मज़दूरों ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से उठाई आवाज़


laborer movement across the world

 

इस साल दुनिया के कई हिस्सों में असमानता और अन्याय के खिलाफ अधिकारों को लेकर आंदोलन हुए हैं. इनमें से कुछ आंदोलन तो पश्चिमी देशों की मीडिया में सुर्खियों में रहे हैं लेकिन ज्यादातर आंदोलनों को नोटिस नहीं किया गया. इसमें कोई शक़ नहीं कि कामगारों की एकजुटता और उनके आंदोलनों की सफलता के लिहाज से यह साल उल्लेखनीय रहा है.

पूरी दुनिया के लोग कॉरपोरेट लालच और असमानता के ख़िलाफ़ सरकारों के लचर रुख के शिकार हुए हैं. पेरिस की सड़कों पर प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच जो तकरार दिखा उसने पूरी दुनिया की मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा. येलो वेस्ट पहने इन प्रदशर्नकारियों ने फ्रांस सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ मोर्चा निकाला था. वाम दलों ने इसे उन कामगारों का आंदोलन ठहराया जो सरकार की कठोर और प्रतिगामी टैक्स नीति की वजह से परेशान थे. वो अपने जीवन में सुधार और बराबरी के हक़ के लिए सड़कों पर निकले थे. हालांकि यहां गौर करने वाली बात है कि दक्षिणपंथी ताकतों ने भी इस आंदोलन में हिस्सा लिया है.

अक्टूबर के महीने में ऑस्ट्रेलिया में भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला था जब वहां की सड़कों पर येलो वेस्ट पहने मज़दूर अपना काम छोड़ यूनियन के आंदोलन में शामिल हो गए थे. ‘चेंज द रूल्स’ के नाम से शुरू हुआ यह आंदोलन कामगारों को संगठित और हड़ताल करने के और ज्यादा अधिकार देने की मांग को लेकर था.

ऑस्ट्रेलिया में इसके अलावा स्थानीय स्तर पर साल भर तक कई और आंदोलन भी देखने को मिले हैं. ऑस्ट्रेलिया के पड़ोसी देश न्यूज़ीलैंड में भी इस तरह के आंदोलन देखने को मिले हैं जिसमें सरकारी कर्मचारी, नर्स, फास्ट फूड के काम में लगे कर्मी, बस ड्राइवर और सिनेमा वर्कर शामिल हुए हैं. नर्सिंग के काम से जुड़े लोग दशकों बाद पहली बार इस तरह के किसी हड़ताल के हिस्सा बने.

एशियाई प्रशांत क्षेत्र की बात करें तो दक्षिण कोरिया में टेक्नॉलॉजी की बड़ी कंपनी ऑरेकल में इस साल के मई से तनख़्वाह, काम की बदतर स्थिति और संगठन बनाने की मांग को लेकर हड़ताल जारी है. चीन में फैक्ट्री कामगार काम करने की असुरक्षित परिस्थितियां और ओवरटाइम को खत्म करने की मांग कर रहे हैं. यहां तक कि जापान में भी जहां शायद ही कभी हड़ताल होती है, वहां एक शहर में असुरक्षित काम को लेकर पैदा हुए विवाद के कारण बस ड्राइवर विरोध में चले गए. उन लोगों ने यात्रियों से भाड़ा लेने से मना कर दिया.

