जातिवाद वहाँ, सांप्रदायिकता यहाँ, लेकिन हमारा भी दिन आएगा

सात दशक से अधिक समय से मैं जिस दुनिया में रह रही हूँ, वो तब तक असमान रूप से संतुलित रही, जब तक कि एक विशाल विपत्ति, एक बड़ी यातना के रूप में हमारे ऊपर नहीं आ गई।


जातिवाद वहाँ, सांप्रदायिकता यहाँ, लेकिन हमारा भी दिन आएगा

  Nonprofit Quarterly

सर्दियों की एक साफ़ सुबह। मैं अपने काम पर जा रही थी. बहुत सावधानी से गाड़ी चला रही थी. क्योंकि पिछली रात को जो भारी बर्फबारी हुई थी, वो अब तक सड़कों से साफ नहीं हुई थी। यह कनाडा में एक ख़ास प्रेयरी की सर्दियों की सुबह थी. जब चमकदार सूरज को देख कर कोई भी यह धोखे में पड़ जाता है कि बाहर की दुनिया भी उतनी ही गर्म है जितनी कार के विंडशील्ड के अंदर से दिखाई देती है। यह 1974 था। मैं अल्बर्टा विश्वविद्यालय में एक सेशनल लेकचरर थी, जहां मेरे पति वाणिज्य संकाय में प्रोफेसर थे। उस दुनिया ने हमें हर अच्छी चीज़ें मुहैया थीं. हमने अपना पहला घर और दूसरी कार खरीदी थी।

अचानक, कार एक तरफ झुक गई और पहियों के नीचे ढीली बर्फ छा गई। मैंने ब्रेक पर कदम रखा। कार रुक गई और मैंने देखा कि यह एक स्कूल के सामने है। साइन बोर्ड पर स्कूल का नाम ‘हैरी आइनेले हाई स्कूल’ लिखा था। मैं यहां से कई बार गुज़री थी. इसलिए मैं इस जगह से बा ख़बर थी। मैं गाड़ी से बाहर निकली, कंपकपाती प्रैयरी की हवा के खिलाफ मैंने अपने ओवरकोट को कसकर लपेट दिया। कुछ छात्र बाहर खड़े थे. 15 या 16 साल के लड़के और लड़कियाँ। ठंड से बेखबर हो खाने-पीने और धूम्रपान में मशग़ूल थे। उन दिनों मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे. इसलिए मैं अपने पति को फोन करने के लिए सड़क के किनारे फोन बूथ की तलाश में इधर-उधर देखा। कोई भी वहाँ नहीं दिख रहा था।

मैं यह बताना भूल गई कि जिस कार को मैं चला रही थी, वो एक सेकंड हैंड ‘कैडिलैक’ थी. जिसे एक दोस्त ने हमें ट्रायल रन के लिए दिया था। यह हरे रंग का था,और इसमें एक अच्छा म्यूज़िक सिस्टम भी था। दक्षिण एशिया के अधिकांश प्रवासियों की तरह, मैं भी उस समय मेहदी हसन की ग़ज़लों को सुनते हुए,और घर के ‘महफ़िल’ के बारे में सोचते हुए, प्रेयरी की सर्दियों की कठिन परिस्थिति में ड्राइविंग के हालात से जूझ रही थी।

मुझे नहीं पता कि यह मेरा नकली फर का कोट या सेकेंड हैण्ड ‘कैडिलैक’ था, जिसने उनका ध्यान आकर्षित किया। मैंने देखा कि लड़के-लड़कियों का एक झुंड सीधे मुझे देख रहा है। मेरे लिए 15-16 साल के स्कूली बच्चों से डरने की कोई वजह नहीं थी. इसलिए मैंने उनसे मुस्कुराते हुए पूछा कि क्या अंदर कोई फोन बूथ है जिसका मैं उपयोग कर सकती हूं। मेरा ये एक वाक्य मेरे लिए तूफ़ान खड़ा कर दिया। किसी ने चिल्लाया,’तुम पाकी को धिक्कार हो. वापस जाओ’। पूरा ग्रुप इन सब का आनंद ले रहा था. और दोहरा रहा था। अचानक, मैंने पाया कि वे मेरे ऊपर और कार पर सिक्के उछाल रहे थे। ‘ये पैसे ले लो और वापस जाओ’। फिर उन्होंने सैंडविच और मफिन के बचे हुए हिस्से मेरी तरफ उछाले। एक बौछार की तरह, ये सारी चीज़ें मुझपर और मेरी कार के ऊपर और बोनट पर गिरे। ‘तुम वापस क्यों नहीं गए, तुमपर धिक्कार है!’ अब तक मैं अपना साहस खो चुकी थी.और अपने ठंढ से जमे हुए चेहरे पर आँसुओं की गर्मी महसूस कर रही थी।

