महत्त्वपूर्ण वो नज़रिया है!


201st birth anniversary of karl marx

 

शीत युद्ध के दौर में मार्क्सवाद दुनिया के लगभग हर देश में एक वैचारिक ध्रुव बना रहता था. तब एक प्रवृत्ति उस विचारधारा में दुनिया के तमाम मसलों का हल देखने की थी. जबकि दूसरी तरफ उसे लांछित करने और उसे क्रूर तानाशाही व्यवस्था का जनक करार देने वाले लोग थे.

आज ये ध्रुवीकरण उतना तीखा नहीं है. फिर भी जब कभी और जहां भी गैर-बराबरी और शोषण से मुक्त समाज बनाने की बात होती है, कार्ल मार्क्स के विचार अपने-आप वहां चर्चा में आ जाते हैं. इस बात की एक मिसाल 2007-08 में आई मंदी के बाद पश्चिमी देशों में दिखा रूझान है. उस मंदी (जिसके प्रभाव से दुनिया आज तक नहीं उबर सकी है) को पूंजीवाद का संकट माना गया. और जब कभी पूंजीवाद का विकल्प ढूंढने की बात आती है, तो समाजवाद चर्चा में आता है. और जब समाजवाद की बात हो, तो वो चर्चा मार्क्सवाद पर विचार किए बिना नहीं हो सकती.

अब मार्क्सवाद का असली रूप क्या है, यह विवादास्पद विषय है. कार्ल मार्क्स ने एक ख़ास संदर्भ में कहा था, “जो एक बात निश्चित है वो यह कि मैं खुद भी मार्क्सवादी नहीं हूं.” मतलब यह कि उनके नाम पर एक ‘वाद’ चले, कार्ल मार्क्स इसके हक में नहीं थे. मगर उनके जीवनकाल (5 मई 1818-14 मार्च 1883) के बाद उस नजरिए और विश्लेषण ने एक ‘वाद’ की शक्ल ली. आज जब हम मार्क्सवाद कहते हैं, तो उस नज़रिए और विश्लेषण में फ्रेडरिक एंगेल्स, व्लादीमीर इलिच लेनिन और माओ जे दुंग ने जो योगदान किया, उन सबको मिलाकर बनी समझ का बोध होता है.

आज जबकि दुनिया कार्ल मार्क्स की 201वीं जयंती मना रही है, जो उचित ही इस पर बहस हो रही है कि अब मार्क्सवाद कितना प्रासंगिक है? मार्क्स ने समाजों का विश्लेषण उनकी वर्ग संरचना (class structure) के आधार पर किया. वह पूंजीवाद का आरंभिक काल था. औद्योगिक क्रांति के बाद नई तकनीके वजूद में आईं, तो उनसे यूरोप (और बाद में पूरी दुनिया) में एक नए प्रकार का समाज बना. तब से आज तक विभिन्न समाजों की वर्ग संरचना, पूंजीवाद का स्वरूप और दुनिया में मौजूद टेक्नोलॉजी बिल्कुल बदल चुकी है. इसलिए आलोचकों की इस दलील से सहमत हुआ जा सकता है कि डेढ़-पौने दो सौ साल पहले मार्क्स ने जो विश्लेषण पेश किया और उसके आधार पर मानव जाति के भविष्य का जो अनुमान लगाया, वह अब प्रासंगिक नहीं रहा.

लेकिन ऐसी आलोचना कोई नई बात नहीं है. मार्क्स ने कभी दुनिया का अंतिम सच बताने का दावा नहीं किया. दरअसल, अपने जीवनकाल में मार्क्स ने अपनी सोच पर पुनर्विचार करते हुए उसे विकसित करने में कभी हिचक नहीं दिखाई थी. पेरिस कम्युन (28 मार्च-28 मई 1871) के अनुभव के बाद उन्होंने समाजवादी संघर्ष की रणनीति पर पुनर्विचार किया था.

बताया जाता है कि ‘सर्वहारा की तानाशाही’ की जो अवधारणा लेनिन ने रूस में बोल्शेविक क्रांति (1917) के बाद दी, उसकी जड़ें पेरिस कम्युन से मार्क्स को हुए अनुभव में छिपी हैं. मतलब यह कि स्थापित व्यवस्था के खिलाफ होने वाले विद्रोह को संभालकर ‘क्रांति’ का ठोस रूप देने के लिए एक माध्यमिक राज्य व्यवस्था (intermediary state system) की ज़रूरत होगी, ऐसा तब महसूस किया गया था. बोल्शेविक क्रांति के बाद रूस में सोवियत व्यवस्था के रूप में ऐसे ही ‘intermediary system’ को स्थापित किया गया.

