दूध उत्पादकों को बर्बाद कर सकता है मुक्त व्यापार समझौता


RCEP can destroy 15 million small farmers and traders

 

भारत के डेयरी उद्योग में 15 करोड़ से अधिक किसान, स्थानीय को-ऑपरेटिव कर्मी और वेंडर जुड़े हैं. भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है और यहां सबसे ज्यादा दूध की खपत भी होती है. भारत के छोटे किसानों ने देश को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया है. डेयरी उद्योग लाखों भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसानों के लिए आजीविका का मुख्य स्रोत है. बड़ी संख्या में मजदूर दूध के संग्रहण, प्रसंस्करण और बिक्री में रोजगार पाते हैं.

भारत में दूध या दुग्ध उत्पाद का मामूली रूप से आयात और निर्यात होता है. लेकिन प्रस्तावित रिजनल कॉम्प्रीहेन्सिव इकॉनोमिक पार्टनरशिप(आरसीईपी) की वजह से छोटे दूध उत्पादकों पर खतरा मंडराने लगा है. फिलहाल दूध या उसके उत्पादों पर 30 से 60 फीसदी आयात कर लगाकर आयात को नियंत्रित किया जाता है.

भारत ने अबतक मुख्य डेयरी उत्पादक देशों और उनके समूहों जैसे कि न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और यूरोपीय यूनियन देशों के साथ द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) नहीं किए हैं. लेकिन इसके लिए भारत पर अमेरिका सहित यूरोपीय देशों का जबरदस्त दबाव बना हुआ है.

आरसीईपी जैसे मुक्त व्यापार समझौते 15 करोड़ छोटे किसानों और कारोबारियों को तबाह कर सकता है. यूरोपीय दूध और उसके उत्पाद भारतीय दूध के मुकाबले काफी सस्ते होते हैं. ऐसे में मुक्त व्यापार से भारतीय किसानों और को-ऑपरेटिव डेयरी कंपनियों का विदेशी कंपनियों से प्रतियोगिता करना मुश्किल हो जाएगा.

आरसीईपी और अन्य मुक्त व्यापार समझौतों की वजह से बड़ी संख्या में किसानों के हित प्रभावित हो सकते हैं. क्योंकि समझौते के तहत भारतीय डेयरी सहकारी संस्थाओं(को-ऑपरेटिव) और किसानों को सरकार अलग से कोई भी सुविधाएं नहीं दे पाएगी.

बड़े उपभोक्ता वर्ग होने की वजह से भारत के बाजार पर यूरोपीय देशों के दूध उत्पादक कंपनियों की नजर पिछले सात साल से है. यूरोप के देश अपने अतिरिक्त दूध के उत्पादों को भारत में खपाना चाहते हैं.  दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादक ‘फोन्टेरा’ के एक बयान से इस बात की झलक मिलती है, “भारत का आयातक बनना हमारे लिए सबसे बड़ा अवसर हो सकता है.”

हालांकि किसान संगठन और जानकार भारत के बाजार को विदेशी उत्पादकों के लिए खोलने को सही नहीं मानते हैं. सीपीएम नेता, अजीत नवाले ने महाराष्ट्र में एक प्रदर्शन में कहा था, “किसान परिवार को एक छोटा डेयरी फार्म स्थापित करने में कई पीढ़ियां लगी हैं लेकिन सरकार आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर करके भारतीय डेयरी सेक्टर को तहस-नहस करके उन्हें बर्बाद कर देगी.”

भारत में ज्यादातर दूध उत्पादक किसान दो से तीन गाय पालते हैं. पोषक आहार के अभाव में यहां प्रति मवेशी औसतन प्रति दिन तीन लीटर दूध देती हैं. जबकि पश्चिमी देशों में प्रति मवेशी प्रति दिन 30 लीटर दूध देती हैं. इसके बावजूद भारत में प्रति व्यक्ति दूध की खपत साल 1950 की तुलना में 130 ग्राम से बढ़कर 2018 में 374 ग्राम हो चुकी है. यह दूध के वैश्विक खपत 294 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन से ज्यादा है.

भारत में उत्पादित आधे दूध की खपत या तो उत्पादक करते हैं या इसे स्थानीय बाजार में सीधे उपभोक्ताओं को बेचते है. जबकि उत्पादित आधे दूध को ही कंपनियों के माध्यम से खुले बाजार में बेचा जाता है. एक अनुमान के मुताबिक 70 फीसदी रकम दूग्ध उत्पादकों को सीधे उपभोक्ता से मिलता है. इसके बावजूद भारत में प्रतिवर्ष दूध का कारोबार 10 हजार करोड़ डॉलर का है.

