बच्चों का मनोविज्ञान बनाम हमारा शिक्षा तंत्र


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बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून 2009 में केंद्र सरकार ने संशोधन कर हाल ही में उसे पलट दिया है. अब फिर से राज्यों में पढ़ने वाले कक्षा आठ तक के विद्यार्थियों को परीक्षा में फेल करने और उसी कक्षा में और एक साल तक रोक कर रखने का नियम बहाल कर दिया गया है. यह एक चिंतनीय विषय है.

मोटे तौर पर इसमें कोई ग़लत या अन्यायपूर्ण बात नज़र नहीं आती. बड़ी सरलता से इसके पक्ष में यह तर्क दिया जाता रहा है, कि बच्चे में कक्षा को उत्तीर्ण करने की योग्यता नहीं है, इसलिए उसे अनुत्तीर्ण कर दिया गया. बच्चा अनुत्तीर्ण हो सकता है, हालांकि उसकी अनुत्तीर्णता के लिए सिर्फ़ वही जिम्मेदार नहीं होता, उसके अनुत्तीर्ण होने के पीछे बहुत से घटक और कारक होते हैं. पर असली सवाल तो यह है कि इसके कारण उसे उसके जीवन की दौड़ में, एक साल पीछे कर देने वाले आखिर हम कौन होते हैं?

2009 में जब केंद्र सरकार ने कक्षा आठ तक के बच्चों को फेल न करने का कानून बनाया था, तो उसके पीछे संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी किया गया, बच्चों के अधिकार का घोषणा पत्र का सम्मान करने की भावना तो थी ही, कई मनोवैज्ञानिक रपटें और पड़तालें भी ऐसा कानून बनाए जाने के लिए दुनिया भर की सरकारों को प्रेरित कर रही थीं. इन शोध अध्ययनों से जो तथ्य निकलकर आए हैं, वे परीक्षा की भेड़ चाल पर, एक बार पीछे मुड़कर सोचने के लिए विवश करते हैं.

पांच साल की मासूम उम्र में बच्चे का स्कूल-प्रवेश भले ही बाहर से ज्ञान प्राप्ति की दिशा में बढ़ाया गया एक आल्हादकारी कदम दिखाई पड़ता हो, पर जो दिखाई नहीं देता, लेकिन बच्चे के मानस में उस समय घटित होता है, वह यह कि उसकी स्वच्छंदता को एक झटके से दूसरों के द्वारा नियंत्रित व्ययस्था के शिकंजे में झोंक दिया जाता है. इससे उसके कोमल मन पर ठेस लगती है. वह दौड़ना चाहता है, परंतु उसे एक जगह पर शांत बैठने के निर्देशों का पालन करने के लिए मजबूर किया जाता है. वह खिलखिलाना चाहता है, परंतु इससे स्कूल का तथाकथित अनुशासन टूटता है. उसका थका हुआ शरीर और जैविक-घड़ी उसे सुलाना चाहती है, पर सोना वहां अपराध बन जाता है. वह स्कूल जाकर जो पहली बात सीखता है, वह यह कि यह जगह उसके लिए अच्छी नहीं है. स्कूल एक बुरी जगह के तौर पर उसके मन में प्रवेश करता है. वह अकुलाता है. रोता है. जब नहीं रोता, तो उदास रहता है. उसका समय काटे नहीं कटता. इसीलिए जब छुट्टी होती है, तो वह किलकारी मारकर बाहर भागता है. उसकी किलक मुक्ति की किलक होती है. आज़ादी का विस्फोट होती है. नियंत्रण से निजात पाने की अनुभूति की किलक होती है. स्वच्छंदता में लौटने की राहत उसमें आनंद सिरजती है.

स्कूल उसके सपनों में आने लगता है. परीलोक की तरह नहीं, किसी भयानक राक्षस की गुफा की मानिंद. एक कारागार की भांति. वह सपने में चौंकने लगता है. सिहर उठता है. भयभीत हो जाता है. अगली सुबह वह उस मनहूस घड़ी के निकट आने की बेचैनी से अंदर-अंदर जूझता है. माता-पिता उसे धोखा देकर स्कूल छोड़ने जाते हैं. उससे कहा जाता है कि वे उसे घुमाने या उसकी मनपसंद चीज दिलाने ले जा रहे हैं. वह खुश होता है. उसे अपने माता-पिता, संसार के सबसे उम्दा माता-पिता लगते हैं. पर अचानक ही उसके सामने उसका स्कूल अवतरित हो जाता है. अब वह माता-पिता की धोखेबाज छवि से परिचित होता है. उसे विश्वास नहीं होता कि उसके माता-पिता उसे भरमा कर वहां पहुंचाने आए हैं, जो उसके लिए एक बुरी जगह है. इस तरह वह अपने प्रियजनों के माध्यम से से ही छल, कपट और झूठ की एक और पाठशाला में पहुंचा दिया जाता है.

