मोदी सरकार की नीतियों का खामियाजा


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मध्य प्रदेश में अपने पहले कार्यकाल में शिवराज सिंह चौहान सरकार ने अपनी छवि किसान समर्थक की बनाई. ये धारणा बनी या बनाई गई कि शिवराज सरकार ने राज्य में कृषि का कायापलट कर दिया है. उसके कार्यकाल में मध्य प्रदेश को पांच बार कृषि कर्मण पुरस्कार मिले.

लेकिन 2017 में यही राज्य किसान आंदोलनों का केंद्र बन गया. पिछले साल जून में मंदसौर में हुई पुलिस फायरिंग के बाद ही किसान आंदोलनों का मौजूदा दौर आया. इसकी सबसे बड़ी वजह थी कृषि उपज के दामों में भारी गिरावट. शिवराज सिंह ने समाधान ढूंढने की कोशिश में भावांतर भुगतान योजना लागू की, लेकिन वह किसानों को राहत देने में नाकाम साबित हुई.

अगर इस पूरे घटनाक्रम की तह में जाकर देखें तो साफ होगा कि मध्य प्रदेश में पैदा हुई इस समस्या का कारण शिवराज सिंह सरकार के फैसले या नीतियां कम और केंद्र सरकार की नीतियां अधिक थीं. किसानों को पहला झटका नरेंद्र मोदी सरकार के केंद्र की सत्ता में आने के बाद लगा, जब मोदी सरकार ने कृषि पैदावार पर बोनस देने से मना कर दिया.

इससे देश के बाकी हिस्सों के साथ-साथ मध्य प्रदेश के किसानों को भी वह प्रोत्साहन मिलना बंद हो गया, जो केंद्र की नीतियों की वजह से शिवराज सिंह सरकार दे पाती थी. मोदी सरकार ने मुद्रास्फीति को काबू रखने की अपनी नीति के तहत कृषि उपज के लिए तय होने वाले एमएसपी को लगभग फ्रीज कर दिया. इससे भी किसान प्रभावित हुए.

और जब आठ नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी लागू की, तो उससे पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था ठप हो गई. उससे किसानों की कमर ही टूट गई. 2017 में उठे किसान आंदोलन के पीछे असली वजह इसी हालत को माना गया. यहां ये तथ्य गौरतलब है कि मध्य प्रदेश की लगभग 70 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है.

इस बीच प्रधानमंत्री मोदी किसानों की आमदनी दोगुना करने के वादे जोर-शोर से करते रहे. एमएसपी को स्वामीनाथन आयोग के मुताबिक कर देने का दावा किया गया, जो किसानों के गले नहीं उतरा. इसलिए यह असल में स्वामीनाथन फॉर्मूले यानी सी-2 के मुताबिक नहीं था. ऐसे दावों से किसानों का असंतोष और भड़का.

जानकारों के मुताबिक भारत में कृषि अब आत्म-निर्भर या अलग-थलग व्यवसाय नहीं है. खेती अब बाजार से जुड़ गई है. किसान अब नकदी फसलों (कैश क्रॉप) की खेती में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. मकसद उन्हें बाजार में बेचना होता है.

एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक कृषि आधारित घरानों की 48 फीसदी आमदनी फसलों की बिक्री पर निर्भर है. फिर पिछले तीन दशकों में बड़ी संख्या में गांवों के लोग रोजगार के लिए शहरों में आए हैं. वहां होने वाली कमाई ग्रामीण परिवारों के उपभोग के स्तर के लिए बेहद जरूरी हो गई है. इस मोर्चे पर मोदी सरकार पूरी तरह नाकाम रही है. उसने किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाने के खूब दावे किए हैं, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं हुआ है.

फिर नोटबंदी और जीएसटी पर खराब अमल ने एक तरफ कृषि बाजारों को प्रभावित किया, तो दूसरी तरफ शहरों में कामधंधा चौपट हुआ जिस कारण लोग गांव लौटने पर मजबूर हुए.

इन सबका ठीकरा प्रदेश सरकारों पर फूटा. छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी बीजेपी की हार के पीछे कृषि एवं ग्रामीण संकट एक बड़ा कारण रहा है. किसान असंतोष से जनादेश का स्वरूप तय होने के संकेत तेलंगाना में भी तलाशे जा सकते हैं. वहां मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की सरकार ने किसानों के लिए निश्चित आमदनी सुनिश्चित करने की योजना इस साल के आरंभ में लागू की. साथ ही रैयतबंधु जैसी योजनाएं भी चलाईं.

यह माना जा रहा है कि उनकी विशाल जीत सुनिश्चित करने में इन योजनाओं की बड़ी भूमिका रही है.

तो न सिर्फ नरेंद्र मोदी सरकार, बल्कि तमाम राजनीतिक दलों को ताजा चुनाव नतीजों से यह सबक लेना चाहिए कि किसान और ग्रामीण संकट का विमर्श अब सियासी भविष्य तय करने लगा है. इस तथ्य को पार्टियां सिर्फ अपने नुकसान की कीमत पर नजरअंदाज कर सकती हैं.