पुस्तक मेलों को जरूरत है ‘ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल्स’ की


relevance of book fair in present time

 

बीसवीं शताब्दी के महानतम विचारकों में शामिल एंतोनियो ग्राम्शी ने कहा था कि किताबों के पास लोग नहीं जाते हैं तो किताब ही उनके पास चली जाए. वे इटली में 1927 में लगने वाले एक पुस्तक मेले का ज़िक्र करते हैं और बताते हैं कि इस मेले से लोगों को कई किस्म का लोकप्रिय साहित्य पढ़ने को मिल सकेगा. प्रथम विश्वयुद्ध और पूंजीवाद के अंदरूनी संकट के बीच ग्राम्शी एक ऐसी बौद्धिक संस्कृति की कल्पना कर रहे थे जिसमें मजदूर, किसान और परिधीय तबकों के लोग अपनी राजनीति विकसित कर सकें और वर्चस्व के निर्मिति की समझ विकसित कर सकें. इस काम में किताबों की बड़ी भूमिका होनी थी.

वास्तव में पुनर्जागरण के समय से ही किताबों को ही लक्ष्य करके यूरोप के शासकों ने लेखकों और प्रकाशकों पर प्रतिबंध लगाए क्योंकि अब किताबें छापना आसान हो गया था. अब राज्य और चर्च को चुनौती दी जा रही थी. यह राज्य और धर्म के नियंताओं को नागवार लगने वाली बात थी. बाद में आप हिटलर के समय के जर्मनी का इतिहास देखें तो पाएंगे कि किताबों और उनके बिकने की जगहों पर राज्य ने लगातार प्रतिबंध यों ही नहीं लगाया था.

जब यूरोप में प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार हुआ था तो धार्मिक किताबों के प्रकाशन से शुरू होकर यह लौकिक किताबों तक आ पहुंचा. इसने मनुष्य के दुःख-दर्द और उसकी महत्वाकांक्षाओं को सबके सामने उधेड़कर रख दिया. इसके पहले किताबों तक आम जन की पहुंच सीमित थी. केवल राजकीय स्तर पर नकलकार और सुलेखक होते थे जो महत्वपूर्ण किताबों की नकल उतारकर राजकीय और महत्वपूर्ण पुस्तकालयों में संरक्षित करते जाते थे.

यूरोप के आरंभिक विश्वविद्यालयों और भारत में उच्च शिक्षा के आरंभिक केन्द्रों जैसे तक्षशिला, नालंदा और वलभी में ऐसे ही पुस्तकालय थे. उत्तर भारत में यह भोजपत्र और दक्षिण भारत में ताम्रपत्र पर लिखी जाती थी. मध्यकाल में भारत में कागज़ के आगमन के साथ अभिव्यक्ति के दायरे का विस्तार तो हुआ लेकिन यह आम लोगों की पहुंच से बाहर ही रहा. यूरोपीय समुदायों के भारत में आगमन के साथ कागज आम प्रयोग की वस्तु बना. खूब किताबें छपनी शुरू हुईं और भारत ने एक नए वैचारिक जगत में प्रवेश किया.

धर्म और कर्मकांड के दायरे एवं वैज्ञानिक चेतना

किताबों को मानव मुक्ति और तार्किकता की भावना को बढ़ाने के साथ-साथ विज्ञान का प्रसार करने वाला माना जाता रहा है. कम से कम पुनर्जागरण और प्रबोधन के मूल्यों में विश्वास करने वाले लोग तो यही मानते रहे हैं. आधुनिक समय में जब भारत में किताबें छपनी शुरू हुईं तो मनुस्मृति, अभिज्ञानशाकुंतलम और महाभारत साथ-साथ में छपे.
किसी समाज को किताब एक ही समय कई दिशाओं में ले जाती हैं- प्रगति और प्रतिगामिता का रास्ता किताबों से होकर जा सकता है. यह दोनों बातें पाठक की सामाजिक भावभूमि, उसके सामाजिकीकरण और सांस्कृतिक अभिरुचियों पर निर्भर करती हैं.