फिर धीरे-धीरे वह स्कूल का आदी होने लगता है. नियंत्रण, अनुशासन और व्यस्थाओं के चंगुल में चला जाता है. अब वह एक पाठ्यक्रम, समय-सारिणी और अध्यापन शैली के हवाले हो जाता है. वहां इनके अनुरूप उसे ढालने की जद्दोजहद शुरू होती है. मनोवैज्ञानिकों के निष्कर्ष हैं कि बच्चे के अनुरूप और अनुकूल शिक्षा व्यवस्था हो, पर व्यवहार में उल्टा ही होता है. हमारा शिक्षा-तंत्र बच्चे को अपने अनुरूप और अनुकूल बनाने पर आमादा रहता है. वहां जेलरों और थानेदारों की जमात इस काम के लिए जमा है.

अगली समस्या यह है कि बच्चे तो विविधता भरी पृष्ठभूमि से आते हैं. वे निर्धन, मध्यम और उच्च आय वर्ग से हैं. वे गांव, शहर और महानगर से हैं. वे मलिन बस्तियों, आला दर्जे़ की कॉलोनियों और उच्चकोटि की टाउनशिप से हैं. वे कामगारों, किसानों और अफसरों के बच्चे भी हैं. वे बेघर, झोपड़ियों और सड़क पर रहने वाले भी हैं. परंतु उन सबके लिए पाठ्यक्रम एक ही है. एक स्तर का. विद्यालयों में बच्चों के लिए यूनिफॉर्म होती है, ताकि उनमें समानता दिखे. भेदभाव न नज़र आए. पर यह तो भेदों को और विविधता को बाहर से ढंक देने का नकली उपाय ही है. विविधताओं से भरे समाज को न देखने की ओट है. उसके मूल आधार को महत्ता देने और समस्याओं का सामना करने से बचने का बहाना है. पाठ्यक्रम की एकरूपता का विचार भले ही ऊपर से न्यायपूर्ण दिखाई देता हो, पर वह एक अदृश्य अन्याय की ही रचना करता है.

पाठ्यक्रम और पाठ्य-पुस्तकें शहरी मानसिकता और विचारशीलता से निर्मित हैं. इनमें गांव का वास्तविक चरित्र, जीवन और पृष्ठभूमि नहीं है. यहां ‘ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार’ है, और ‘मछली जल की रानी है’ भी है, परंतु गांव का असली राइम तो यह है ‘पूस की रातें कांपें थर-थर, धरा-बिछौना ठंडी से तर. कथरी करती है चर-चर, तब खेत में रहता बप्पा का घर.’ इस सत्य से शहरी बच्चे नावाकिफ हैं और ‘ट्विंकल’ से ग्रामीण बच्चे. तो हमारी शिक्षा व्यवस्था का सत्य यह है कि वहां पर तयशुदा माप वाला एक संदूक तैयार कर लिया गया है और उसमें उसी माप में काट-छांटकर बच्चों को ठूंसा जा रहा है.

जो हमारी संदूक के अनुरूप नहीं हो पाते, उन्हें हम अनुत्तीर्ण कर देते हैं. इतना ही नहीं, उनके जीवन का एक साल भी छीन लेते हैं. जो बच्चे अपनी मासूमियत के चलते पाठशाला, पाठ्यक्रम, शिक्षा, ज्ञान और अध्ययन से ही अभी पूरी तरह परिचित नहीं हो सके हैं, उन्हें ही हम अपने बनाए हुए नियमों-कानूनों का शिकार बनाए चले जा रहे हैं. बच्चा अनुत्तीर्ण हो सकता है, पर उसका साल हम कैसे छीन सकते हैं? उसे पुनः पढ़ाया जाना चाहिए. और अगली कक्षा में तो उसे जाने देना ही चाहिए. उसके पास एक कक्षा की अनुत्तीर्ण अंकसूची होगी, तो सात उत्तीर्ण कक्षाओं की अंकसूचियां भी हो सकती हैं.