इसके साथ ही भारत में दूध के कारोबार से जुड़ी को-ऑपरेटिव सोसाइटी या कंपनियों में किसानों की हिस्सेदारी 80 फीसदी तक है. आज भारत में एक लाख 86 हजार गांवों के स्तर पर चलने वाले दूध के कारोबार से जुड़े को-ऑपरेटिव सोसाइटी से 170 लाख किसान जुड़े हैं. इनमें 32 हजार को-ऑपरेटिव का नेतृत्व महिलाएं करती हैं.

इसके साथ ही दूध प्रसंस्करण और कारोबार से लाखों लोगों की आजीविका चलती है जिन्हें आम तौर पर ‘गैर-संगठित क्षेत्र’ कहा जाता है. यह 80 फीसदी दूध उत्पादों का कारोबार करता है. यह प्राइवेट सेक्टर और को-ऑपरेटिव का दोगुना है.

साल 1991 के बाद दुग्ध के कारोबार से जुड़ी विदेशी कंपनियों को भारत में आने की सीमित अनुमति मिली. वह स्थानीय डेयरी कंपनियों के साथ साझा कारोबार कर सकते थे या फिर उनका अधिग्रहण कर सकते थे. लेकिन इसके परिणाम किसानों के हित में नहीं रहे हैं.

प्राइवेट कंपनियों का ध्यान ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाने पर होता है और वह प्रतिकूल परिस्थिति होने पर किसानों का साथ छोड़ देते हैं या उन्हें कम कीमत पर दूध बेचने के लिए मजबूत करती हैं. जबकि को-ऑपरेटिव डेयरी कंपनियां किसानों के साथ अपने फायदे को साझा करती हैं और घाटा होने की स्थिति में भी किसानों का साथ नहीं छोड़ती हैं.

मुक्त व्यापार में केवल पश्चिम के दुग्ध उत्पादक देशों को ही फायदा होते दिखता है. भारत के किसानों के लिए वैश्विक बाजार खुलने की संभावन न के बराबर है. ज्यादा संभावना है कि भारत के दूध और उसके उत्पादों को ‘शुद्धता’ की कसौटी पर यूरोपीय देशों में निर्यात करने से रोक दिया जाए.

हालांकि पश्चिमी देशों की बड़ी डेयरी कंपनियां भी संदेहों के घेरे में रही हैं. चीन और न्यूजीलैंड के ज्वाईंट वेंचर सान्लू फोन्टेरा के उत्पादों में मेलामाइन की अत्यधिक मात्रा की वजह से चीन में तीन लाख छोटे बच्चे बीमार हो गए और उनमें से छह बच्चों की मौत किडनी खराब होने से हो गई थी.

फ्रांस में डेयरी कंपनी लैकटेलिस के द्वारा किसानों के शोषण की कई खबरें आई हैं. फ्रांस में डेयरी से जुड़े किसानों की आत्महत्या की दर सामान्य लोगों की तुलना में दोगुना है. इसके संयंत्रों में साल 2017 में खतरनाक सालमोनेला के जीवाणु पाए गए. जिसकी वजह से दर्जनों बच्चे बीमार पड़ गए.

भारत की ओर से आयात टैरिफ में ढील मिलने पर दुग्ध उत्पादक देशों ने इसका जमकर फायदा उठाया है और इसकी वजह से यहां की को-ऑपरेटिव डेयरी कंपनियों को आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. को-ऑपरेटिव डेयरी कंपनी अमूल के मुताबिक 1500 टन मट्ठा पाउडर देश में आयातित होने की वजह से उन्हें सस्ते दाम पर स्टॉक को बेचने पर मजबूर होना पड़ा क्योंकि आयातित दुग्ध उत्पाद भारत में बने उत्पादों की तुलना में सस्ते होते हैं.

ज्यादातर यूरोपीय देशों में गाय को मांस मिश्रित चारा दिया जाता है. भारत इसकी वजह से यहां के उत्पादों के आयात से परहेज रखता रहा है.

पाकिस्तान और चीन में मुक्त व्यापार समझौते के बाद वहां के डेयरी कारोबार को नुकसान पहुंचा है. आशंका है कि पाकिस्तान की तरह ही भारत में भी आरसीईपी या ईयू-भारत मुक्त व्यापार समझौता होने के बाद यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की डेयरी कंपनियां भारत से दूध खरीदने की बजाय दूध के पाउडर का आयात करना शुरू कर देंगी.

वहीं, चीन में साल 2008 में न्यूजीलैंड के साथ मुक्त व्यापार समझौता होने के बाद वहां डेयरी उद्योग का विकास 25 फीसदी से घटकर दो फीसदी रह गया.

मुक्त व्यापार समझौते के तहत यूरोपीय यूनियन यूरोप में विकसित 130 डेयरी प्रोडक्ट पर अपना दावा कर सकती हैं. वहीं, भारत की कंपनियों को पेटेंट उत्पादों को बेचने की अनुमति नहीं होने के कारण वह पिछड़ सकती हैं.


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