हो सकता है कोई तर्कवादी जिसे कोई ऐरी-गैरी किताब मान मान रहा हो, वह किसी समाज के लिए एक जरूरी किताब हो. इसे कुछ इस तरह से देखने की कोशिश कीजिए-
कहा जा रहा है कि 2019 के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में धार्मिक पुस्तकों के स्टालों की संख्या कुछ ज्यादा ही दिखी है. क्या यह पहली बार हुआ है? नहीं. पहले भी धार्मिक पुस्तकों के स्टॉल आते थे लेकिन उनकी संख्या कम थी. इस बार इनकी संख्या ज्यादा दिखी. उनकी संख्या बढ़ने के दो कारण हैं- एक तो धर्म के कर्मकांडीय पक्ष का प्रदर्शन करने वाले भारतीय मध्य वर्ग का विकास हुआ है. पहले यह शहरी क्षेत्र की परिघटना मानी जाती थी, अब यह छोटे कस्बों और शहरों की ओर भी बढ़ रही है.

भारत मे साधु-संतों का शुरू से आदर होता रहा है. वे शक्ति केन्द्रों, राजा-महाराजाओं से जुड़े भी होते थे. अब उसमें चुनावी ताकत भी आ गई है. ऐसे साधु-संत अपने आपको भक्तों और अलग-अलग समुदायों तक पहुंचाने के लिए प्रचार सामग्री का निर्माण करते हैं. इसमें उनके जीवन चरित से लेकर उनकी शिक्षा और प्रवचन होते हैं. इसकी व्यापक शुरुआत ओशो रजनीश 1980 के मध्य में ही कर चुके थे जब उनकी किताबें रेलवे स्टेशनों के साथ-साथ इन पुस्तक मेलों के साथ घर-घर पहुंची.

2019 के पुस्तक मेले में यह प्रवृत्ति ज्यादा स्पष्टता से दिखी. इसमें शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी, श्रीराम शर्मा आचार्य का गायत्री परिवार भी शामिल हैं. बाइबिल, कुरान, गीता और हिंदू धर्म की व्यापक चौहद्दी से निकले विभिन्न पंथों का साहित्य, उनके संतों का जीवन चरित मुफ्त में बांटने वाले प्रकाशक भी पहुंचे थे. पहले यह अपने भक्तों को एक बृहद परिवार में तब्दील करते हैं, फिर वे ही इनके पाठक हो जाते हैं. उनके द्वारा वितरित साहित्य इन भक्तों के नैतिक और सामाजिक संकटों से उन्हें उबारने का प्रयास करता है. इसे भी ध्यान में रखना चाहिए. इन स्टालों पर उपस्थित पाठकों से बातचीत में तो यही बात पता चली.

इस सबके विरोध में नहीं, बल्कि ज्ञानोदय और वैज्ञानिक चेतना से संपन्न समाज के निर्माण का सपना आजादी के आंदोलन के दौरान सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, मेघनाद साहा और उनके साथियों ने देखा था. आज़ाद भारत में प्रदर्शनियों और पुस्तक मेलों में इस बात को बढ़ावा दिया गया.

दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में एकलव्य जैसे शिक्षा प्रसारक इसमें मौजूद थे. पेंग्विन ने तो पूरा एक खंड ही लोकप्रिय विज्ञान को समर्पित किया था. हिंदी में विज्ञान प्रसारक देबेन मेवाड़ी की किताबें विज्ञान की दुनिया और नाटक-नाटक में विज्ञान जैसी किफायती और सुंदर किताबें मौजूद थीं. नेशनल बुक ट्रस्ट सीएनआर राव की विज्ञान लोकप्रियकरण की किताबें लेकर आया था.

विकल्प की तलाश में

हां, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस पुस्तक मेले में छोटे स्टैंड लगाने वाले व्यक्तिगत प्रकाशक, संस्कृतिकर्मी और स्वयंसेवी संगठनों के लोग नहीं दिखे. इसका कारण पुस्तक मेला परिक्षेत्र में स्थान की कमी और उपलब्ध स्थान का महंगा होना रहा. फिर भी इसमें ‘संभव’ और ‘कामगार’ जैसे प्रकाशन आए थे. वहां लेनिन, भगत सिंह और मार्क्स की किताबें मिल रही थीं.

एक दूसरा मामला ‘संवाद प्रकाशन’ से समझा जा सकता है. यह प्रकाशन विश्व साहित्य की महान कृतियों के अनुवाद के साथ मार्क्सवादी और वैकल्पिक वैचारिक साहित्य प्रकाशित करता रहा है. इसके प्रकाशकों ने इस बार 100 से अधिक नई किताबें छापीं जिसमें नेहरू की जीवनी से लेकर नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकारों के अनुवाद शामिल हैं.

