ग्राहम स्टेंस के साथ न्याय करती एक फिल्म


A film that gives justice to Graham Staines

  Skypass Entertainment

ग्राहम स्टेंस की कहानी के जरिए हम समझ सकते हैं कि महज पूर्वाग्रहों पर आधारित हमारी धारणाएं कितनी खतरनाक हो सकती हैं. ग्राहम स्टेंस की कहानी अकेले उनकी नहीं है, उनके साथ जीवन का साझा मकसद बना चुके उन सैकड़ों लोगों की है जिनको ग्राहम ने एक नया जीवन दिया है.

अनीस डेनियल द्वारा निर्देशित फिल्म ‘द लीस्ट ऑफ दीज’ इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर खड़े एक ऐसे भारत की कहानी कहती है जिसके सुदूर दक्षिण पूर्व उड़ीसा में ‘कुष्ठ रोग’ को शारीरिक बीमारी से बढ़कर एक सामाजिक पाप समझा जाता है. यह फिल्म उस भारत की कहानी कहती है जो सामाजिक मोर्चे पर आज भी भयंकर पिछड़ेपन और रूढ़ियों से ग्रस्त है. यह उस भारत की कहानी भी है जहां दक्षिणपंथी ताकतें इस कदर हावी हो रही थीं कि सदियों से चले आ रहे भारतीय समाज के साझेपन को खतरा महसूस होने लगा था. ऐसा भारत लगभग बन चुका था जिसका सांस्कृतिक बहुलतावादी ढांचा लगभग टूट चुका था. धार्मिक अल्पसंख्यक स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे थे. जो आज सत्ता में काबिज लोगों से अलग विचार रखने वालों की असुरक्षा तक चला आया है.

फिल्म में मुख्य भूमिका पत्रकार मानव बनर्जी (शरमन जोशी) की थी जो पश्चिम बंगाल से किसी समाचार पत्र में काम की तलाश में उड़ीसा के बारीपाड़ा पहुंचते हैं. जहां कुछ दिन बाद एक आस्ट्रेलियाई ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस (स्टीफन बाल्दिन) और उसके दो बच्चों को जिंदा जला दिया गया था. अनीस डेनियल इस घटना की तह तक जाने के लिए एक पत्रकार का सहारा लेते हैं, वे फिल्म में धर्मांतरण की अफवाह को मूल विषय के तौर पर तो रखते ही हैं लेकिन इसके जरिए वे एक पत्रकार की धारणाओं और विचारों में आए बदलाव को भी चिन्हित करते हैं.

मानव बनर्जी एक स्थानीय समाचार पत्र के रिपोर्टर की हैसियत से कुछ ऐसी खबरें लाते हैं जिसमें उन्हें बलात धर्म परिवर्तन कराने की आशंका होती है. एक तालाब के किनारे हो रहे अनुष्ठान को, जिसमें ईसाई मिशनरी एक कपड़े में लपेटकर एक लड़की को बाइबिल की प्रति थमा रहे होते हैं, मानव बनर्जी कैमरे में कैद कर लेता है, जिसे वह पैसे देकर धर्म परिवर्तन कराने की खबर की तरह अपने स्थानीय समाचार पत्र में छपवा देता है. उसके ऊपर उसके संपादक का दबाव है कि वह ऐसी खबरें लेकर आए जिसमें कुछ सनसनी जैसी हो.

फिल्म बारीपाड़ा और उसके आसपास क्षेत्रों में सामाजिक पाप की तरह समझे जाने वाले कुष्ठ रोग से पीड़ित रोगियों को दिखाती है. ग्राहम के अस्पताल सह पुनर्वास स्थल में एकाउंटेंट का काम कर रहे एक वृद्ध व्यक्ति को देखकर मानव चकित हो जाता है क्योंकि उसके बगल में बैठने मात्र से मानव गाड़ी से उतर गया था. मानव को हाथ में कलम कागज लिए वह व्यक्ति सामान्य तरीके से अपना काम करते नजर आ रहा था. यहां पर आकर कुष्ठ रोगियों के लिए मानव की धारणा में बदलाव आता है.