उस सिस्टम ने ऐसे सपने जगाए और उसकी उपलब्धियां ऐसी रहीं, जिनकी वजह से सोवियत संघ दुनिया भर में करोड़ों लोगों के आकर्षण का केंद्र बना. हर देश के मेहनतकश तबके में अपना राज कायम करने की अभूतपूर्व कल्पना उसने जगाई. असल में आज अगर 200 साल बाद मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर चर्चा हो रही है या पूंजीवादी समाजों में संकट समय मार्क्स या समाजवाद की लोकप्रियता बढ़ जाती है, तो उसकी वजह सोवियत अनुभव को ही जाता है.

बेशक चीन, क्यूबा, वियतनाम और कुछ अन्य देशों में मार्क्सवाद से प्रेरित क्रांतियों और उसके बाद बनी व्यवस्था से भी वह कल्पना समृद्ध और सशक्त हुई. लेकिन यह सच है कि एक समय के बाद उन तमाम देशों में ‘समाजवाद’ के प्रयोग या तो विफल हुए या फिर उनके ‘समाजवादी’ होने को लेकर गंभीर सवाल उठे. टीकाकारों के एक हिस्से में इन नाकामियों को मार्क्सवाद की विफलता के रूप में पेश करने की प्रवृत्ति रही है.

दरअसल, सोवियत संघ के ढहने के बाद अमेरिकी राजनीति-शास्त्री फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी एक बहुचर्चित किताब में ‘इतिहास का अंत’ होने की घोषणा की, जिसे मार्क्सवाद और समाजवाद विरोधी हलकों में खूब लोकप्रियता मिली. किताब में कहा गया है कि सोवियत संघ की समाप्ति के साथ पूंजीवाद और पश्चिमी ढंग के लोकतंत्र की अंतिम विजय हो गई है. इसके साथ ही इस बारे में तमाम वैचारिक बहसें ख़त्म हो जाती हैं.

लेकिन उसके बाद दुनिया कैसे बदली इसकी बड़ी मिसाल खुद फुकुयामा की समझ है. 2017 में आकर फुकुयामा ने कहा, “पच्चीस साल पहले मुझे इस बात की समझ नहीं थी अथवा मेरे पास यह समझने का कोई सिद्धांत नहीं था कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं किस तरह उलटी दिशा में जा सकती हैं.” और जब ‘इतिहास के अंत’ की भविष्यवाणी गलत साबित हो गई, तो स्वाभाविक है कि समाजवाद की प्रासंगिकता पर फिर से चर्चा होने लगी. और उसी के साथ कार्ल मार्क्स भी चर्चा में लौट आए.

पिछले एक दशक में दुनिया में चले बौद्धिक विमर्श पर गौर करें, तो हम देख सकते हैं अब समाजवाद को नए सिरे से समझने की एक गंभीर कोशिश हो रही है. और ऐसी कोशिशें किसी भी रूप में मार्क्सवाद के ख़िलाफ़ नहीं हैं. नए प्रयासों को तभी ऐसा माना जा सकता है, अगर हम मार्क्सवाद को एक संगठित धर्म और जड़ दस्तावेज समझते हों. जबकि कार्ल मार्क्स की समझ एवं भावना के खिलाफ जाकर ही ऐसी समझ बनाई जा सकती है.

असल में मार्क्सवाद की ताकत यही है कि उसने समाज विज्ञान के क्षेत्र से जुड़े लोगों हर चीज़ पर सवाल खड़ा करना सिखाया. उन्होंने हर जो चीज अस्तित्व में है, उसकी निर्मम आलोचना करने के लिए प्रेरित किया. अपनी इसी ख़ासियत के कारण मार्क्सवाद ने दुनिया को देखने, समझने और विश्लेषित करने का एक ऐसा नज़रिया दिया, जो समय के दायरे में बंधा हुआ नहीं है. इसी नज़रिए का उपयोग करते हुए लेनिन, रोज़ा लक्ज़मबर्ग, एंतोनियो ग्राम्सी, चे ग्वेरा आदि ने अपनी-अपनी परिस्थितियों के बीच उस वक्त के समाज का ‘वस्तुगत विश्लेषण’ पेश किया.

