नाकामी की खबरों के बावजूद सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे समान तरह की गलतियां करने वालों को सख्त संदेश मिल सके.

झारखंड महिला आयोग की अध्यक्ष कल्याणी शरण ने दो साल पहले अपने पश्चिमी सिंहभूम दौरे के दौरान आरोप लगाया था कि कुपोषण की विकरालता की वजह से जन्म लेने वाले एक सौ बच्चों में दस बच्चे ही बच पाते हैं. इतने गंभीर आरोप के बावजूद स्थिति में खास बदलाव नहीं आया. नतीजतन, कुपोषण के मामले में पश्चिम सिंहभूम जिला देश में चौथे स्थान पर पहुंच गया. देश के 113 जिले कुपोषण के शिकार हैं. इनमें झारखंड के सात जिले शामिल हैं. पश्चिम सिंहभूम जिला 113 की सूची में चौथे स्थान पर है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के ताजा आंकड़े के अनुसार पश्चिम सिंहभूम में करीब दो लाख आदिवासी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. इनमें 33 हजार बच्चे अति गंभीर कुपोषण के शिकार हैं.

जाहिर है कि इस संकट का सीधा संबंध बेरोजगारी और सिंचाई सुविधाओं के अभाव से है. दूसरी तरफ सरकारी योजनाओं का वास्तविक लाभ जनता तक नहीं पहुंच पाने और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी की वजह से जनता का हाल बेहाल है. बीते साल राज्य सरकार ने कौशल विकास योजना के तहत प्रशिक्षित लगभग 27 हजार युवाओं को विभिन्न उद्योगों में नौकरियों से संबंधित पत्र सौंपा था. दावा किया गया था कि राज्य सरकार की ओर से रोजगार के लिए घोषित स्थानीय नीति के तहत एक लाख आदिवासी-मूलवासियों को रोजगार दिया जा चुका है. जेवीएम के नेता बाबूलाल मरांडी ने इस दावे को सिरे से खारिज कर दिया था. उनका कहना है कि सरकार की स्थानीय नीति आदिवासियों और गैर आदिवासियों में विभेद पैदा करने वाली है. आदिवासी का दर्जा दिए जाने के झारखंड के कुर्मियों की मांग को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

बहरहाल, मौजूदा समय में स्थानीय मुद्दे भी लोकसभा चुनाव के मुद्दों में प्रमुखता से स्थान पा चुके हैं. यह स्थिति बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है. सिंहभूम संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले चक्रधरपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक शशिभूषण समाड जेएमएम के हैं.

वे कहते हैं, “गरीबों को सस्ती दरों पर अनाज उलब्ध कराने के नाम पर बड़े-बड़े खेल होते हैं. सिमडेगा में 11 लाख फर्जी राशन कार्ड मिले हैं. किसानों की आमदनी बढ़ाने के दावे को ग्रहण लग चुका है. सिंचाई की योजनाएं कागजों में सिमट कर रह गई हैं. कोल्हान में खेत सूखने और गर्मी शुरू होते ही पानी के लिए हाहाकार मचने लगता है. इस इलाके में 35 और राज्य में लगभग 167 चेकडैम बनाने के लिए लगभग 513 करोड़ रुपये की योजना को मंजूरी दी गई थी. इससे कोल्हान में लगभग दो हजार हेक्टेयर और राज्य में 38 हजार हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई सुविधा उपलब्ध होती. लेकिन सभी सिंचाई योजनाएं जमीन पर नहीं उतर पाईं. कोल्हान प्रमंडल के तीनों जिलों के 571 गांवों में पानी पीने के संकट से लोग जूझ रहे हैं. गांव के लोग खुले कुओं, हैंडपंप और तालाब पर निर्भर हैं.

राज्य सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण गरीबी की सघनता में 2.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से गिरावट आई है. यह साल 2005-06 में 57 फीसदी की तुलना में साल 2015-16 में 44.7 फीसदी रह गई. लेकिन कुपोषण के शिकार लोग सरकार के दावों पर कैसे भरोसा करें? उनके लिए तो आज भी रोटी और कपड़ा के साथ ही स्वास्थ्य का मुद्दा ही सबसे महत्वपूर्ण है.


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