क्यों था मुग़ल शासकों को संस्कृत से प्रेम?


review of audrey truschke book on sanskrit in mughal court

 

दो सौ वर्षों पूर्व जेम्स मिल द्वारा सांप्रदायिक आधार पर किए गए भारतीय इतिहास के काल-विभाजन ने न सिर्फ इतिहास के कालखंडों को धर्म के आधार पर बाँट दिया बल्कि इसके अंतर्गत भारतीय इतिहास के स्रोतों का बंटवारा भी कर दिया. नतीजतन मध्यकाल का इतिहास लिखते हुए सिर्फ फ़ारसी के स्रोतों का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति ने ज़ोर पकड़ा. इसके चलते मध्यकालीन भारत के इतिहासलेखन में उन ग्रन्थों की उपेक्षा कर दी गई, जो उसी दौरान संस्कृत भाषा में लिखे गए थे.

हाल के कुछ वर्षों में इतिहासकारों ने इस गलती को सुधारने की कोशिश की है. ऐसा ही एक उल्लेखनीय प्रयास किया है इतिहासकार आद्रे ट्रश्का ने अपनी बेहतरीन किताब ‘कल्चर ऑफ एनकाउंटर्स : संस्कृत एट द मुग़ल कोर्ट’ में.

भाषा, सत्ता और साम्राज्य के जटिल संबंधों की पड़ताल करती हुई यह किताब हमें बताती है कि आखिर कैसे और क्यों मुग़लों ने संस्कृत के विद्वानों को अपने दरबार में प्रश्रय दिया, संस्कृत के दर्जनों ग्रन्थों के फ़ारसी में अनुवाद कराए और फ़ारसी में भारतीय दर्शनग्रन्थों के विवरण तैयार किए.

ज्ञान के सृजन, आदान-प्रदान की यह अनूठी प्रक्रिया अकबर द्वारा अपने दरबार में संस्कृत के पंडितों और जैन विद्वानों को बुलाए जाने से शुरू हुई. बाद में, जहांगीर व शाहजहाँ ने अपने शासन काल में इस प्रक्रिया को और अधिक प्रोत्साहन दिया. दारा शिकोह की भारतीय दर्शन में गहरी रूचि और संस्कृत के प्रति उसका लगाव तो एक सर्वविदित ऐतिहासिक तथ्य है.

आद्रे ट्रश्का मुग़ल दरबार में संस्कृत के ग्रन्थों के अनुवाद और विद्वानों को प्रश्रय देने की ऐतिहासिक परिघटना की तुलना अब्बासी खलीफ़ाओं के समय में ग्रीक दर्शन परंपरा के साथ होने वाली अंतःक्रिया और चीन में ईसा की पहली सहस्राब्दी में बौद्ध ग्रन्थों के अनुवाद की महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं से करती हैं. संस्कृति, साहित्य और सत्ता के संबंधों को समझते हुए ट्रश्का की यह किताब उपनिवेशकाल से पूर्व की दुनिया में हुई सबसे जटिल सांस्कृतिक अंतःक्रियाओं का लेखा-जोखा है.

भारत में सोलहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के दौरान मुग़लों की संप्रभुता की धारणा, उनके प्राधिकार (अथॉरिटी) व प्रशासन, सांस्कृतिक विविधता और साहित्यिक परम्पराओं के विकास से भी यह किताब हमें वाबस्ता कराती है. संस्कृत में मुग़लों की रूचि को देखते हुए क्षेत्रीय शासकों व स्थानीय समुदायों ने भी मुग़लों के सम्मान में प्रशस्तियाँ लिखवाने की शुरुआत की.

आद्रे ट्रश्का विस्तारपूर्वक यह भी दिखाती हैं कि संस्कृत के पंडित और जैन विद्वान कैसे इस मुग़ल परियोजना का हिस्सा बने, इसमें स्वयं को समायोजित किया और ख़ुद उन विद्वानों ने संस्कृत व फ़ारसी के बीच होने वाली अंतःक्रिया को कैसे देखा और समझा.

