साबित हो गया कि बीजेपी के लिए शिक्षा का मुद्दा गैर-जरूरी है!


So now education has become an unnecessary issue in BJP manifesto sankalp patra

 

क्या बीजेपी के लिए शिक्षा कोई मुद्दा नहीं रह गया है? या मोदी सरकार में शिक्षा व्यवस्था की हालत को कुछ ऐसी हो चली है कि शिक्षा को लेकर किसी खास योजना की कोई दरकार नहीं है. या अब यह सवाल मामूली हो चला है कि शिक्षा पर बजट का कितना हिस्सा खर्च हो?

मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि 2019 लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी का घोषणा पत्र दुहराव भर है. सरकार तमाम फ्रंट पर नाकामयाब रही है और पुराने वादे के साथ चुनावी मैदान में है. लेकिन खास बात यह है कि शिक्षा के मुद्दे पर बीजेपी की दूरदर्शिता शून्य है. घोषणा पत्र में इस मुद्दे पर सत्ताधारी पार्टी बैक फुट पर जा चुकी है और उनका चिंतन अफसोस की हद तक है.

2019 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर शिक्षा को लेकर बीजेपी दूसरे राजनीतिक दलों के मुकाबले अपने वादे में भी काफी पीछे है. जहां कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में साफ तौर पर जीडीपी का छह फीसदी शिक्षा पर खर्च करने का वादा किया है वहीं बीजेपी के संकल्प पत्र में ऐसी किसी भी चर्चा का नामो-निशान नहीं है. सत्ताधारी पार्टी के दूसरे दावों के बीच शिक्षा का मुद्दा हाशिए पर है. हालांकि 2014 में मोदी लहर के साथ सरकार बनाने वाली बीजेपी ने जीडीपी का छह फीसदी शिक्षा पर खर्च करने का वादा किया था. आंकड़े गवाह हैं कि वो बस ‘अच्छे दिन’ का वादा था. मोदी सरकार के कार्यकाल में शिक्षा और शोध के क्षेत्र में दुर्दशा की हद तक कटौती की गई है.

वित्तीय वर्ष 2014-15 के केन्द्रीय बजट में शिक्षा की हिस्सेदारी जहां 4.66 फीसदी थी. वित्तीय वर्ष 2018-19 में घट कर 3.48 फीसदी तक आ गई. वित्तीय वर्ष में 2015-16 में शिक्षा बजट 3.88 फीसदी, 2016-17 में 3.65 फीसदी, 2017-18 में 3.7 फीसदी थी.

मोदी सरकार में शोध के क्षेत्र में भी फंड कटौती देखने को मिली. यूपीए सरकार के वक्त शोध पर जहां 0.8 फीसदी खर्च किया जा रहा था इस सरकार में यह घट कर 0.69 फीसदी तक आ गया.

स्कूली शिक्षा को लेकर बीजेपी का संकल्प क्या है?

संकल्प पत्र में स्कूली शिक्षा पर बीजेपी का स्टैंड है, “केन्द्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय अभी भी स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में आदर्श हैं, इसे ध्यान में रखते हुए हम 2024 तक ऐसे 200 स्कूल और खोलेंगे.”

जिस केन्द्रीय विद्यालय के विस्तार का वादा बीजेपी ने घोषणा पत्र में किया है, शिक्षा के क्षेत्र में नेहरू प्रोजेक्ट का हिस्सा है. इसकी शुरुआत 1963 में सेन्ट्रल स्कूल नाम से हुई थी. तब जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे. बाद में इसका नाम बदल कर केन्द्रीय विद्यालय कर दिया गया. नवोदय विद्यालय की नींव 1986 में राजीव गांधी ने डाली थी. 1986 की नई शिक्षा नीति के तहत खड़ा किए गए इस संस्थान का मकसद सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना और ग्रामीण भारत को शिक्षित करना था. दुर्भाग्य से मोदी सरकार में सामाजिक न्याय का यह ताना-बाना क्षत-विक्षत हुआ है.

सामाजिक न्याय के जिस मकसद के साथ नवोदय विद्यालय अस्तित्व में आया था, मोदी सरकार के दौरान दुर्गति की ओर बढ़ा है. इस विद्यालय से आने वाले आंकड़ें दलित-आदिवासी उत्पीड़न की कहानी बता रहे हैं. 2013 से लेकर 2017 के बीच नवोदय विद्यालय में पढ़ने वाले 49 छात्रों ने आत्महत्या की है. इनमें 16 छात्र अनुसूचित जाति और नौ छात्र अनुसूचित जनजाति के थे. इस तरह आत्महत्या को अंजाम देने वाले 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे दलित-आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते थे. सवाल यह भी उठता है कि आत्महत्या करने वाले बच्चों में दलित-आदिवासी दूसरे समुदाय के अनुपात में ज्यादा क्यों हैं?

