‘मोदीनॉमिक्स’ से निराश जनता


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रिजर्व बैंक के हालिया सर्वे की माने तो ‘मोदीनॉमिक्स’ से लोग निराश हैं. दिसंबर माह की 5 तारीख को जारी कन्ज्यूमर कॉफिंडेंस सर्वे के अनुसार लोगों का मानना है कि देश की आर्थिक हालत खराब है, रोजगार की हालत बदतर हुए हैं और महंगाई बढ़ी है.

भारतीय रिजर्व बैंक समय-समय पर यह सर्वे कराती रहती है. इस सर्वे को जनता की खुशहाली का बैरोमीटर भी माना जाता है कि जनता सरकार के आर्थिक प्रबंधन से कितनी खुश है. रिजर्व बैंक ने जून 2010 से प्रत्येक तिमाही में इस सर्वे को कराना शुरू किया था और मार्च 2016 से इसे दो माह में कराया जा रहा है. इस सर्वे से शहरी जनता की अर्थव्यवस्था पर सोच की झलक मिलती है.

नवंबर 2018 का यह सर्वे देश के 13 बड़े शहरों अहमदाबाद, बेंगलुरू, भोपाल, चेन्नई, दिल्ली, गुवाहाटी, हैदराबाद, जयपुर, कोलकाता, लखनऊ, मुंबई, पटना और तिरुअनंतपुरम में नवंबर माह में कराया गया. इस सर्वे से जो बात उभर कर सामने आई है वह है लोगों की निराशा. लोग देश के आर्थिक हालात से निराश हैं मतलब नाखुश हैं. गौरतलब है कि निराश जनता कम खरीददारी करती है जिससे अर्थव्यवस्था में गिरावट आ जाती है.

नवंबर 2018 के सर्वे में शामिल 33.2 फ़ीसदी का मानना है कि देश के आर्थिक हालात में सुधार हुआ है, 21.6 फ़ीसदी का मानना है कि देश के आर्थिक हालात पहले के समान ही हैं जबकि 45.2 फ़ीसदी का मानना है कि आर्थिक हालात बदतर हुए हैं. 45.2 फ़ीसदी का मानना कि देश के आर्थिक हालात खराब हुए हैं. उनका यह अनुभव या सोच रोजमर्रा के अनुभव पर ही आधारित है.

बहुसंख्य जनता अर्थव्यवस्था की बारीकियों से परिचित नहीं होती है. वह माइक्रोइकॉनॉमिक्स या मैक्रोइकॉनॉमिक्स या मौद्रिक नीति को नहीं समझती है लेकिन वह उसी अर्थव्यवस्था में ही जीती है. जनता को समाचारों से, टीवी की खबरों से तथा सोशल मीडिया में आ रही खबरों से पता चलता है कि कर्ज न दे सकने के कारण किसान आत्महत्या कर रहें हैं तो दूसरी तरफ विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे बड़े लोग बैंकों का पैसा गबन करके विदेश भागे जा रहें हैं.

जनता को अच्छी तरह से पता है कि दरअसल बैंकों में जमा धन उसका ही है जिसकी चौकीदारी करने में वर्तमान शाहिदे मसनद नाकामयाब रहे हैं. जाहिर है कि इससे उनका अर्थव्यवस्था पर से भरोसा कम हुआ है. जब किसी के अर्थव्वस्था के प्रबंधन से जनता खुश नहीं है तो इसका उसकी राजनीति पर भी असर पड़ना लाजिमी है.

जहां तक रोजगार की हालात की बात है तो 33.9 फ़ीसदी का मानना है कि हालत में सुधार हुए हैं, 18.9 फ़ीसदी का मानना है कि रोजगार की हालत पहले के समान ही है जबकि 47.2 फ़ीसदी का मानना है कि रोजगार के हालात खराब हुए हैं. यह एक बहुत बड़ी संख्या है. 47.2 फ़ीसदी का मानना है कि रोजगार के हालात खराब हुए हैं. इसके लिए जनता को किसी आंकड़े की जरूरत नहीं है. वह देख रही है उसका अनुभव भी यही इंगित करता है कि उसके पढ़े-लिखे नौकरी योग्य बच्चों को नौकरियां नहीं मिल पा रही हैं. उसके रिश्तेदारों और पड़ोसियों के परिवारों की भी हालत कमोबेश यही है. जिन युवाओं के हाथों में देश का भविष्य है उनके पास अपने भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए रोजगार नहीं है.

