पूर्व सैन्य अधिकारियों के पत्र को फर्जी बताने का दांव पड़ा उल्टा


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कल जब 150 से अधिक पूर्व सैन्य अधिकारियों द्वारा सेना के राजनीतिकरण के खिलाफ राष्ट्रपति को लिखा गया पत्र सार्वजनिक हुआ तो इसे सहज ही देश के मौजूदा राजनीतिक सन्दर्भ से जोड़कर देखा गया.

बीते दिनों जिस तरह स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सरकार के शीर्ष नेताओं ने सेना की शहादत के नाम पर लोगों से वोट डालने की अपील की, उसे देखते हुए यह कोई बहुत अप्रत्याशित भी नहीं था. कांग्रेस ने इस पत्र का सन्दर्भ लेकर बीजेपी सरकार पर हमला बोला और जब लग रहा था कि इस पत्र के चलते केंद्र सरकार रक्षात्मक हो सकती है, तभी दो पूर्व सैन्य अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने ऐसी किसी अपील का समर्थन नहीं किया है. खंडन करने वालों में पूर्व सेना प्रमुख एस. एफ. रोड्रिगेज और  पूर्व वायु सेना प्रमुख एन. सी. सूरी शामिल थे.

इसके बाद इस पत्र में उठाया गया सेना के राजनीतिकरण का मुद्दा कहीं पीछे छूट गया और सारी बहस इस बात पर केन्द्रित हो गई कि इस पत्र की विश्वसनीयता कितनी है. रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने एक कदम आगे जाकर इस पत्र को ‘फर्जी’ बता दिया और कहा कि राष्ट्रपति भवन को ऐसा कोई भी पत्र नहीं मिला है.

वहीं, पत्र की विश्वसनीयता खतरे में पड़ता देख कुछ पूर्व सैन्य अधिकारियों ने साफ़ किया कि वे इस पत्र में कही हुई बातों पर पूरी तरह कायम हैं. उन्होंने इस पत्र के फर्जी होने की संभावनाओं को दरकिनार करते हुए जोड़ा कि ये पत्र उन्होंने ही लिखा है. उन्होंने ट्वीट कर चेताया कि पत्र की विश्वसनीयता को मुद्दा बनाकर मूल मुद्दे से ध्यान भटकाया जा रहा है.

जाहिर है कि पत्र भेजने वाले बहुत से अधिकारियों ने शुक्रवार शाम होते-होते अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया था.  पत्र में हस्ताक्षर करने वाले सेवानिवृत्त एयर वाइस-मार्शल कपिल काक ने अंग्रेजी अखबार दि टेलीग्राफ से कहा, “मैं राष्ट्रपति को भेजे गए पत्र के प्रत्येक शब्द पर कायम हूं. हम देख रहे हैं कि सत्ताधारी पार्टी सेना समेत देश के हर संस्थान को खत्म करने में जुटी हुई है. हम मानते हैं कि लोकसभा चुनाव में सेना के बेशर्मी से किए जा रहे राजनीतिकरण के खिलाफ बोलना हमारा कर्तव्य है. इसलिए हमने राष्ट्रपति को पत्र लिखा. हमारे पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं था”

काक ने इस बात पर भी आश्चर्य जताया कि राष्ट्रपति भवन को ई-मेल से भेजा गया यह पत्र अब तक क्यों नहीं मिला. राष्ट्रपति भवन ने शुक्रवार देर रात तक इस पत्र को मिलने की कोई पुष्टि नहीं की थी. बातचीत में उन्होंने रक्षा मंत्री को भी आड़े हाथों लिया. उन्होंने कहा कि रक्षा मंत्री सरकार की भूमिका का मूल्यांकन करने के बजाय इस मामले को बेवजह राजनीतिक रंग दे रही हैं. सच तो ये है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में सेना का राजनीतिकरण अभूतपूर्व स्तर पर हुआ है.

संभव है कि केंद्र सरकार अब भी पत्र की विश्वसनीयता को मुद्दा बनाकर पूर्व सैन्य अधिकारियों की चिंताओं की उपेक्षा करे. उसके पास इसके सिवाय कोई चारा भी नहीं है. सरकार जानती है कि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी और उसके नेताओं ने खुले आम लोगों से सेना की शहादत के नाम पर वोट करने की अपील की है. ऐसे में उसके लिए सबसे मुफीद नीति इस मुद्दे से ध्यान भटकाना ही है. हालांकि तमाम कोशिशों के बाद भी वह इसमें सफल होती नहीं दिख रही है.


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