प्रस्तावित नवोदय विद्यालय का हश्र

साल 2016 में मोदी सरकार ने 62 नए नवोदय विद्यालय खोलने की घोषणा की थी. लेकिन केन्द्र सरकार अब तक इस योजना को धरातल पर नहीं ला सकी है. चार फरवरी 2019 को लोकसभा में नए नवोदय विद्यालय की स्थिति को लेकर पूछे गए प्रश्न पर मानव संसाधन विकास मंत्री ने सदन को बताया, “नवोदय विद्यालय का विस्तार एक ऐसी प्रक्रिया का हिस्सा है जिसमें राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश की इच्छा शक्ति शामिल होती है. यह फंड की उपल्बध्ता पर भी निर्भर होता है. सरकार के पास देश के हर एक जिले में एक नए नवोदय विद्यालय खोलने की योजना है.”

मानव संसाधन विकास मंत्री के इस जवाब से यह जाहिर होता है कि प्रस्तावित 62 नए नवोदय विद्यालय को अब तक कोई अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है. अभी तक सरकार की योजना का हिस्सा मात्र है. यह शिक्षा को लेकर मोदी सरकार का गैर-जिम्मेदाराना रवैया और गंभीरता की कमी जाहिर करता है.

नई शिक्षा नीति का दावा हवा-हवाई

2014 में बीजेपी कांग्रेस की सरकार पर आक्रामक तरीके से हावी होते हुए सत्ता पर काबिज हुई थी. तब घोषणा पत्र में शिक्षा को लेकर भी बड़ी-बड़ी बातें कही गई थीं. इसमें नई शिक्षा नीति लाने की योजना भी शामिल थी. बीजेपी ने कहा था, “बीजेपी शिक्षा पर एक राष्ट्रीय आयोग स्थापित करेगी, जो शिक्षा की हालत और आवश्यक सुधारों पर दो वर्ष के अंदर अपनी रिपोर्ट देगा. इस रिपोर्ट के आधार पर, बीजेपी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा, नए प्रयोगों और शोध के संदर्भ में जनता की बदलती जरूरतों के अनुरूप एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति तैयार करेगी.”

हालांकि मोदी सरकार इसके लिए दो कमिटी का गठन और सवा लाख लोगों से बातचीत का दावा भी करती आ रही है. लेकिन इसके बावजूद नई शिक्षा नीति का धरातल पर कहीं अता-पता नहीं है. जून 2017 में मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने नई शिक्षा नीति को लेकर इसरो के भूतपूर्व चेयरमैन के कस्तुरीरंगन की अध्यक्षता में एक आठ सदस्यीय कमिटी की घोषणा की थी. इस कमिटी को तैयार करने के लिए छह महीने का वक्त दिया गया था.

अगस्त 2018 में चौथी दफा रिपोर्ट जमा करने की तारीख आगे बढ़ा कर 31 अक्टूबर कर दिया गया. हालत यह है कि ये रिपोर्ट अब तक जमा नहीं की जा सकी है. इससे पहले सरकार ने टीआरएस सुब्रमण्यम की सिफारिशों को नकार दिया था. टीआरएस सुब्रमण्यम ने अपनी सिफारिश में जोड़ दिया था कि शिक्षा पर जीडीपी का छह फीसदी खर्च होना चाहिए. हालांकि बीजेपी ने यही वादा 2014 के घोषणा पत्र में भी किया था.

जानकार बताते हैं कि बीजेपी की नई शिक्षा नीति का वादा प्रतिगामी विचारधारा और निजीकरण को बढ़ावा देने वाला था और किसी भी सूरत में देश हित में नहीं था. इसमें संस्थानों की स्वायत्तता छीन लेने की नीति शामिल थी. बीते पांच साल की मोदी सरकार इसकी गवाह भी है.

खैर मोदी सरकार सरकार दूसरे वादे की तरह नई शिक्षा नीति को लेकर भी नाकामयाब रही है. अब हालत यह है कि बीजेपी अपने संकल्प पक्ष में भी इस योजना को नकार चुकी है. विकास का दावा ठोकने वाली पार्टी इस फ्रंट पर भी पूरी तरह विफल साबित हुई. पांच साल के अन्दर छात्रों की बढ़ती नाराजगी बताती है कि सरकार का रवैया संस्थानों की स्वातंत्रता और लोकतांत्रिक मुल्यों के खिलाफ रहा है.

किसी भी देश की जनता के लिए बेहतर शिक्षा उसका बुनियादी हक होता है. लेकिन जब सरकार चलाने वाले या उसका दावा रखने वाले प्रगतिशील और सजग नजरिया नहीं रखते तो उन पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो उठता है. सत्ताधारी पार्टी का संकल्प पत्र भी इस बात की तस्दीक करता हुआ जान पड़ता है.


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