इसी तरह फिलीपींस में भी आउटसोर्सिंग कंपनी एलोरिका को सितंबर के महीने में हड़ताल का सामना करना पड़ा. इस हड़ताल की ज़मीन उस समय तैयार हुई जब कंपनी ने वर्कस यूनियन के अधिकारों पर नकेल कसने की कोशिश शुरू की थी. यह फिलीपींस में कॉल सेंटर में काम करने वाले कर्मचारियों की पहली हड़ताल है. दक्षिण एशिया के भी कई देशों में इस साल हड़तालें हुई हैं. भारत के पूर्वोत्तर में चाय बगानों में काम करने वाले कामगारों ने मजदूरी बढ़ाने को लेकर अगस्त में हड़ताल किया था. इसके अलावा उबेर और ओएलए के ड्राइवरों ने भी मिलने वाले भुगतान को लेकर अक्टूबर में हड़ताल किया. पाकिस्तानी बंदरगाहों पर काम करने वाले कामगारों ने कम दिहाड़ी और गलत तरीके से काम से निकाले जाने का मुद्दा उठाते हुए अपनी आवाज़ बुलंद की है. वहां डाक कर्मचारियों के यूनियन ने भी स्वास्थ्य सुविधाएं छिने जाने को लेकर विरोध-प्रदर्शन किया है.

कई अफ़्रीकी देशों में भी इस तरह के आंदोलन इस साल देखने को मिले हैं. केन्या में शिक्षकों और नर्सों के आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. केन्या की सरकार ने नर्सों को वेतन की मांग को लेकर नौकरी से निकालने की धमकी तक दी. न्यूनतम मजदूरी को लेकर नाइजीरिया में सितंबर के महीने में निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों के कामगारों ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल किया था. इसी तरह दक्षिण अफ़्रीका के खादान मज़दूरों के राष्ट्रीय संगठन ने भी बड़े पैमाने पर हुई छंटनी के बाद हड़ताल का आह्वान किया था. दक्षिण अफ़्रीका के संविधान में मजदूरों को हड़ताल अधिकार तो दिया गया है लेकिन हाल के दिनों में हुए संशोधन ने इसे मुश्किल बना दिया है.

मध्य पूर्व के देश भी इस साल मजदूरों के आंदोलन के गवाह रहे हैं. संयुक्त अरब अमीरात में हड़ताल पर कानूनी तौर पर प्रतिबंध लगा हुआ है. इसके बावजूद अबू धाबी में कामगारों ने तब तक काम करने से मना कर दिया जब तक उनका बकाया भुगतान ना हो जाए. ईरान में बेगारी और दूसरे मुद्दों को लेकर कर रहे हड़ताल की वजह से स्टील फैक्ट्री के मज़दूरों को गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा. ईरान के ट्रक ड्राइवर, किसान और रेलवे कर्मचारियों ने भी इस साल हड़ताल किए हैं.

अमेज़न में काम करने वाले यूरोप के कर्मचारियों ने साल के सबसे व्यस्त दिन को हड़ताल के लिए चुना. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अमेज़न की फ़ैक्ट्रियों में काम करने की असुरक्षित परिस्थितियों का मुद्दा उठाया और उसकी आलोचना की. ग्रीस के कामगारों ने हड़ताल करने के अधिकार को खत्म करने की सरकारी की योजना का विरोध किया है तो वहीं जर्मनी में वेतन के मसले पर कामगारों ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल बुलाई.

ब्रिटेन में लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में सफाईकर्मियों ने दस महीने लंबी लड़ाई जीत ली है जिसके बाद उन्हें पूर्णकालिक स्टाफ बना दिया गया. इससे उन्हें मिलने वाले वेतन और दूसरी सुविधाओं में उल्लेखनीय इजाफा हुआ है. पूरी दुनिया में ऐसी कई संघर्ष की कहानियां हैं जिसने इस साल उल्लेखनीय छाप छोड़ी हैं. कामगारों ने अपने काम के हालात, आर्थिक सुरक्षा और जीवन स्तर में सुधार को लेकर आवाज़ बुलंद की है. वे उस व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं जो असमानता और अन्याय को बढ़ावा देती है और इसके साथ ही वे दुनिया भर के मज़दूरों की आवाज़ को बुलंद कर रहे हैं. इस मौके पर हमें उन मजदूरों को भी नहीं भूलना चाहिए जो छुट्टी के दिनों में भी काम करने को मजबूर हैं. इन आंदोलनों की सफलता ने मजदूरों की एकता और ताकत को एक बार फिर रेखांकित किया है.

www.peoplesworld.org से साभार


विशेष