मार्क्सवादी विचारधारा में ‘वस्तुगत स्थितियों के वस्तुगत विश्लेषण’ (objective analysis of objective conditions) का ख़ास महत्त्व माना जाता है. इसलिए कि सिर्फ़ तभी ऐसी वस्तुगत रणनीति तैयार हो सकती है, जिससे ‘मार्क्सवादी क्रांति’ की तरफ़ बढ़ा जा सकेगा. ज़ाहिर है, वस्तुगत स्थितियां बदलती रहती हैं. हर देश और समाज की स्थितियों में फर्क़ होता है. उन्हें एक इच्छित दिशा (desired direction) में बदलने के लिए सबसे पहले उन्हें ठीक से समझना अनिवार्य होता है.

यह बात पूरे भरोसे से कही जा सकती है कि कार्ल मार्क्स ने यह समझदारी विकसित करने के लिए कारगर बौद्धिक औज़ार (intellectual instruments) दिए. इन औज़ारों के बीच समाज की वर्ग संरचना और इतिहास के विकास-क्रम को वर्ग संघर्ष के रूप में देखने का नज़रिया शायद सबसे अहम है.

मार्क्सवादी दर्शन (Marxist philosophy) को हम द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (dialectical materialism) और उसकी इतिहास दृष्टि को ऐतिहासिक भौतिकवाद (historical materialism) के रूप में जानते हैं. मानव समाजों में वर्ग संघर्ष द्वंद्वात्मक प्रक्रिया (dialectical process) का व्यावहारिक रूप है. इसी प्रक्रिया से दुनिया और इंसानी समाज आगे बढ़े हैं. इस क्रम में पूंजी, राज्य, व्यापार और बाज़ार अस्तित्व में आए. मानव श्रम (और उसका शोषण) की इन सबके बीच केंद्रीय भूमिका रही है.

मार्क्सवाद ने इन सबकी समझ और उस समझ को लगातार विकसित करने का नज़रिया मानव समाज को दिया है. लेकिन कार्ल मार्क्स ने कहा था कि असली बात दुनिया को समझना नहीं, बल्कि उसे बदलना है. उन्होंने उत्पादन संबंधों में ऐसे बदलाव पर ज़ोर दिया, जिससे मेहनतकश तबके इस प्रक्रिया के केंद्र में आ सकें. ऐसा हो, तो वास्तविक लोकतंत्र स्थापित हो सकेगा.

मार्क्स का जोर हर प्रकार की मानव स्वतंत्रता को लगातार बढ़ाने पर था. इसकी चरम अवस्था के रूप में उन्होंने ‘वर्ग-हीन, राज्य-विहीन’ समाज की कल्पना की, जिसे उन्होंने साम्यवाद कहा.

यह इतिहास की विडंबना है कि यथासंभव संपूर्ण मानव स्वतंत्रता की तरफ बढ़ने के रास्ते में मौजूद चुनौतियों को खत्म करने के लिए बीच की अवधि में तानाशाही की रणनीति (भले वो सर्वहारा की हो) मार्क्सवाद का हिस्सा बन गई. लेकिन उसे मार्क्सवाद के विकास-क्रम के एक चरण के रूप में देखा जाना चाहिए. मार्क्सवादी नज़रिया यह है कि उस चरण से सीख लेते हुए इस विचारधारा को और विकसित किया जाए. ऐसा करने की ज़रूरत लगातार बनी हुई है, क्योंकि मानव समाजों में आज भी श्रम की प्रतिष्ठा स्थापित नहीं हुई है. ना ही वैसा लोकतंत्र कायम हुआ है, जिसकी कल्पना मार्क्स ने की थी.

कार्ल मार्क्स की 201वीं जयंती पर ये बात रेखांकित करने की ज़रूरत है कि ‘मार्क्सवादी’ व्यवस्थाओं की तमाम विफलताओं के बावजूद मार्क्स ने समाजों को समझने और बदलने का जो नज़रिया दिया, उसकी अहमियत कायम है. इसलिए कि इस नज़रिये ने पिछले डेढ़-पौने दो सौ साल से दुनिया के करोड़ों लोगों को एक ऐसी नई दुनिया बनाने के लिए प्रेरित किया है, जिसमें गैर-बराबरी और इंसान द्वारा इंसान के शोषण का वजूद ना हो. और जब तक ऐसा नहीं होता, कार्ल मार्क्स और मार्क्सवाद की प्रासंगिकता बनी रहेगी.


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