उसके बाद क्या हुआ, और मुझे कैसे बचाया गया, यहां ये बताने की जरूरत नहीं है। यह मेरे आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को पहला झटका था, जिसके साथ मैंने पश्चिमी कनाडा के सभी सफेद, रूढ़िवादी हिस्से में प्रवेश किया था। इस घटना और इसके परिणाम के बाद, मैंने वहाँ उपयोगी और चुनौतीपूर्ण काम करते हुए और दस साल वहाँ बिताने थे. लेकिन तब तक निराशा और मोहभंग के बीज मेरे गहरे और जमे हुए उदास मन में पड़ चुके थे। 1984 में, मैंने वापस ‘घर’ का रुख़ किया जैसे कि प्राकृतिक सुख की ओर।

1974 के कनाडा में, मेरी गर्दन को नौ मिनट के लिए एक पुलिसकर्मी के घुटने के नीचे नहीं दबाया गया था। मुझे “आसानी से” छोड़ दिया गया, बस तंग कर के। मैं एक “पाकी” थी, जो सफेद उत्तरी अमेरिका के एक उच्च-वर्ग के पड़ोस के एक हाई स्कूल के किशोरों का लक्ष्य थी। लेकिन ये वो क्षण था जब मैंने पहली बार व्यवस्थित,सुनियोजित और प्रणालीगत, नस्लभेद का सामना किया था।

2020 में भी उत्तरी अमेरिका की कहानी अलग नहीं है। भारत भी उस मामले में अलग नहीं है। मुझ जैसे लोग प्रताड़ना करने वालों के लक्ष्य हैं। हममें से कुछ प्रताड़ित हैं और लिंच हुए हैं; हमारे घरों को जला दिया जाता है, हमारे युवाओं को काले कानून के तहत मुजरिम क़रार दिया जाता है। तो जो था वो अब भी है, अंतर सिर्फ तीव्रता का है। सात दशक से अधिक समय से मैं जिस दुनिया में रह रही हूँ, वो तब तक असमान रूप से संतुलित रही, जब तक कि एक विशाल विपत्ति, एक बड़ी यातना के रूप में हमारे ऊपर नहीं आ गई।

इस महीने, हम महान फिल्मी शख़्सियत ख्वाजा अहमद अब्बास की 106 वीं वर्षगांठ को याद कर रहे हैं, एक ऐसा आदमी जिसने भारत में मौजूदा परिस्थितियों की भविष्यवाणी 1940 के दशक में ‘इप्टा’ के बैनर के तहत निर्मित पहले यथार्थवादी क्लासिक फिल्म ‘धरती के लाल’ के माध्यम से की थी। हम सभी ब्लैक,ब्राउन और सबाल्टर्न के लिए उनके मित्र प्रेम धवन द्वारा लिखित 1957 की फिल्म ‘राही’ (असम के चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों) के एक गाने के बोल उम्मीद की किरण की तरह है जिसे मार्टिन लूथर किंग जूनियर अपने अमर शब्दों में कहा है कि ‘मेरा एक सपना है’.

जुल्म ढा ले तू सितम ढा ले
हमारे भी तो दिन हैं आने वाले
लगाए जा तू कोड़े हमें तन तन के
हर एक घाव बोलेगा जुबां बन के
लबों पे लगेंगे कब तलक ताले
हमारे भी तो दिन हैं आने वाले

डॉ. सैयदा हमीद लेखिका और समृद्ध भारत फाउंडेशन के ट्रस्टी हैं । रेयाज़ अहमद मुस्लिम विमेंस फ़ोरम के फ़ेलो हैं।


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