अपने-अपने ‘भारत रत्न’


relevance of bharat ratna award is in suspicion

 

हाल के वर्षों, बल्कि पिछले लगभग तीन दशक का अनुभव यही है कि भारत में अभी राष्ट्रवाद का सवाल अनसुलझा है. भारतीय राष्ट्र क्या है? इस पर सर्व-सम्मति नहीं है. जब तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे संबंधित भारतीय जनता पार्टी कमजोर हैसियत में थी, यह मुद्दा बहुत अहम नहीं था. मगर बीजेपी के देश का प्रमुख राजनीतिक ध्रुव बनने के बाद स्थिति बदल गई है. नतीजतन, राष्ट्र, राष्ट्र-नायकों और देश रत्नों के बारे में दृष्टिकोणों का संघर्ष तीखा हो गया है.

आजादी की लड़ाई के दौरान उभरे भारतीय राष्ट्रवाद को संघ परिवार ने कभी स्वीकार नहीं किया. स्वाभाविक ही है कि उस राष्ट्रवाद के नायकों को भी उसने कभी दिल से मंजूर नहीं किया. इसीलिए अक्सर यह जाहिर होता रहता है कि गांधी और अंबेडकर जैसी शख्सियतों के प्रति संघ परिवार की श्रद्धा दिखावटी है. दूसरी तरफ संघ परिवार के जो नायक हैं, उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद में यकीन करने वाले लोग संकीर्ण, प्रतिगामी, सांप्रदायिक विभाजन करने वाले और कुछ मामलों में राष्ट्र-द्रोही भी मानते हैं. नजरिए की यह खाई इतनी चौड़ी है कि इसके बीच कोई पुल बना पाना लगभग नामुमकिन मालूम पड़ता है.

इसीलिए जब ‘भारत रत्न’ जैसे सम्मान की बात आती है, तो विचारों और भावना का संघर्ष छिड़ जाता है. सोशल मीडिया के दौर में इस संघर्ष को अभिव्यक्ति देने के मंच उपलब्ध हैं. ऐसे में अक्सर कुछ शख्सियतों का सम्मान बढ़ने के बजाय उनके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणियों की बाढ़ आ जाती है. इसे समझा भी जा सकता है. अतीत में जिन अनेक शख्सियतों को इस सम्मान से नवाजा गया, संघ परिवार उनके प्रति आदर का भाव नहीं रखता. उसी तरह भारतीय राष्ट्रवाद में यकीन करने वाले लोगों के लिए नानाजी देशमुख या अटल बिहारी वाजपेयी के लिए श्रद्धा का भाव अपना पाना संभावनाओं के दायरे से बाहर लगता है. इसीलिए विचारों की लड़ाई छिड़ जाती है. आगे चल कर किसी बीजेपी सरकार ने विनायक दामोदर सावरकर या केशव बलिराम हेडगेवार अथवा माधव सदाशिव गोलवलकर को ‘भारत रत्न’ घोषित किया, तो उस पर छिड़ने वाले भीषण वैचारिक संग्राम का अनुमान लगाया जा सकता है.

बीजेपी के लिए उन लोगों को सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित करना बेशक आस्था का प्रश्न होगा. जब वह जनादेश पाकर सत्ता में आती है, तो उसकी सरकार के लिए ऐसे फैसले लेना उचित ही समझा जाएगा. मगर जिन लोगों का वह चयन करती है, उनको लेकर दूसरे समूहों में विरोध भाव होना भी उतना ही लाजिमी है.

इसलिए ये तर्क इस वक़्त प्रासंगिक लगता है कि आने वाले समय में देश में कोई धर्मनिरपेक्ष सरकार बनती है, तो उसे ‘भारत रत्न’ और पद्म पुरस्कारों को समाप्त करने का निर्णय लेना चाहिए. यह बड़ी अजीब बात है कि जवाहर लाल नेहरू और नानाजी देशमुख के नाम एक ही सम्मान से सम्मानित हुए लोगों में शामिल रहे. ये दोनों राष्ट्र और मानवता के बारे में परस्पर विरोधी विश्व दृष्टियों की नुमाइंदगी करते हैं.

वैसे भी यह साफ है कि ऐसे पुरस्कार सत्ता में आई पार्टी अपनी विचारधारा संबंधी प्राथमिकताओं से तय करती है. वरना, किसी कम्युनिस्ट नेता, ई.वी.रामास्वामी नायकर पेरियार, सी.एन.अन्ना दुरई या आधुनिक भारत में राजनीति का अनूठा प्रयोग करने वाले कांशीराम जैसे व्यक्तियों को किस आधार पर अब तक यह सम्मान नहीं मिला? इसके विपरीत राजनीतिक (यानी वोट के) मकसदों से यह सम्मान देने की शुरुआत बहुत पहले हो गई थी. उसकी एक मिसाल एमजी रामचंद्रन को यह सम्मान देना था.

यह बहस का दूसरा मुद्दा है कि क्या देश या समाज हित में परित्याग और उसके हित में कोई बड़ा योगदान इस सम्मान की कसौटी है? या किसी भी क्षेत्र में उपलब्धि हासिल करना? अगर उपलब्धि हासिल करना कसौटी है, तो फिर उपलब्धि को मापने का मानदंड क्या होना चाहिए? ये सवाल 2014 में भी उठे थे, जब तत्कालीन यूपीए सरकार ने सचिन तेंदुलकर को ‘भारत रत्न’ दिया था. सचिन की उपलब्धियों से किसी को इनकार नहीं था. लेकिन अलग-अलग खेल और यहां तक कि क्रिकेट में भी दूसरे कई नामों की उपलब्धियों को इस लायक क्यों नहीं समझा गया, यह प्रश्न उठा था?

तब शिकायत की गई थी कि यूपीए सरकार ने ऐसा वोट को ध्यान में रख कर किया. अब चर्चा है कि ऐसे ही मकसद से भूपेन हजारिका को सम्मानित किया गया है. ऐसी चर्चाओं के कारण यह सम्मान बदनाम हुआ है. जबकि अलग-अलग राष्ट्रवाद के प्रतिनिधि व्यक्तित्व को लेकर आकलन और आपत्तियों का संदर्भ इससे अलग और कहीं ज्यादा बड़ा है. इन सब को ध्यान में रखते हुए इस पुरस्कार की प्रासंगिकता लगातार संदिग्ध होती जा रही है. ऐसे में इस पर विराम लगा देना एक सही कदम माना जाएगा.


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