वरिष्ठ पत्रकार

वामपंथ, जो संभव है


 

यह स्वीकार करने में शायद किसी को दिक्कत नहीं होगी कि भारत में कम्युनिस्ट पार्टियां आज भले कमज़ोर हालत में हैं. बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि अपनी प्रासंगिकता के लिए जद्दोज़हद कर रही हैं. अभी डेढ़ दशक पहले तक वामपंथी पार्टियां भारतीय राजनीति में जैसी अहम भूमिका निभा रही थीं, उसे देखते हुए आज की उनकी हालत अफ़सोसनाक लगती है. बहरहाल, इस पृष्ठभूमि में ये सवाल मौजूं हो जाता है कि क्या कम्युनिस्ट/वामपंथी दल अपनी प्रभावशाली भूमिका में फिर वापस सकते हैं? अगर हां, तो फिर कैसे? ये लेख इसी चर्चा को आगे बढ़ाने की एक कोशिश है. इसकी प्रमुख दलील यह है कि पुनरुद्धार के कुछ सूत्र अतीत के कुछ उदाहरणों और मौजूदा समय में दुनिया के कुछ हिस्सों में उभर रहे राजनीतिक रूझानों में छिपे हैं.

बात चीन और माओ जे दुंग के आरंभिक दौर से शुरू करते हैं.

माओ की मूल सैद्धांतिक धारणाएं तभी ज़ाहिर होने लगी थीं, जब अभी वे मार्क्सवादी नहीं बने थे. मसलन, 1919 में माओ शिन हुनाना (नया हुनान) पत्रिका के संपादक बने. उस वर्ष नवंबर में उसमें उन्होंने झाओ वुझेन नामक युवा महिला के आत्महत्या करने के मामले पर दस लेख लिखे. इस महिला ने अरेंज्ड मैरिज के विरोध में खुदकुशी की थी. उनमें से एक में माओ में कहा कि उस महिला को तीन जंजीरों- परिवार, ससुराल और चीनी समाज ने जकड़ रखा था. इन जंजीरों से निकलने की उसे कोई उम्मीद नहीं बची.

इसी संदर्भ में माओ ने कंफ्यूसियस-मत विरोधी तर्क विकसित किए. उस समय के चीनी क्रांतिकारी कंफ्यूसियस-मत को “आदमखोर” बता रहे थे. वे पारंपरिक उसूलों के विरोध में उतर आए थे. उन क्रांतिकारी चिंतकों में चेन दुशिउ प्रमुख थे, जो 1921 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में एक थे. इन क्रांतिकारियों की राय में कंफ्यूसियस-मत का उम्र, पूर्व-उदाहरण और सामाजिक व्यवस्था (क्रम) के सम्मान पर ज़ोर देना एक बड़ी समस्या थी. उनकी राय में इस पुरानी संस्कृति ने चीनी समाज को जकड़ रखा था. चीनी राष्ट्रवादियों, माओ और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस सामाजिक व्यवस्था को अपना पहला निशाना बनाया. उससे आधुनिकीकरण की वह राह निकली, जिसने 20वीं सदी का अंत होते-होते चीन को दुनिया की एक प्रमुख ताकत बना डाला.

अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सफर पर ध्यान दिया जाए. आरंभ से ही सीपीआई (और बाद में कम्युनिस्ट धारा की दूसरी पार्टियों) की पूरी ऊर्जा वर्ग (आर्थिक) अंतर्विरोधों को समझने में लगी रही. तमाम संघर्षों को इस बिंदु पर संगठित करने में उन्होंने अपनी शक्ति लगाई. इस क्रम में उन्होंने भारतीय समाज की पुरातनता और पारंपरिक सांस्कृतिक पहलुओं के स्वंतत्र महत्त्व की उपेक्षा की. नतीजतन, समाज का आधुनिकीकरण उनके एजेंडे में कहीं नहीं रहा. आरंभिक दशकों में आर्थिक अंतर्विरोधों को समझने में भी उनकी कैसी पर-निर्भरता रही, इसकी बेहतरीन मिसाल पार्टी के भीतर चली उस समय की चर्चा है, जब भारत आजाद हुआ था.

यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि उस समय के बारे में खुद कम्युनिस्ट स्रोतों से क्या जानकारियां सामने आई हैं. निम्नलिखित प्रकरण पर ध्यान दें-

“कार्यनीतिक (टैक्टिकल) लाइन के बारे में सभी प्रकार की चर्चाएं चल रही थीः क्रांति के हम किस स्तर पर हैं? वर्ग गंठबंधन (class alliances) क्या हैं? धनी किसानों का क्या स्थान है? जमींदारी का क्या स्थान है? बुर्जुआ का क्या स्थान है? यहां बुर्जुआ का कौन-सा हिस्सा अस्तित्व में है? किस प्रकार की स्वतंत्रता आई है? ये सच्ची या वास्तविक आज़ादी है या नहीं? जिन सभी प्रश्नों पर चर्चा चल रही थी, उन्हें सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी और स्टालिन को भेज दिया गया.

प्रारंभिक विचार-विमर्श और चर्चाओं के बाद हम कुछ निष्कर्षों पर पहुंचे. इन्हें 1951 के नए कार्यक्रम में शामिल किया गया. अतः यह प्रश्न नहीं था, बल्कि कई दूसरे सवाल थे…… वो संपूर्ण सिद्धांत जो भारत पर लागू होता था. भारतीय समाज क्या है? अगस्त 1947 में हमें मिली आज़ादी किस प्रकार की है? ये वास्तविक है या झूठी? किन तबकों की आज़ादी के लिए लड़ने में दिलचस्पी थी और कौन-से तबकों को साम्राज्यवाद खरीद चुका था अथवा जिन्होंने साम्राज्यवाद से समझौता कर लिया था. कांग्रेस पार्टी की क्या भूमिका है? इन सारे सवालों पर विचार-विमर्श हुआ. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर 1948 से 1950 के बीच इन सवालों पर बहस थी.”

ये ब्योरा मशहूर कम्युनिस्ट नेता एम. वासवपुनैया ने दिया है. नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की मौखिक इतिहास परियोजना के तहत डॉ. एच.डी. शर्मा ने उनसे बातचीत की थी. उस बातचीत का ब्योरा स्तंभकार ए.जी. नूरानी ने क्रमिक रूप से अंग्रेजी पत्रिका में फ्रंटलाइन में दिया था. इस बात से ये सामने आया कि भारत की आजादी के वक्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी किस भ्रम का शिकार थी. ध्यान खींचने वाली बात यह है कि उसने खुद को इस भ्रम से निकलने में अक्षम पाया. इसलिए उसने अपना प्रतिनिधिमंडल सोवियत संघ भेजने का फ़ैसला किया. मकसद सीधे जोसेफ़ स्टालिन दिशा-निर्देश प्राप्त करना था.

बासवपुनैया के उपरोक्त वक्तव्य के बीच डॉ. शर्मा ने सवाल पूछा- “क्या यह हास्यास्पद नहीं लगता कि कम्युनिस्ट पार्टी इन मुद्दों पर खुद फ़ैसला नहीं ले सकी और उसे मॉस्को जाना पड़ा, जहां के नेताओं का भारत के साथ बेहद कम संपर्क ही था.” इस पर बासवपुनैया ने जवाब दिया- मैं दोहरा रहा हूं कि भारत मार्क्सवाद और लेनिनवाद की जन्मस्थल नहीं है. उनका जन्म यूरोप में हुआ. रूसी पहले थे, जिन्होंने उस पर अमल किया और क्रांति को विजय तक ले गए…. अगर मैं अपनी क्रांति को लेकर गंभीर हूं, तो हमें उनसे सीखने जाना ही था. जो लोग सिद्धांत में दक्ष हों, उनसे ना सीखना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है. इसलिए हमारे वहां जाने और स्पष्टता प्राप्त करने की कोशिश में कोई गलती नहीं थी. हमें ऐसा करना ही चाहिए था. अगर यह अपने देश में उपलब्ध हो, तो हम हासिल करते. जब यह अपने देश में उपलब्ध नहीं हो, तो हम क्या करेंगे? हमें हर उस जगह पर जाना होगा, जहां से हम हासिल कर सकें- चाहे वो चांद ही क्यों ना हो. यही हक़ीकत है.