दूसरी तरफ समय-समय पर खबरें आती रहती हैं कि भारत में डॉलर करोड़पतियों की संख्या में इज़ाफा हुआ है. मुकेश अंबानी की संपदा कितना बढ़ी है. युवाओं को वेतन देने वाले नौकरी का अकाल पड़ा हुआ है. जब खुद के पास रोजगार न हो तो दूसरी की संपदा में हुए इजाफे क्या राहत दिलवा सकते हैं.

मूल्यवृद्धि पर 3.8 फ़ीसदी का मानना है कि मूल्य कम हुए हैं, 7.8 फ़ीसदी का मानना है कि मूल्य वैसे ही हैं जबकि 88.3 फ़ीसदी सर्वे में शामिल लोगों का मानना मूल्यों में वृद्धि हुई है. इसका अर्थ है कि विशाल संख्या में जनता का मत है कि महंगाई बढ़ी है. जबकि इसकी तुलना में उसका वेतन उतना नहीं बढ़ा है. अब बढ़े हुए मूल्य की भरपाई कैसे होगी.

इसी सर्वे से पता चलता है कि खर्चे कम हुए हैं. नवंबर 2017 में 85.7 फ़ीसदी का मानना था कि खर्चे बढ़े हैं वहीं नवंबर 2018 में 73.0 फ़ीसदी का मानना है कि खर्चे बढ़े हैं. इस तरह से लोगों के खर्च कम हुए हैं जो इस बात को इंगित करता है कि देश का घरेलू मांग सिकुड़ रहा है जिसका अर्थव्यवस्था पर आगे चलकर नकारात्मक प्रभाव पड़ना लाजिमी है.

कुल मिलाकर, रिजर्व बैंक के सर्वे के अनुसार 45.2 फ़ीसदी का मानना है कि देश के आर्थिक हालात खराब हुए हैं, 47.2 फीसदी का मानना है कि रोजगार के हालात बदतर हुए हैं तथा 88.3 फ़ीसदी का मानना है कि मूल्यवृद्धि हुई है. जाहिर है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के समय जिस अच्छे दिन के सपने दिखाए जा रहे थे जनता अब उसकी वास्तविकता समझ चुकी है.

वैसे मोदी सरकार पर जनता का कितना भरोसा है यह जानने के लिए रिजर्व बैंक के सर्वे के अलावा भी दूसरे पैमाने हैं. हाल ही में आए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे भी इस ओर इशारा कर रहे हैं. इन विधानसभा चुनावों में तीन राज्य छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान की बीजेपी सरकार को जाना पड़ा है. किसानी की समस्याओं से जुड़े मुद्दों ने दूसरे मुद्दों जैसे राष्ट्रवाद, मंदिर-मस्जिद और विकास के झूठे दावों को दरकिनार कर दिया.

इन पांच राज्यों के लिए हुए कुल 678 विधानसभा सीटों में से बीजेपी को 199 और कांग्रेस को 305 सीटें मिली हैं. अर्थात् बीजेपी को मात्र 29 फ़ीसदी विधानसभा सीटों पर कामयाबी मिली है. जबकि साल 2013 में हुए पांच राज्य दिल्ली, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा मिजोरम के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को कुल 629 विधानसभा सीटों में से 408 सीटों में मिली थी. उस समय बीजेपी को 64 फ़ीसदी सीटों पर कामयाबी मिली थी. याद करिए उसी के बाद से मोदी लहर चलना शुरू हुआ था.

जाहिर है कि पिछली बार की तरह इस बार आगामी लोकसभा चुनाव के हवा बनती नहीं नज़र आ रही है. हवा का रुख बदल गया है चाहे वो रिजर्व बैंक का सर्वे हो या हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजें दोनों का ही संदेश यह है कि मोदी सरकार पर से जनता का भरोसा कम हुआ है. इतिहास गवाह है कि जब जनता नाखुश होती है तो सत्ता परिवर्तन होता है. अब यह दिगर बात है कि जनता की आकांक्षाओं पर कौन या कौन-कौन खरा उतरता है.


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