आद्रे ट्रश्का के अनुसार, मुग़ल दरबार में संस्कृत का इतिहास दरअसल संस्कृति, भाषा व धर्म के बीच परस्पर अंतःक्रियाओं का समृद्ध दस्तावेज़ है. मुग़ल दरबार में आश्रय पाने वाले संस्कृत के पहले पंडितों में से एक थे उड़ीसा के महापात्र कृष्णदास, जो 1565 ई. में मुग़ल दरबार से जुड़े.

कृष्णदास को संगीत पर उनकी रचना ‘गीतप्रकाश’ के लिए जाना जाता है. कृष्णदास के बाद नरसिंह और ‘नर्तननिर्णय’ के रचयिता पुंडरीकविट्ठल सरीखे विद्वान भी अकबर के दरबार से जुड़े. इसी क्रम में अकबर के दरबार में संस्कृत के लेखक गोविंदभट्ट भी आए, जिन्हें ‘अकबरीयकालिदास’ की उपाधि दी गई.

संस्कृत के इन विद्वानों के अतिरिक्त जैन विद्वान भी अकबर के दरबार में आए. पद्मसुंदर संभवतः वे पहले जैन विद्वान थे, जो अकबर से मिले. अकबर के निवेदन पर पद्मसुंदर ने 1569 ई. में ‘अकबरीशृंगारदर्पण’ की रचना की, जो कि संस्कृत सौन्दर्यशास्त्र से संबन्धित ग्रंथ था. उनके बाद 1582 ईस्वीं में एक दूसरे प्रसिद्ध जैन विद्वान हरविजय अकबर के आमंत्रण को स्वीकार करते हुए मुग़ल दरबार में आए.

आद्रे ट्रश्का की इस किताब में जहां एक ओर आप जगन्नाथ पंडितराज (‘आसफ़विलास’), कविन्द्राचार्य सरस्वती जैसे संस्कृत के उन प्रकांड विद्वानों से अवगत होते हैं, जिन्हें मुग़लों ने प्रश्रय दिया. वहीं यह पुस्तक आपको इन विद्वानों व उनकी कृतियों के ऐतिहासिक महत्त्व से भी परिचित कराती है : शांतिचन्द्र (‘कृपारसकोश’), रुद्रकवि (दानशाहचरित, खानखानाचरित, जहाँगीरचरित व कृतिसमुल्लास), हरिदेव मिश्र (‘जहाँगीरविरुदावली’).

साथ ही यह किताब मुग़ल काल में लिखे गए उन जैन ग्रन्थों का भी विवरण देती है, जिनसे मुग़ल इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है. मसलन, पद्मसागर, जयसोम, देवविमाला, सिद्धिचन्द्र, हेमविजय, गुनविजय और वल्लभ पाठक सरीखे जैन विद्वानों द्वारा सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के दौरान रचित ग्रंथ.

अद्वैत दर्शन के प्रकांड विद्वान मधुसूदन सरस्वती और अकबर के मुलाक़ात से जुड़ी किंवदंती की चर्चा करते हुए आद्रे ट्रश्का इतिहास और मिथक को नए सिरे-से व्याख्यायित करने की जरूरत पर भी ज़ोर देती हैं. और काव्य, चरित और प्रबंध जैसी शैलियों में लिखे ग्रन्थों के महत्त्व को रेखांकित करती हैं. इतिहासलेखन के क्रम में साहित्यिक व सांस्कृतिक पक्षों को ध्यान में रखकर प्रत्यक्षीकरण, प्रस्तुतीकरण और स्मृतियों के इतिहास की ओर भी वे हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं.

(शुभनीत कौशिक इतिहास के शिक्षक हैं और आधुनिक भारत के इतिहास में गहरी दिलचस्पी रखते हैं.)


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