स्टालिन से मिलने गए सीपीआई के प्रतिनिधिमंडल में अजय घोष, श्रीपाद अमृत डांगे, बासवपुनैया और सी. राजेश्वर राव शामिल थे. अब यह जानना भी दिलचस्प है कि स्टालिन ने आख़िर क्या सलाह दी? बासवपुनैया के शब्दों में रूसी नेताओं ने दो-टूक कहा कि ‘भारतीय परिस्थितियों के बारे में हमारा ज्ञान बहुत कम है. उपलब्ध सामान्य जानकारी के आधार पर हम (भारतीय परिस्थितियों से संबंधित) कुछ द्वंद्ववाद (dialectics) और कुछ सामान्य मार्क्सवाद एवं लेनिनवाद के बारे में जान पाए हैं. इस आधार पर हम सहायता की कोशिश करेंगे. उसे स्वीकार करना, संशोधित करना, ठुकराना या कुछ भी दूसरा करना आपके ऊपर निर्भर है.’

उपरोक्त दोनों मिसालें क्या बताती हैं? यही कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी क्यों कामयाब हुई और भारत में वैसा क्यों नहीं हुआ. सरलीकरण का जोखिम उठाते हुए इसकी एक वजह भारत की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुरूप रुख एवं रणनीति तय करने में कम्युनिस्ट संगठनों की विफलता को माना जा सकता है.

इन परिस्थितियों का तकाजा था कि भारत को आधुनिक देश बनाने को अपेक्षित महत्त्व दिया जाता. इसका मतलब यह है कि नवजागरण मूल्यों को सिद्धांत एवं व्यवहार में अपनाना प्राथमिकता बने. समता, आलोचनात्मक दृष्टिकोण, तर्क-वितर्क की संस्कृति, सामाजिक (या हर प्रकार के) पदानुक्रम (hierarchy) की अस्वीकृति इन उसूलों में अहम हैं. भारत में 19वीं का समाज सुधार आंदोलन का बड़ा हिस्सा और 19-20वीं सदी में राष्ट्रीय आंदोलन मुख्य रूप से इन मूल्यों से प्रेरित था. इसके बावजूद यह अफ़सोस की बात है कि भारतीय समाज आंशिक रूप से ही आधुनिक बन पाया.

आज़ादी के वक्त जवाहर लाल नेहरू और डॉ. भीमराव अंबेडकर ही ऐसी शख्सियत नज़र आते हैं, जिनके लिए परंपरा को झटके से तोड़ना और आधुनिकता की राह पर देश को ले चलना सर्वोच्च प्राथमिकता थी. कैसे? इसे समझने के लिए पितृसत्ता की समाप्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को सुरक्षित बनाने वाली संवैधानिक-कानूनी व्यवस्था के लिए किए गए उनके प्रयासों पर ध्यान देना चाहिए. बाकी नेताओं और दलों ने संभवतः इस बात की अहमियत नहीं समझी.

परिणाम हुआ कि समाज में सदियों से जारी जातिवादी, लिंगभेदी, दकियानूसी और अंधविश्वासी सोच समाज में जारी रही. दरअसल यही सोच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आधार है. इसे तोड़ा नहीं जा सका. नतीजतन संघ के फूलने-फलने की ज़मीन तैयार रही. आज जबकि संघ सत्ता और प्रभाव के लगभग हर हिस्से पर काबिज हो गया है, कम्युनिस्ट या वामपंथी आंदोलन की बात तो दूर, मध्यमार्गी राजनीति के लिए भी अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है.