एक तीसरा मामला सम्यक प्रकाशन का है. सम्यक प्रकाशन ने विचार और बाजार दोनों को ध्यान में रखा. बाबासाहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के विचार और जीवन से उपजे आंदोलन और राजनीति को ध्यान में रखकर यह प्रकाशन अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों से संबंधित जातियों की इतिहास पुस्तिकाएं प्रकाशित करता है जो बेहद सस्ती हैं. इस प्रकाशन ने अब अपनी पहुंच बढ़ाई है और दलित प्रश्न पर प्रकाशित दूसरे प्रकाशनों से आई किताबों को जगह दी.

मुख्यधारा और विविधीकरण

अब आते हैं मुख्यधारा पर. मुख्यधारा की व्याख्या वास्तव में सत्ता की व्याख्या है. हिंदी में यदि आप राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन को मुखयधारा मान लें तो जितना यह दोनों प्रकाशन प्रकाशित कर रहे हैं, उसके आसपास हिंदी के छोटे प्रकाशक कहीं भी नहीं टिकते. उनके पास लेखक, समीक्षक और पाठक का बड़ा संजाल है. उनके पास एक बड़ा बाजार है. इस बाजार में छोटे प्रकाशन सेंध लगा रहे हैं. अंतिका और बोधि प्रकाशन ने भी एक पाठक और लेखक वर्ग विकसित कर लिया है.

उधर पूरी दुनिया मे फैला ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस हिंदी भाषा और बांग्ला में कुछ मौलिक और कुछ अनूदित किताबों के साथ मौजूद था. उसका स्टॉल भी वाणी और राजकमल के पास ही लगा था. यह केवल भौतिक मौजूदगी भर नहीं थी बल्कि भविष्य के संकेत भी छुपे थे इसमें. सेज जैसा प्रकाशक भी अब हिंदी में कुछ चुनिंदा अनुवादों के साथ मौजूद था.

अपनी शानदार विरासत के साथ नेशनल बुक ट्रस्ट आठवीं अनुसूची की भाषाओं के साथ मौजूद था. ऐसा ही साहित्य अकादमी के साथ है. सिंधी, उर्दू के कुछ सरकारी और कुछ निजी प्रकाशक मौजूद थे तो मैथिली मचान जैसा स्टॉल भी था जो अलग-अलग जगहों से प्रकाशित मैथिली लेखकों को एक जगह ले आया था.

फिर भी पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं के साहित्य की काफी कमी दिखी. दिल्ली मूलतः हिंदी भाषी है लेकिन यह उतना ही भारत के दूसरे भाषा-भाषी समूहों से मिलकर बना है. पुस्तक मेले में यह नहीं दिखा. इसे दिखना चाहिए था.

नया पाठक, बुद्धिजीवी और नए प्रकाशक

पिछले दो दशक में भारत मे नया पाठक वर्ग और नया बुद्धिजीवी वर्ग भी उभरा है. पाठकों की आवश्यकताओं के लिए अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषाओं में बाजार की समझ के हिसाब से कुछ न कुछ मौजूद था. यहां तक कि इस बार के पुस्तक मेले में नए प्रकार की हिंदी का एक स्टाल लगा था जिस पर युवा पाठकों का हुजूम लगा रहा. किसी शुद्धतावादी को नाक-भौं सिकोड़ने के पर्याप्त कारण हो सकते हैं लेकिन इसके प्रकाशकों ने अपना पाठक लक्षित कर लिया है. इसकी रुचि मुख्यधारा के हिंदी पाठकों से भिन्न है. वह यहीं आता है.

अंग्रेज़ी में यह बात थोड़ा पहले से शुरू है. चेतन भगत का उदाहरण सबके सामने है. चेतन भगत जैसे लेखक अब हर भारतीय भाषा में उभर रहे हैं. हिंदी में इनकी संख्या काफी है. जैसे-जैसे बिहार-झारखण्ड, उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड, मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ और राजस्थान में समृद्धि और साक्षरता बढ़ेगी, ऐसे लेखकों एवं प्रकाशकों की संख्या भी बढ़ेगी.

हम सब जानते हैं कि भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग मुख्य तौर पर विश्वविद्यालयी बुद्धिजीवी (एकेडमिक इंटेलेक्चुअल) है. जन-बुद्धिजीवी (ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल) कम हैं. जन से उनका जुड़ाव भी कम है. उन्हें काफी तेजी से आगे आकर जनता से सीधा संवाद करना होगा. पुस्तक मेले इसके लिए एक मुफ़ीद जगह हो सकते हैं. ग्राम्शी भी यही चाहते रहे होंगे.


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