39 साल की बीजेपी


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भारतीय जनता पार्टी 6 अप्रैल 1980 को वजूद में आई, तो उसने ‘गांधीवादी- समाजवाद’ को अपनी विचारधारा घोषित किया. तीन साल पहले पार्टी ने जिस अवसरवाद का परिचय दिया था, उसे ढकने का इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं था. 1951 में बने भारतीय जनसंघ का घोषित उद्देश्य भारत में हिंदू राष्ट्र की स्थापना था. जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार का यह राजनीतिक मोर्चा था, ना तो उसका गांधीवाद से कोई लेना-देना था, ना ही समाजवाद से. असल में अपने आरंभिक दिनों से ही आरएसएस इन दोनों विचारधाराओं का विरोधी रहा. ढाई दशक तक भारतीय जनसंघ आरएसएस राजनीति में हिंदुत्व की विचारधारा का प्रवक्ता बना रहा.

इसीलिए यह हैरत की बात थी कि इमरजेंसी (1975-77) के तुरंत बाद हुए आम चुनाव से पहले बनी जनता पार्टी में उसने अपना विलय कर दिया. इस पार्टी में भारतीय जनसंघ के अलावा कांग्रेस, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष दक्षिणपंथी धाराओं से आई पार्टियां और नेता शामिल हुए. इन सबका ऐसा करना अवसरवाद की ही मिसाल था. इसे ढकने के लिए उन्होंने ‘गांधीवादी- समाजवाद’ का आवरण ओढ़ा. ढाई साल के अंदर यह प्रयोग चरमरा गया. जनता पार्टी के सभी घटक अपनी-अपनी ढफली के साथ अपने-अपने रास्ते पर चल निकले. लेकिन भारतीय जनसंघ ने अपनी विचारधारा के साथ ऐसा समझौता किया था, जिससे तुरंत मुकरना शायद पार्टी नेताओं को अपने माफिक नहीं लगा. तो भारतीय जनसंघ जब भारतीय जनता पार्टी के नए अवतार में सामने आई, तो अपनी विचारधारा वही घोषित की, जो जनता पार्टी की थी.

यह कहना बेहद कठिन है कि बीजेपी नेताओं ने यह आवरण जान-बूझ कर ओढ़ा या फिर वो खुद भी भ्रम के शिकार थे. बहरहाल, उनके सहमना (यानी संघ परिवार के) संगठन अपनी मूल विचारधारा पर चलते रहे. विश्व हिंदू परिषद ने बाबरी मस्जिद ढाहने का आंदोलन शुरू कर दिया. जब ये आंदोलन जोर पकड़ा, तब बीजेपी को अपने तथाकथित भ्रम से निकलने का मौका मिला. 1989 में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में पार्टी के अधिवेशन में अंततः अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को एजेंडे को स्वीकार कर लिया. इस तरह पार्टी का ‘गांधीवादी- समाजवाद’ के पीछा छूट गया. वह ‘हिंदू राष्ट्र’ निर्माण की मौलिक परियोजना को लागू करने की दिशा में निकल पड़ी.

2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व का उभरना इस दिशा का स्वाभाविक परिणाम था. हालांकि लालकृष्ण आडवाणी के युग में ही बीजेपी अपनी जड़ों की तरफ लौट गई थी, लेकिन मोदी के युग में उसने तमाम हिचक और भ्रम छोड़कर अपने मकसद की तरफ बढ़ रही है. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ही वह देश की प्रमुख राजनीतिक धुरी बन गई थी. नरेंद्र मोदी के राज में वह राष्ट्रीय चर्चा के एजेंडे को डिक्टेट करने की स्थिति में पहुंच गई है. यह इस पर गौर करना अहम होगा कि चार दशक पहले सत्ता में आने के लिए अपनी मूल पहचान छोड़ने को मजबूर हुई पार्टी अपने नए अवतार में इस हैसियत में कैसे पहुंच गई?

इसके लिए जमीनी हालात तो हमेशा से मौजूद थे, लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन और नेहरूवादी विरासत के प्रभाव के कारण आरएसएस/जनसंघ/बीजेपी आजादी के बाद कई दशकों तक हाशिये पर रहे. इस दौर में विपक्ष के दायरे को हथियाने के लिए उन्होंने चालाकी का परिचय दिया. विपक्ष की दूसरी ताकतें (जो कहीं अधिक प्रभावी और प्रभावशाली थीं) अगर तब आरएसएस/जनसंघ/बीजेपी के मूल स्वरूप के प्रति जागरूक रहतीं तो उन्हें आम जन की निगाहों में वैधता देने में शामिल नहीं होतीं, तो शायद जनसंघ/बीजेपी आज की हैसियत में नहीं पहुंच पाती. तब शायद बीजेपी ‘जनता पार्टी’ नाम से विपक्ष को मिली पूरी पहचान खुद से जोड़ लेने में कामयाब नहीं हो पाती.

लेकिन एक “उदार चेहरे” की आड़ में अपनी सियासत को फैलाने की जो रणनीति आरएसएस/बीजेपी ने बनाई, उसे की समझने की बौद्धिक क्षमता दिखाने में बाकी गैर-कांग्रेसी दल नाकाम रहे. नतीजतन, आडवाणी के बरक्स वाजपेयी, जोशी के बरक्स आडवाणी, उमा भारती के बरक्स जोशी की “उदारता” से एक-एक कर इन दलों ने खुद को छल जाने दिया. क्या यह हैरतअंगेज नहीं है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ खेमे में इस अनुभव के बावजूद मोदी के बरक्स आडवाणी और जोशी को उदार मानने वालों की कमी नहीं है.

लेकिन यही बीजेपी की कामयाबी है. वह लोगों का ध्यान अपनी जड़, असल पहचान और असली मुद्दे से भटकाए रहने में काययाब रहती आई है और एक हद तक आज भी है. अपनी इस रणनीति की बदौलत आज वह देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी और सबसे मजबूत सियासी ताकत है. मौजूदा आम चुनाव में बीजेपी का क्या होगा, यह अभी तय नहीं है. लेकिन चुनाव परिणाम चाहे जो हो, बड़े संदर्भ में उसकी हैसियत पर तुरंत कोई बड़ा फर्क पड़ेगा, इसकी संभावना कम ही है.


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