ये वो बिंदु है, जिन पर वामपंथ को नए सिरे से शुरुआत करनी होगी. आशाजनक संकेत यह है कि सीपीएम और उससे जुड़े संगठनों ने कुछ सकारात्मक शुरुआत की है. पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सत्ता गंवाने के बाद सीपीएम ने वो काम शुरू किया, जो भारत जैसे देश में किसी कम्युनिस्ट पार्टी का बुनियादी काम होना चाहिए. मसलन, उसने किसान और मज़दूर संघर्षों को संगठित करने में खुद को लगाया है. एक अन्य सकारात्मक लक्षण जातिवाद और उससे संघर्ष के लिए अलग रणनीति बनाने की ज़रूरत को स्वीकार करना है. लेकिन इस पहल का अधूरापन यह है कि परिवार के पितृसत्तात्मक ढांचे और स्त्री की शुचिता जैसी मान्यताओं पर जिस प्राथमिकता से प्रहार करने की आवश्यकता है, वह बात अभी नहीं दिखी है. मसलन, यह कैसे संभव है कि कोई कम्युनिस्ट पारंपरिक ढंग से (अरेंज्ड) विवाह कर ले- वह ऐसे विवाह का हिस्सा बने जिसमें पंडित बुलाए जाते हों और मंत्रोत्चार होता हो? क्या किसी कम्युनिस्ट पार्टी में ये शर्त आज है कि ब्राह्मणवादी और पितृसत्तात्मक संस्कारों में भाग लेने वाला व्यक्ति उसका सदस्य नहीं बना रह सकता?

कहा जाता है कि ऐसी प्रथाओं का खुलेआम विरोध करने वाले लोग आम जनता से कट जाएंगे. विचारणीय है कि कंफ्यूसियस-मत का जोरदार विरोध करने के बावजूद क्यों चीनी के क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों की जड़ें वहां की जनता में गहरी होती गईं? क्या सारा मुद्दा सही रणनीति और विभिन्न संघर्षों के बीच साथ-साथ सही समन्वय बनाने से नहीं जुड़ा है? मुमकिन है. भारत में जैसे आज़ादी के समय कम्युनिस्ट आंदोलन की काफी ऊर्जा भारतीय आजादी के स्वरूप पर बहस करने में ज़ाया हुई, वैसे ही हाल के दशकों में उनका सारा विमर्श नव-उदारवाद की चर्चा और उसे निशाने पर लेने से होती रही है. लेकिन इसके खिलाफ कोई मॉडल देने में वे नाकाम हैं. जबकि व्यावहारिक मॉडल सामने होना एक बेहद अहम पहलू है.

Courtesy: Wikimedia-Commons

यह ध्यान में रखना चाहिए कि सोवियत मॉडल के बने रहने और भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा की लोकप्रियता के बीच सीधा संबंध था. 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद इस विचारधारा का आकर्षण आमजन के बीच घटा. धीरे-धीरे इस विचारधारा से प्रेरित संगठन भी इस ह्रास से प्रभावित हुए. अब स्थिति यह है कि कम्युनिस्ट संगठनों के सामने अपनी प्रासंगिकता खुद समझने और दूसरों को समझाने का बड़ा सवाल खड़ा हो गया है. यह बड़ी चुनौती है. इसके लिए नई शुरुआत करनी होगी. यह काम उन मुद्दों की तलाश से शुरू हो सकता है, जो आम जनता को आकर्षित कर पाएं. इस क्रम में वामपंथी दलों को लोक-लुभावन मुद्दों पर सियासत करने का जोखिम भी उठाना पड़ सकता है. साथ ही तमाम मध्यमार्गी दलों से मुद्दा-आधारित गठजोड़ करने के प्रति उन्हें अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा. ‘फासिज़्म’ बनाम ‘ऑथेरिटेरियन’ की बहसों में उलझना अपनी ताकत को ज़ाया करना होगा।

