अकादमिक आज़ादी और विचारशील लोकतंत्र का प्रश्न

भारत में घटते लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ विश्वविद्यालयों के भीतर विचार -विमर्श की घटती जगह , न सिर्फ अधिकारों का मसला है, बल्कि किसी भी संविधानिक लोकतंत्र के नींव पर सवालिया निशान खड़ा करता है।


 

आज़ादी इंसानी जीवन के शब्दकोष का ऐसा शब्द है जो दुनिया के हर भौगोलिक क्षेत्र में हर मनुष्य के लिए समान महत्त्व रखता है। भारत में “आज़ादी” के नारे के सन्दर्भ में मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय अपनी किताब ‘आज़ादी’ में लिखती हैं- “आज़ादी! आज़ादी!” का नारा उर्दू का नारा है, असल में यह फ़ारसी का नारा है, और शायद ईरान की क्रांति से शुरू होकर यह पूरब की तरफ आया और कश्मीरी आज़ादी के संघर्ष और, विडम्बनाओं में भी भारी विडंबना देखिये, भारत में महिला आंदोलन की पहचान बन गया। नारीवादी कार्यकर्त्ता कमला भसीन इस सम्बन्ध में याद करते हुए कहती हैं कि 1991 में जाधवपुर यूनिवर्सिटी के महिला शिक्षा समागम में आज़ादी का नारा कुछ इस प्रकार था- “मेरी बहनें मांगे आज़ादी, मेरी बेटियां मांगे आज़ादी, हर महिला मांगे आज़ादी”। आज़ादी के कई रूपों नागरिक आज़ादी, महिला आज़ादी, सांस्कृतिक एवं धार्मिक आज़ादी में से एक महत्वपूर्ण आज़ादी है “अकादमिक आज़ादी”। इस लेख में मैं अकादमिक आज़ादी के प्रश्न को देखूंगा साथ ही किसी भी विचारशील लोकतंत्र में इसके महत्त्व एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों पर इसके प्रभाव की पड़ताल करूंगा।

15 जनवरी को भारत सरकार के शिक्षा विभाग के अपर सचिव, एक कार्यकारी आदेश में देश भर के विश्वविद्यालयों को निर्देशित करते हैं कि विदेश मंत्रालय के अनुमति के बिना वे किसी भी अंतर्राष्ट्रीय समागम, गोष्ठी, या सेमिनार का आयोजन नहीं करेंगे। कुछ जन-विद्वान एवं टिप्पणीकार इसे अकादमिक आज़ादी पर पाबन्दी के रूप में भी देख रहे हैं।हालांकि लगभग एक महीने के बाद ही सरकार ने अपने इस कार्यकारी आदेश को वापस ले लिया। बीते दिनों जाने माने राजनीतिशास्त्री एवं टिप्पणीकार प्रोफेसर प्रताप भानु मेहता एवं अर्थशाष्त्री अरविन्द सुब्रह्मण्यम के इस्तीफे तक यह हमला नहीं रुकता । पिछले 31 जुलाई को मध्यप्रदेश के हरिसिंह गौर यूनिवर्सिटी ने सत्तारूढ़ पार्टी के छात्र संगठन आखिर भारतीय विद्यार्थी परिषद की शिकायत पर एक वेबिनार को कैंसिल करते हुए यह तर्क दिया – शिक्षा मंत्रालय के अनुमति के बिना यह कार्यक्रम नहीं हो सकता। गौरतलब है की इससे पहले सागर एसपी विश्वविद्यालय के कुलपति को खत लिखकर यह कहते हैं- की जिस विषय या विचार पर बात होनी है उस पर पहले सहमति होना जरुरी है। यह भारतीय लोकतंत्र में असहमति के जगह पर सवाल तो खड़ा करता ही है साथ में अकादमिक आज़ादी की मौजूदा स्थिति को भी बयां करता है।

