बिहार की राजनीति में अपना कद तलाशते उपेंद्र कुशवाहा


Importance of upendra kushuwaha in bihar politics

 

केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बड़ा भाई मानते हैं और राजद सुप्रीमो लालू यादव नीतीश कुमार को छोटा भाई. हाल के दिनों में इस रिश्तेदारी की चर्चा सबसे ज्यादा कुशवाहा ने ही की है. कौन ‘बड़ा भाई’ है और कौन ‘छोटा भाई’, यह दावा इस साल जून में शुरू हुआ था. तब बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल यूनाइटेड (जदयू) की ओर से कहा गया था कि राज्य में वह बड़े भाई की भूमिका में ही रहेगा. जदयू का बयान आगामी लोकसभा चुनाव में ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटें हासिल करने के लिए दबाव बनाने की रणनीति के तौर पर देखा गया था.

बीजेपी और जदयू के बीच के इस खींचतान पर पर्दा 26 अक्टूबर को तब गिरा जब दोनों दलों के राष्ट्रीय अध्यक्षों यानी अमित शाह और नीतीश कुमार ने दिल्ली में एक संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि 2019 के आम चुनाव में दोनों दल बिहार में बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. इस दौरान अमित शाह ने यह भी कहा कि जब कुछ नए साथी जुड़ेंगे तो निश्चित तौर पर गठबंधन के सभी पुराने दलों की सीटों में कुछ कमी आएगी.

इस ऐलान से बिहार एनडीए का एक दूसरा घोषित ‘छोटा भाई’ नाराज़ हो गया. इस घोषणा के थोड़ी ही देर बाद बिहार के अरवल शहर में उपेन्द्र कुशवाहा ने राजद नेता तेजस्वी यादव से मुलाकात की और बिना कुछ कहे अपनी नाराजगी बीजेपी तक पहुंचा दी.

कुशवाहा की यह नाराजगी अब तक ख़त्म नहीं हुई है और एनडीए में सीट बंटवारे को लेकर खींचतान जारी है. इसे दूर करने के लिए उपेन्द्र कुशवाहा ने बीजेपी को 30 नवम्बर तक का वक़्त यह कहते हुए दिया है कि इस दौरान वह सम्मानजनक सीट बंटवारे का फार्मूला पेश करें. उधर बीजेपी ने इशारों में ही सही, लेकिन ये साफ कर दिया है कि वह उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को दो सीट से ज्यादा सीट नहीं मिलने वाली. जबकि उपेन्द्र कुशवाहा तीन से ज्यादा सीटों पर लड़ने की ख्वाहिश सार्वजनिक रूप से जता रहे हैं.

कुशवाहा के अंतर्द्वंद

17 नवंबर की रालोसपा की जिस बैठक के बाद उपेन्द्र कुशवाहा ने बीजेपी को अल्टीमेटम दिया उसी बैठक में “बिहार का सीएम कैसा हो, उपेन्द्र कुशवाहा जैसा हो”. नारा भी लगा दिया गया. खैर रालोसपा में तो ऐसे नारे लगाते रहे हैं. उपेन्द्र कुशवाहा भी इस पद के लिए अप्रत्यक्ष रूप से अपनी उम्मीदवारी जताते रहते हैं. एनडीए में रहते हुए वो कहते हैं कि 2020 के बाद नीतीश कुमार खुद मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते. महागठबंधन के बारे में उनकी राय है कि लालू यादव इतिहास और तेजस्वी ट्रेनी हैं.

यह भी कहा जाता है कि उन्होंने कुशवाहा समाज,  (यादव के बाद बिहार का सबसे ज्यादा आबादी वाला जातीय समूह) में शीर्ष पद के लिए एक उत्तेजना पैदा कर दी है. इसी उत्तेजना को और बढाने के लिए अब वो लगभग हर मंच से ये आरोप लगा रहे हैं कि नीतीश कुमार ने उनके लिए नीच शब्द का इस्तेमाल किया. जमीनी स्थिति चाहे जो हो लेकिन कुशवाहा इसी उत्तेजना को समेटने के लिए मंच की तलाश में हैं. शायद यही वजह की वह एनडीए में रहते हुए भी सामाजिक न्याय की बात भी जोर-शोर से करते हैं.

नीतीश की वापसी से कुशवाहा का कद घटा

उपेंद्र कुशवाहा आज कुशवाहा समाज में अपनी जिस स्वीकार्यता का दावा हैं वह 2015 के विधानसभा चुनाव में नहीं दिखी थी. तब उनकी पार्टी ने 25 विधानसभा सीट पर चुनाव लड़कर महज़ 2 सीट पर जीत हासिल कर पाई थी. इसकी एक वजह ये भी बताई जाती है कि सामाजिक और राजनीतिक रूप से यह समाज बहुत प्रबुद्ध है और आमतौर पर प्रगतिशील ताकतों के साथ खड़ा होता है.