अच्छी बात है कि पुनरुद्धार के मुद्दे क्या हो सकते हैं, इस बारे में वामपंथ के भीतर चिंतन चल रहा है. मसलन, मशहूर अर्थशास्त्री और मार्क्सवादी चिंतक प्रभात पटनायक ने ऐसे पांच मुद्दों की पहचान की है. उनके मुताबिक पांच आर्थिक अधिकारों की मांग को आधार बनाकर ऐसी राजनीति विकसित की जा सकती है. ये अधिकार हैं- खाद्य अधिकार, रोजगार का अधिकार, सबके लिए मुफ्त चिकित्सा का अधिकार, सबके लिए मुफ्त शिक्षा का अधिकार और वृद्धावस्था पेंशन का अधिकार. अगर हम दुनिया के कुछ दूसरे हिस्सों पर गौर करें, तो वहां हाल के वर्षों में इसी तरह की मांगों पर सोशल डेमोक्रेटिक सियासत लोकप्रिय होती दिखी है. अमेरिका में यह असाधारण घटना हुई है कि वहां खुद को सोशलिस्ट करने वाले नेताओं और समूहों को अप्रत्याशित लोकप्रियता हासिल हुई है. वहां इस परिघटना का प्रतिनिधित्व बर्नी सैंडर्स कर रहे हैं. ब्रिटेन में जेरमी कॉर्बिन की राजनीति अपेक्षाकृत उनसे अधिक स्पष्ट और अधिक समाजवादी रूझान वाली है. स्पेन में पोदेमॉस और ग्रीस में सिरिजा ऐसी परिघटना का ही संकेत रहे हैं, हालांकि सत्ता में आने के बाद जिस तरह सिरिजा ने समझौतावादी रुख अपनाया, उससे नई शुरुआत की उम्मीद लगाए लोगों को भारी मायूसी हुई।

लेकिन जिन वस्तुगत परिस्थितियों के कारण ये परिघटना सामने आई, वो न सिर्फ बनी हुई हैं, बल्कि लगातार अधिक गंभीर हो रही हैं. अपने नव-उदारवादी रूप में पूंजीवाद निरंतर कम-से-कम लोगों के फायदे की व्यवस्था बनता जा रहा है. इससे सामाजिक ध्रुवीकरण तीखा हो रहा है. लगातार वंचित हो रहे लोग नए विकल्पों की उम्मीद में हैं. अमेरिका में हाल में हुए एक सर्वे से सामने आया कि डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों में 57 फ़ीसदी लोग समाजवाद के बारे में सकारात्मक धारणा रखते हैँ. बर्नी सैंडर्स के समर्थकों को लोकप्रियता जिन मांगों के आधार पर मिली है, वो हैं- यूनिवर्सल हेल्थकेयर, शिक्षा को सार्वजनिक क्षेत्र में लाना, 15 डॉलर प्रति घंटे न्यूनतम मज़दूरी, उदार आव्रजन नीति, कॉरपोरेट्स पर अधिक टैक्स लगाना और बंदूक रखने के अधिकार (यह अमेरिकी धनी वर्ग की प्रमुख मांग रही है) पर नियंत्रण. इसके साथ ही नस्लभेद विरोध, लैंगिक समानता और सेक्सुअल माइनोरिटीज के अधिकारों की वकालत उनके कार्यक्रम का हिस्सा हैं.

कहा जा सकता है कि ये सोशल डेमोक्रेटिक मांगें हैं. सैंडर्स के बारे में कहा जाता है कि वे न्यू डील सोशलिस्ट (यानी दो महायुद्धों के बीच के काल में राष्ट्रपति रहे फ्रैंकलिन डिलेनो रूजवेल्ट के कार्यकाल के दौरान अपनाई नीतियों के समर्थक) से ज़्यादा कुछ नहीं हैं. रूजवेल्ट की नीतियां मोटे तौर पर अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स के विचारों पर आधारित थीं. कम्युनिस्ट विचारक कीन्सियन अर्थव्यवस्था की तीखी आलोचना पेश करते रहे हैं. ऐसी बहसों पर गौर करें, तो कम्युनिज्म और सोशल डेमोक्रेसी के बीच का अंतर खुद स्पष्ट हो जाता है. मगर हकीकत यह है कि उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य के नियंत्रण पर आधारित कम्युनिज्म के मॉडल को भले आज भी आदर्श मानने वाले लोग मौजूद हों, लेकिन ये मॉडल फिलहाल व्यवहार में कहीं मौजूद नहीं है. सोवियत संघ और उसके खेमे का विघटन लगभग तीन दशक पहले हो गया था. तब से चीन से लेकर क्यूबा तक में बड़े बदलाव देखने को मिले हैं. संभवतः इन्हीं अनुभवों के आधार पर “समाजवादी” देशों के साथ-साथ पूंजीवादी देशों में उभर रही शक्तियों ने भी उस वामपंथ को अपनाने का फैसला किया, जो फिलहाल संभव है (left wing of the possible).

