कृष्णा सोबती: एक लम्बे आख्यान का संपूर्ण होना
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आखिर डार से बिछुड़ गईं कृष्णा जी. इस वक्त गहरी शिद्दत के साथ उन्हीं का एक वाक्य याद आ रहा है, “लेखक की एक जिन्दगी उसकी मौत के बाद शुरू होती है.”
लगता ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि कृष्णा जी आगे के कुछ दिनों में हमारे बीच नए सिरे से जिंदा होंगी. अभी तो लग रहा है जैसे एक लंबा उपन्यास पूर्णता को प्राप्त हो गया है. मेरे सामने ‘डार से बिछुड़ी’, ‘सूरजमुखी अंधेरे में’, ‘जिंदगीनामा’, ‘दिलो-दानिश’, ‘ऐ लड़की’ और ‘हम हशमत’ जैसे कालजयी उपन्यासों के पृष्ठ फड़फड़ा रहे हैं. कृष्णा जी जैसे अपने ही किरदारों में समा गईं हैं. वह एक लंबा अफसाना थीं. वह लगातार कहानी कह रही थीं और समय और समाज उन्हें सुन रहा था. हम हुंकारी भरते ही रह गए और हमारे अफसानानिगार को नींद आ गई. अभी हाल ही में मुक्तिबोध पर उनकी एक विलक्षण कृति प्रकाश में आई है जो इस बीहड़ कवि को समझने के लिए नए वातायन सी खोलती प्रतीत होती है.
याद आ रहा है, मेंहदौरी कॉलोनी, इलाहाबाद में उनका कथाकार दंपत्ति कालिया के घर आना. उन दिनों रवींद्र कालिया ‘गंगा-जमुना’ साप्ताहिक निकाला करते थे. आधी रात में फोन की घंटी बजी. हम यानी मैं और अनुज स्मृतिशेष वसु मालवीय भी मेंहदौरी कॉलोनी में ही रहते थे. कालिया जी ने कहा, “कृष्णा जी घर आई हुई हैं. तुम दोनों भाई आ जाओ और उनसे एक लंबा सा इंटरव्यू कर डालो. कल ही नया अंक फाइनल करना है. इस बार की हमारी अतिथि रहेंगी कृष्णा सोबती.”
और अगले ही क्षण हम कृष्णा जी के सामने थे, वसु ने पहला ही सवाल उनसे उनकी भाषा के विषय में पूछा. कृष्णा जी की आंखें चमक उठी थीं, उन्होंने कहा था, “मैं और निर्मल यानी निर्मल वर्मा इस मामले में पूरी तरह से एकमत रहे हैं. भाषा को तो शीशे की तरह बरतना पड़ता है. भाषा भी हमें रचती हैं. ‘ऐ लड़की’ में उस चरित्र का भयावह अकेलापन याद करिए. उसे पूरी तरह व्यक्त करने में भाषा भी कई बार पारे की तरह फिसल जा रही थी. लग रहा था कि हम कहानी नहीं कह रहे हैं. बल्कि चिलचिलाती धूप में पारा पकड़ रहे हैं. बावजूद इसके भाषा हमें कभी बियाबानों में नहीं छोड़ती, वह ‘बिटविन द लाइन्स’ भी होती है, वह हमारे मौन का भी साथ देती है.”
हमारे साथ बातचीत में शीर्ष कथा लेखिका ममता कालिया भी शामिल थीं. बीच-बीच में रवींद्र कालिया अपने खिलंदड़े अंदाज में उन्हें छेड़ भी रहे थे. कृष्णा जी लेखकों के हक़ में बड़ी शान से मुकदमें भी लड़ती थीं. नई रचनाशीलता के प्रति तो उनका गहरा लगाव था. उन्होंने वसु से कहा था कि समकालीनता की हमारे साहित्य जगत में सही व्याख्या नहीं हुई है. समकालीनता का वय या उम्र से कोई लेना देना नहीं है. समकालीन तो हम और आप भी हैं. यानी जो एक समय में लिख रहे हैं. वह आपस में समकालीन ही हुए. भले मेरी उम्र सत्तर है और आप अभी तीस के हैं.
‘हम हशमत’ में संस्मरण के गलियारों से गुजरते हुए जैसे वह चले हुए रस्ते पर ही फिर चलने लगती हैं. बीते हुए वक्त से भी बोल-बतिया लेतीं हैं. अपने आने वाली पीढ़ियों को उन्होंने हमेशा रोशनी दी. इसका ताजा उदाहरण है, रज़ा फाउन्डेशन के साथ मिलकर कृष्णा सोबती शिवनाथ फाउन्डेशन का नए रचनाकार को केंद्र में रखकर आयोजन का किया जाना. कवि अशोक वाजपेयी के साथ समझदारी के स्तर पर जुड़कर कृष्णा जी ही इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम को वैचारिक और आर्थिक आधार देती थीं.
कृष्णा जी कहा करती थीं, ”एक स्तर तक तो रचनाकार सृजन करता है और आगे चलकर रचना स्वयं रचनाकार को रचने लगती है. एक गहरी और भिन्न आस्वाद की रचना रच कर आप वही नहीं रह जाते जो सृजन से पहले थे. रचना आप को भी पहले से कुछ बेहतर आदमी बना देती है.”
कृष्णा जी बड़े नाजुक समय में हमें छोड़ कर चली गई हैं. वह सांप्रदायिकता के खिलाफ शेरनी की तरह दहाड़ा करती थीं. वह स्त्री-स्वाभिमान की मूर्त प्रतीक थीं. उनका स्त्री-विमर्श ओढ़ा हुआ नहीं था वरन् आत्म के अतल से आता था.
उस दिन रात देर तक इंटरव्यू देने के बाद भी कृष्णा जी अगले दिन नाश्ता करके संगम जाने को तैयार हो गईं थीं. बहुत देर तक गंगा-जमुना की जलधाराओं को डबडबाई आंखों से देखती रहीं थीं. लग रहा था, गंगा जमुना में लुप्त हुई सरस्वती ही साकार उजागर होकर लहरों को संस्कृति की तरफ मिलते देख रही हैं.
‘जिंदगीनामा’ की जिंदगी से लबरेज लेखिका पर मौत भी पर्दा नहीं डाल सकती.
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.