अकादमिक आज़ादी एवं क़ानूनी ढांचा
इससे पहले हम अकादमिक आज़ादी और उसके क़ानूनी ढांचे के प्रश्न पर जाए यह समझना जरुरी है कि अकादमिक आज़ादी क्या है? एवं इसे किस रूप में परिभाषित किया गया है? वी डेम इंस्टिट्यूट अकादमिक आज़ादी को इन पैमाने के आधार पर परिभाषित करती है – i) शोध और पढ़ाने के अधिकार ii) अकादमिक आदान-प्रदान और प्रसार के अधिकार iii) संस्थागत आज़ादी iv) परिसर की अखंडता v) अकादमिक एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के अधिकार। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट कहता है कि, “अकादमिक आज़ादी का मतलब है कि एक विश्वविद्यालय अपने-आप को इन अकादमिक आधारों पर आत्म-निश्चित कर सकता है- जैसे i) कौन पढ़ा सकता है? ii) क्या पढ़ाया जा सकता है? iii) किसे पढ़ाया जा सकता है? iv) किस तरीके से पढ़ाया जा सकता है?” मौलिक अधिकारों के अकादमिक आज़ादी के रिश्ते पर कानूनविद ए जी नूरानी कहते हैं– कानून से बने एक संस्था के रूप में हमारे विश्वविद्यालय, अनुच्छेद 12 के अंतर्गत राज्य की परिभाषा में आते हैं इसलिए मौलिक अधिकारों को समर्पित पूरा चैप्टर किसी भी सूरत में इन पर लागू होता है। कुछ देश इसे संवैधानिकअधिकार के रूप में बेहद स्पष्ट रूप से पहचान देता है जैसे कि फ़िनलैंड के संविधान के धारा 123 – जो यह कहता है कि विश्वविद्यालय स्व – शासित संस्था है। यह विस्तृत रूप से अधिनियम में बताया गया है।यूरोपियन यूनियन के सन्दर्भ में मौलिक अधिकारों के चार्टर अनुच्छेद 13 में अकादमिक आज़ादी का ज़िक्र किया गया है। यह अनुच्छेद कहता है कि कला और वैज्ञानिक अनुसंधान बाधा से मुक्त होंगे एवं शैक्षणिक स्वतंत्रता का सम्मान किया जाएगा। अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी ढांचों में भी अकादमिक आज़ादी के क़ानूनी प्रावधानों का जिक्र है।

नागरिक तथा राजनैतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय नियम(इंटरनेशनल कोवेनेंट ऑफ़ सिविल एन्ड पोलिटिकल राइट) के अनुच्छेद 13 एवं 15 अकादमिक आज़ादी के अधिकारों की बात करता है। भारत इसके हस्ताक्षर देशों में से एक है।

शैक्षणिक संस्थान लोकतान्त्रिक परख, एवं जानने का अधिकार
संवैधानिक लोकतंत्र को मजबूत करने तथा लोकतान्त्रिक अधिकारों को सजग करने में महत्वपूर्ण भूमिका शैक्षणिक संस्थान निभाते हैं। विश्वविद्यालय “ज्ञान” को सार्वजनिक संपत्ति के रूप में देखते हैं , जिसे समूचे मानव समाज द्वारा, समान रूप से सहेजा, एवं प्रयोग में लाया जा सकता है। इसलिए शिक्षण संस्थानों की आज़ादी पर किसी किस्म की पाबन्दी, मेरे विचार से, सार्वजानिक अधिकारों पर एक तरीके से बाधा जैसी है । ये शैक्षणिक संस्थान जैसा कि अमेरिकी संविधान विशेषज्ञ प्रोफेसर मार्क टशनट लिखते हैं कि – ये लोकतंत्र बचाने वाली संस्था हैं जिसे वो चौथे श्रेणी में रखते हैं। इन संस्थानों का काम कक्षा की चारदीवारी से वैज्ञानिक प्रवृत्ति, ज्ञान के प्रचार – प्रसार एवं लोकतंत्र के संवर्धन में भी होता है। इसका सम्बन्ध लोगो के जानने के अधिकार से भी है जिसे दुनिया भर के संविधान ने अपने प्रावधानों में शामिल किया है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने एसपी गुप्ता बनाम भारत सरकार के केस में यह माना की जानने का अधिकार न सिर्फ अभिव्यक्ति एवं अभिभाषण के अधिकार से जुड़ा है बल्कि जीवन के अधिकार से भी जुड़ा है।

एक विचारशील लोकतंत्र जो बुनियादी तौर पर अपने लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करना चाहता है, उसे विश्वविद्यालयों को पर्याप्त स्थान देना होगा ताकि वाद- विवाद एवं विचार- विमर्श के जरिये एक व्यापक सोच को जन्म दिया जा सके, जो नागरिकों की भूमिका को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भी बढ़ा सके। प्रोफेसर एड्रिएन स्टोन इस सम्बन्ध में लिखती हैं – “विश्वविद्यालयी शिक्षा का मकसद बुद्धिमत्ता को विकसित करना, छात्रों में न्याय, एवं मूल्यों को विकसित करना है, जिसकी उपलब्धि, अधिक व्यावहारिक-सामाजिक लाभ को सुनिश्चित करना है। परंपरागत तौर पर अकादमिक संस्थानों की समझ इस रूप में की जाती थी वहाँ छात्र सिर्फ अकादमिक विषयों पर ध्यान देते हैं, जिसका सामाजिक सरोकारों से कोई रिश्ता नहीं है ,लेकिन बदलते वक़्त में कैंपस के मायने भी बदल रहे हैं। टैगोर लिखते हैं– शैक्षणिक संस्थान एक मृत पिंजरा नहीं हो सकता जहाँ जीवित दिमाग को कृत्रिम खाना दिया जा सके. ये विचार विमर्श और प्रतिवाद का जगह है।

राजेश रंजन राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय जोधपुर के छात्र हैं। संविधानिक साक्षरता और प्रतिनिधित्व के मुद्दे को लेकर काम कर रहे हैं।


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