इस संभव की पहचान और उसके लिए सक्रिय या संघर्षरत होने की ज़रूरत भारत में भी है. दरअसल, आज की परिस्थितियों में ये वो बिंदु है, जहां से शुरुआत हो सकती है. मगर ये शुरुआत आगे बढ़े इसके लिए जरूरी है कि समाज के आधुनिकीकरण के एजेंडे को तरजीह दी जाए. इसके बिना समाजवाद की बातें महज कल्पना या यूटोपिया के अलावा कुछ नहीं हैं. समाजवाद अगर उच्च स्तर की व्यवस्था है, तो उसके लिए एक ऐसे बड़े समर्थक वर्ग की मौजूदगी जरूरी है, जो समता एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे ऊंचे उसूलों में यकीन रखता हो. न सिर्फ यकीन रखता हो, बल्कि उन मूल्यों की रक्षा के लिए तत्पर भी रहे. ऐसा होना मानव विकास-क्रम (evolution) का स्वाभाविक हिस्सा है. मगर आज की परिस्थितियों में कम-से-कम अपने समाज में ऐसे लोग अल्पमत में ही हैं. वामपंथी/समाजवादी शक्तियों से अपेक्षित है कि वो उन ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को तीव्र और पुख्ता बनाने में अपनी ख़ास भूमिका निभाएं, जिससे समाजवाद का समर्थन आधार लगातार अधिक व्यापक हो सके.

इतिहास की द्वंद्वात्मक (dialetics) समझ हमें बताती है कि प्रगति और प्रतिक्रिया (reaction) निरंतर जारी परिघटना का हिस्सा हैं. फिलहाल, दुनिया भर में प्रतिगामी शक्तियों का दौर आया हुआ है. इस दौर ने हमें आगाह किया है कि समाजवाद लोकतंत्र, मानवाधिकार, कल्याणकारी राज्य आदि जैसी बातों को तयशुदा गारंटी के रूप में नहीं लिया जा सकता. इनके आवरण के भीतर अंदरूनी सतहों पर जारी सामाजिक पूर्वाग्रह और गैर-बराबरी की व्यवस्थाएं कायम हैं. उन्हें नजरअंदाज करना जोखिम भरा है. इसलिए विषमता और सामाजिक पूर्वाग्रहों को केंद्र में रखकर नए विमर्श को लोकप्रिय बनाने की जरूरत है. चूंकि धन, तमाम तरह के संसाधनों और मेनस्ट्रीम मीडिया पर गैर-बराबरी और पूर्वाग्रहों से लाभान्वित शक्तियों का कब्जा है, इसलिए उस नए विमर्श को जनता तक ले जाना आसान नहीं है. लेकिन आज इस कठिन चुनौती को स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. लेकिन इसकी शुरुआत अधिकतम या आदर्श स्थितियों की चर्चा या चरम बिंदु (extreme point) से अपनी बात कहते हुए नहीं हो सकती.

आवश्यकता यह है कि फिलहाल left wing of the possible की पहचान और उसके मुताबिक कार्यनीति एवं रणनीति बनाने के प्रयास किए जाएं. फिलहाल भारत में इसका व्यावहारिक रूप यह है कि सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की ताकतों को सत्ता से बेदखल करने और धीरे-धीरे राजनीति में उन्हें निष्प्रभावी बनाने की रणनीति पर चला जाए. अगर एक बार फिर यह संभव हो जाए, तो अधिक बड़े लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ा जा सकेगा.


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