दूसरी ओर बीते एक दशक से ज्यादा समय से भाजपा ने भी कुशवाहा सहित समाज के हर वर्ग के बीच काम किया है. कुशवाहा समाज से आने वाले अपने नेता रामदेव महतो और सम्राट अशोक की जयंती भाजपा जोर-शोर से मनाती रही है. अपनी इस गोलबंदी के साथ-साथ अब नीतीश कुमार के फिर से साथ आने के बाद भाजपा को लगता है कि कुशवाहा समाज का वोट पाने के लिए उसे उपेन्द्र कुशवाहा की जरुरत नहीं रही.

वहीं नीतीश कुमार को लगता है कि कुशवाहा समुदाय सहित गैर-यादव पिछड़ी जातियों के अब भी वही सर्वमान्य नेता हैं. यह बात समय के साथ कुछ मौकों पर साबित भी हुई है. गौरतलब है कि नीतीश ने लालू से अलग होकर जब राजनीति शुरू की थी तब उनका मुख्य सामाजिक आधार लव-कुश यानी कि कुर्मी और कोइरी (कुशवाहा) समूह ही था.

ऐसे में उपेन्द्र कुशवाहा की 2014 के मुकाबले ज्यादा सीटों पर लड़ने की ख्वाहिश राजद की अगुवाई वाले महागठबंधन में पूरी हो सकती है. राजद सहित महागठबंधन के सभी दल उन्हें एनडीए से बाहर निकालकर अपने साथ आने का निमंत्रण भी दे रहे हैं. इसके पीछे वोटों का समीकरण यह है कि महागठबंधन के मुताबिक नीतीश के अलग होने के बाद उसके सामाजिक आधार में जो कमी आई है रालोसपा उसकी भरपाई कर सकती है. नीतीश के महागठबंधन से अलग होने के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को अपने पाले में लाकर राजद पहले ही एक ऐसी सफल कोशिश कर चुका है.

विधानसभा चुनाव के बाद तय होगा बंटवारे का फार्मूला

बिहार एनडीए में चार दल हैं. केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के अगुवाई वाला चौथा दल लोजपा भी अमित शाह के इस ऐलान से इत्तेफाक नहीं रखता कि सभी पुराने दलों की सीटों में कुछ कमी की जाएगी. लेकिन उसके तेवर तल्ख़ नहीं है. बीमार चल रहे रामविलास पासवान ने एनडीए में सीट-बंटवारे पर बातचीत के लिए अपनी पार्टी से संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष चिराग पासवान और लोजपा के प्रदेश अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस को अधिकृत किया है. चिराग रामविलास के बेटे तो पशुपति कुमार उनके भाई हैं.

चिराग एक तरफ उपेन्द्र कुशवाहा को सार्वजनिक बयान नहीं देने की सलाह दे रहे हैं तो दूसरी ओर जल्द-से-जल्द सीट बंटवारे को अंतिम रूप देने की मांग भी कर रहे हैं. जबकि बिहार सरकार में मंत्री पशुपति कुमार पारस हाल के दिनों में कई बार यह मांग करते रहे हैं कि 2014 में पार्टी ने जितनी सीटों पर चुनाव लड़ा था, उन्हें कम-से-कम उतनी सीटें इस बार भी मिलें. 2014 में लोजपा ने सात सीटों पर चुनाव लड़ा था और छह पर जीत दर्ज की थी.

उपेन्द्र कुशवाहा क्या फैसला लेंगे यह उनके ही कहे मुताबिक 6 दिसंबर को साफ़ हो जाएगा. चार से छह दिसम्बर के बीच रालोसपा कार्यकारिणी की बैठक बिहार के बाल्मीकि नगर में हो रही है. कुशवाहा ने कहा है कि 30 नवम्बर तक के अल्टीमेटम पर बीजेपी का जो जवाब आएगा उस पर पार्टी इस कार्यकारिणी बैठक में चर्चा कर एनडीए में बने रहने पर फैसला करेगी.

हालांकि राजनीतिक गलियारों में एक चर्चा यह भी है कि बिहार एनडीए में सीट बंटवारे पर अब अंतिम फैसला 11 दिसम्बर के बाद ही होगा. इसी दिन पांच विधानसभा चुनावों के नतीज़े आएंगे. माना जा रहा है कि अगर बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा रहा तो वह अपने सहयोगी दलों की मांगों से सामने नहीं झुकेगी. वहीं लोजपा और रालोसपा जैसे दल अब इस इंतज़ार में हैं कि अगर कहीं भाजपा का प्रदर्शन बुरा रहा तो वे उसकी कमजोर स्थिति का हवाला देकर उससे ज्यादा-से-ज्यादा सीट झटक पाएंगे. रालोसपा और लोजपा का मानना है कि कमजोर भाजपा अपने सहयोगी दलों को नाराज करने का खतरा नहीं उठाएगी.


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