साल 2019 का चुनाव भारत की ‘आत्मा’ का संघर्ष: दि इकॉनोमिस्ट
साल 2019 में दुनिया भारत की ओर जिन वजहों से देख रही है, उनमें देश में होने वाला 17 वां आम चुनाव सबसे ऊपर है. अब से कुछ महीनों बाद ही इस चुनाव सरगर्मी देश में तेज हो जाएगी. जाहिर है कि इस चुनाव में एक बार फिर भारत को उन मूल्यों की कसौटी पर कसा जाएगा जो देश ने अपने छह दशक से भी अधिक पुराने लोकतांत्रिक प्रयोग से हासिल किए हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए के सत्ता में आने के बाद भारत की उदार लोकतांत्रिक छवि को जो धक्का पहुंचा है, उसे देखते हुए ये माना जा रहा है कि 2019 का आम चुनाव भारत के लोकतांत्रिक प्रयोग की परीक्षा भी है. दि इकॉनोमिस्ट पत्रिका ने अपने वार्षिक अंक ‘दि वर्ल्ड इन 2019’ में इस आम चुनाव को भारत की ‘आत्मा’ की परीक्षा कहा है.
साल 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन एक विशेष परिस्थिति में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आया था. उसने कारपोरेट जगत में नरेंद्र मोदी की अभूतपूर्व स्वीकार्यता और यूपीए के शासन में नीतिगत निरकुंशता के चलते पैदा हुए असंतोष का फायदा उठाकर चुनाव लड़ा. उसे इसमें आशातीत सफलता मिली.
इसलिए यह स्वभाविक ही था कि चुनाव के बाद कारपोरेट जगत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उग्र ढंग से मुक्त-बाजार की आर्थिक नीतियों को लागू करने और उनमें राज्य के हस्तक्षेप को कम करने की आशा लगाई. लेकिन बीते साढ़े चार सालों में कॉरपोरेट जगत का हिस्सा न सिर्फ नरेंद्र मोदी से मायूस हुआ, बल्कि देश की उदार छवि भी अल्पसंखयकों और कमजोर तबकों पर हुए हमले से खराब हुई. साल 2019 के आम चुनाव से पहले यह धारणा जोर पकड़ रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कारपोरेट जगत की उम्मीदों को पूरा नहीं कर सके हैं.
पत्रिका ने नरेंद्र मोदी के घटते हुए राजनीतिक प्रभाव पर लिखा है, “अपनी पूर्व सरकारों के शासन के खिलाफ असंतोष पैदा कर उसे भुनाने की रणनीति अब काम नहीं कर रही है. नरेंद्र मोदी का जादू कम हुआ है.” पत्रिका का मानना है कि साल 2016 में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लिया गया नोटबंदी का निर्णय, अनावश्यक रूप से जटिल और अव्यवहारिक वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने के निर्णय और कर्ज में दबे सरकारी बैंकों के संकट को दूर करने की उनकी विफलता ने उनके प्रभाव को कम कर दिया है.
जाहिर है कि पत्रिका की टिप्पणी को कारपोरेट और खुली अर्थव्यवस्था के समर्थक तबकों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घटती लोकप्रियता के संकेत के तौर पर देखा जा सकता है. पत्रिका आगे यह भी लिखती है कि नरेंद्र मोदी सरकार प्रायः देश की आर्थिक वृद्धि की राह में बाधा माने जाने वाले श्रम और भूमि सुधारों को लागू करने के मामले में कमजोर साबित हुई है. इसके अलावा पत्रिका ने अपनी टिप्पणी में देश के निम्न और मध्य वर्ग को वर्तमान सरकार से हुई निराशा का जिक्र भी किया है.
पत्रिका लिखती है कि हिन्दू राष्ट्रवादी समूहों ने देश के कमजोर तबकों को निशाना बनाकर खराब मिसाल कायम की है. वहीं देश के निम्न मध्यम वर्ग और निर्धन वर्ग की कमर तेल की बढ़ती कीमतों और भारतीय रुपए के कमजोर होने से टूट गई है. पत्रकार, शिक्षाविद और देश का बौद्धिक तबका सरकार की तानाशाही शैली के चलते नाराज है. शासन के पुराने तौर-तरीकों को भी नरेंद्र मोदी सरकार बदल नहीं सकी है.
पत्रिका ने अपनी टिप्पणी में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की राजनीतिक संभावनाओं पर चर्चा करते होते फिलहाल बीजेपी की स्थिति को बेहतर बताया है, लेकिन उसकी यह बात कहीं अधिक उल्लेखनीय है कि साल 2019 का चुनाव पार्टियों से ज्यादा भारतीय लोकतंत्र की परीक्षा है.