हमें इस सत्य को समझना होगा कि असल में अनुत्तीर्ण होता है, अध्यापक. अनुत्तीर्ण होता है, विद्यालय. अनुत्तीर्ण होता है पाठ्यक्रम और शिक्षा व्यवस्था. पर हम हैं कि अपनी अनुत्तीर्णता को बच्चे के सिर पर मढ़ रहे हैं.

पाठ्यक्रम की एकरूपता समाप्त होना चाहिए. कम से कम कक्षा आठ तक के लिए तो ऐसा अनिवार्यतः होना ही चाहिए. ग्रामीण पाठ्यक्रम और शहरी पाठ्यक्रम अलग-अलग होना चाहिए. पाठ्यक्रम में शामिल अध्ययन सामग्री का आधार उसका अपना परिवेष हो. यानी ग्रामीण पाठ्यक्रम में ग्रामीण परिवेश की अध्ययन सामग्री हो और शहरी पाठ्यक्रम में शहरी परिवेश की. उदाहरण आदि उसी परिवेश से लिए गए हों. उच्चतर कक्षाओं में दोनों तरह के पाठ्यक्रमों का मिश्रण होना उचित और उपयोगी होगा. शहरी बच्चे को ग्रामीण तथ्यों और जीवन की जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी और ग्रामीण बच्चों को शहरी.

खेत, फसल, चना, मसूर, अरहर, धान, हल, बैल, आंगन, मेढ़, खलिहान, पेज, भात, कोठार जैसे शब्दों का परिचय शहर में जगह बनाएगा और ब्रेकफास्ट, लंच, एक्जाम, टाई, मोबाइल, कम्प्यूटर, मम्मी-पापा जैसे शब्द गांव तक पहुंचेंगे. बीघा-एकड़, चैत-वैशाख, रोपाई-कटाई और ओला-पाला शहरों में तफरीह कर सकेंगे और मीटर-किलोमीटर, जेनुअरी-फेब्रुएरी, हार्वेस्टिंग, टेम्प्रेचर और फॉग जैसे शब्दों का सफर गांव की वीथियों तक हो सकेगा. आपसदारी बनेगी. दो भिन्न परिवेश एक-दूसरे के निकट आएंगे.

हमें परीक्षा प्रणाली पर भी पुनर्विचार करना होगा. रटे हुए को उगलवा लेना परीक्षा कैसे हो सकता है? साल भर के अध्यापन को तीन घंटे में वापस पा लेने का नज़रिया भी स्वस्थ नहीं हो सकता. आठ-दस प्रश्नों के उत्तरों से ही बच्चे की समग्र प्रतिभा और विद्वता की माप कैसे संभव है? और इससे भी बड़ी बात तो यह है कि उसके व्यक्तित्व और गुणों की माप तो यह परीक्षा पद्धति करती ही नहीं. बच्चे का सदव्यवहार, सहयोग-भावना, मैत्री, उदारता, सद्भाव, सहिष्णुता को भी तो उसकी योग्यताओं में शामिल करना होगा. अभी हमारा ध्यान उस तरफ नहीं है, जबकि यही उसकी परम योग्यताएं हैं. शिक्षा पूरी करने के बाद उसकी डिग्री और सर्टिफिकेट तो शायद एक बार ही काम आएंगे, परंतु उसके सज्जन-नागरिक होने के गुण, प्रतिदिन होने वाली आकस्मिक परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने में उसके मददगार होंगे. ये परीक्षाएं बिना पाठ्यक्रम, बिना पाठशाला और बिना अध्यापक वाली होती हैं. पहले से कुछ पता नहीं होता, एकाएक परीक्षा ही होती है. इसे ही जीवन कहते हैं.

हमने किताबी ज्ञान के अलावा बाकी सब कुछ भुला रखा है. ज़रूरत है समूची शिक्षा प्रणाली की समीक्षा करने की. पाठ्य पुस्तकों को नये और व्यवहारिक तरीके से लिखने की और मानवीय गुणों को भी रिपोर्ट कार्ड में दर्ज़ करने वाली सोच को अमली जामा पहनाने की.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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