रेपो रेट में कमी का दांव उल्टा पड़ सकता है


Fiscal and current account deficit increase, balance of payments weakened

 

तमाम खींचतान के बाद केंद्रीय रिजर्व बैंक ने आखिरकार रेपो रेट में 25 आधार अंक की कमी कर दी है. सरकार लंबे समय इसकी मांग कर रही थी, लेकिन रघुराम राजन के दौर से ही आरबीआई इसे कम ना करने की बात पर अड़ी थी. एक ओर जहां सरकार नियंत्रित मंहगाई का हवाला दे रही थी, वहीं दूसरी ओर आरबीआई लंबे दौर की अर्थव्यस्था में इसके बुरे परिणामों के चलते ऐसा करने से मना कर रही थी.

अब आरबीआई के नए गवर्नर शक्तिकांत दास की अध्यक्षता में गठित मौद्रिक नीति समीक्षा समिति ने इसमें 25 आधार अंकों की कमी करने का फैसला किया है. अब नई रेपो दर 6.25 के हिसाब से लागू होगी. इस फैसले पर समिति ने 4-2 के अंतर से अपनी मुहर लगाई.

आरबीआई की समिति ने अपनी समीक्षा में कहा है कि अब समय आ गया है कि हम नीतिगत परिवर्तन करें. आरबीआई ने कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को ध्यान में रखकर ऐसा कदम उठाने की बात कही है. इसमें कुछ तर्कों की हम यहां चर्चा कर रहे हैं.

2018-19 के लिए जारी अग्रिम अनुमानों के मुताबिक स्थाई पूंजी निर्माण में तो बढ़त देखी गई है, लेकिन खपत के स्तर पर कमी का संकेत दिया गया है. इस दौरान निर्यात में भी कमी का अनुमान लगाया गया है.

निवेश की मांग को दर्शाने वाले संकेत जैसे उत्पादन और पूंजीगत वस्तुओं का आयात बीते नवंबर-दिसंबर में संकुचित हुआ है. इस दौरान उद्योगों में होने वाले निवेश में भी कमी नजर आई है. आंकड़े ये भी दिखाते हैं कि तीसरी तिमाही में सरकार का राजस्व खर्च भी कम ही रहा है, लेकिन ऐसा तब है जब इसमें से ब्याज देयता और सब्सिडी को घटा दें.

इस पूर्व अनुमान में आपूर्ति पक्ष की ओर से जीवीए (सकल मूल्य संवर्धन) 7 फीसदी के स्तर पर रखा गया है, जो कि 2017-18 में 6.9 फीसद से अधिक है. इसमें कृषि क्षेत्र में गिरावट का अनुमान है जबकि औद्योगिक क्षेत्र में बढ़त के संकेत हैं. इस दौरान सेवा क्षेत्र में जीवीए का कम रहने का अंदाजा लगाया गया है. सरकारी प्रबंधन वाले क्षेत्रों में भी औसत जीवीए के संकेत दिए जा रहे हैं.

कृषि क्षेत्र में रबी फसल की बुआई (एक फरवरी 2019 तक) बीते साल की तुलना में कम हुई है. लेकिन सत्र के अंत तक इसमें चार फीसदी तक की गिरावट का अनुमान लगाया जा रहा है.

रबी फसल की कम बुआई उत्तर-पूर्वी मानसून में कमी को दिखा रही है. हालांकि सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता में बीते साल की अपेक्षा अधिक रही है. इस दौरान गेहूं की फसल के लिए अनुकूल मौसम होने के चलते अच्छी पैदावार का अंदाजा लगाया जा रहा है. इसकी वजह से इसकी आपूर्ति में कमी नहीं होने की बात कही गई है. लेकिन ये सिर्फ अनुमान हैं, फसल तैयार होने में अभी समय है.

रिजर्व बैंक का अपना सर्वे कहता है कि तीसरी तिमाही के लिए उत्पादन के क्षेत्र में मांग के कम रहने के आसार हैं. चौथी तिमाही में इसमें कुछ सुधार का अनुमान है. सेवा क्षेत्र की ग्रोथ भी औसत रहने का अंदाजा है. बीते दिसंबर महीने में टैक्टर और मोटर बाइक की बिक्री में कमी देखी गई है. यह ग्रामीण क्षेत्र में मांग में कमी को दर्शाता है.

शहरी क्षेत्रों में भी कार, बाइक जैसे ऑटोमोबाइल क्षेत्र में संकुचन देखा गया. इस पर तेल की बढ़ती कीमतों का असर भी रहा.

खुदरा क्षेत्र में महंगाई का स्तर काफी नीचे रहा. दिसबंर महीने के दौरान ये बीते 18 महीनों में सबसे निचले स्तर पर रहा. इस खाद्य पदार्थों के मूल्यों में भी काफी कमी दर्ज की गई. इससे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में गिरावट का दौर रहा.

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में बीते दिसंबर में गिरावट दर्ज की गई इसका कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में कमी के चलते भी हुआ. आगे चलकर इसका स्थिर रहना जरूरी नहीं है. ऐसे में बाजार में महंगाई का स्तर बढ़ सकता है.

इस दौरान कृषि क्षेत्र और साथ ही औद्योगिक क्षेत्र में लागत में बढ़त दर्ज की गई.

आरबीआई ने अपनी समीक्षा में रेपो दर को कम करने के लिए जिन कारणों का हवाला दिया है वो स्थाई नहीं कहे जा सकते. आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में खुद माना है कि बीते कुछ समय से अमेरिका, यूरोप सहित सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में औद्योगिक गतिविधियां सुस्त हैं. हालांकि एशिया की बड़ी अर्थव्यवस्था जापान में सुधार के संकेत हैं. चीन और रूस में भी कुछ ऐसे ही हालात हैं. ऐसे में निर्यात बढ़ाने के लिए कर्ज सस्ता करना स्थाई उपाय नहीं हो सकता.

आरबीआई का रेपो रेट कम करके निवेश बढ़ाने का दांव उल्टा भी पड़ सकता है. ये कदम उसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के निर्धारित लक्ष्य से भटका सकता है. जिससे मुद्रास्फीति की स्थिति पैदा हो सकती है. इसका सबसे बड़ा नुकसान निम्न मध्य वर्ग को पहुंचेगा.


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