मानव के संपादक की तरफ से उसके ऊपर दबाव बढ़ रहा था कि वह बलात धर्म परिवर्तन की खबरें लाए. ग्राहम ने मानव को सूचना दी थी कि वह क्योंझर जिले के मनोहरपुर गाँव में आदिवासियों के परंपरागत जलसे में जाएंगे. जिसके बाद यह अफवाह फैला दी गई कि वहां बड़े पैमाने पर प्रलोभन देकर धर्मांतरण होने वाला है. अब तक मानव भी कुछ कुछ समझने लगा था कि उसका संपादक उससे दबाव डालकर ऐसी खबरें प्लांट कराना चाह रहा है जबकि गावों में हकीकत इससे इतर है. पहले तो बलात धर्मांतरण जैसी कोई बात नहीं है और यदि कोई व्यक्ति अपना धर्म बदल रहा है तो यह उसकी इच्छा अनुसार हो रहा है. लेकिन अफवाह की राजनीतिक जड़ें कितनी गहरी हैं, मानव इसका अंदाजा लगा पाने में असमर्थ रह जाता है.

अगली ही रात मनोहरपुर में महेंद्र नाम का एक व्यक्ति, जिसके ऊपर भारतीय संस्कृति की रक्षा की जिम्मेदारी थी, गाँव के कुछ लोगों को शराब पिलाकर उस जगह पर ले जाता है जहाँ ग्राहम स्टेंस अपनी गाड़ी में अपने दो बच्चों के साथ सो रहे होते हैं. तीनों को गाड़ी सहित जिंदा जला दिया जाता है.

एक ऑस्ट्रेलियाई डॉक्टर मिशनरी जिसने अपनी जिन्दगी का मकसद भारत में ढूँढा था, जिसके दोनों बच्चे भारतीय क्रिकेट टीम से खेलने का सपना बुन रहे थे, उनके पसंदीदा खिलाड़ी स्टीव वा या शेन वार्न नहीं बल्कि सचिन तेंदुलकर थे, भारत में साम्प्रदायिक द्वेष की राजनीति का शिकार बन जाता है.

ग्राहम की मृत्यु के बाद, एक तरफ मानव बनर्जी को अपने संपादक के दबाव के बावजूद सच बाहर लाने की जिद है और दूसरी तरफ ग्राहम की कही बात कि हां वह कन्वर्जन कराता है लेकिन अयोग्यता से योग्यता में, सामाजिक बहिष्कार से सामाजिक परिष्कार में, के बाद वह बखूबी समझ जाता है कि ग्राहम को खतरे में डालने के पीछे कौन से लोग और विचार हैं.

फिल्म यहां खत्म होती है लेकिन यह हमारे आज के समय से संवाद करते हुए हमें कुछ और बातें करने पर मजबूर करती है. चूंकि यह फिल्म एक सत्य घटना पर आधारित है जो जनवरी, 1999 में उड़ीसा में घटी. डेनियल अपने शोध के दौरान ग्राहम की पत्नी से भी मिलते हैं जो ग्राहम के बाद कुछ वर्षों तक अस्पताल चलाती रहीं, बाद में अपनी बेटी के साथ ऑस्ट्रेलिया यह कहकर चली गईं कि उन्होंने ग्राहम के दोषियों को माफ कर दिया.

यहां महत्वपूर्ण यह है कि इस पर बात की जाए कि उस व्यक्ति, उस राजनीति या उस विचारधारा का क्या हुआ, जिसका ग्रास ग्राहम स्टेंस जैसे जीवन साधक को होना पड़ा. ग्राहम की हत्या करने वाला व्यक्ति दारा सिंह, उत्तर प्रदेश के इटावा का रहने वाला था, जो बजरंग दल का सदस्य हुआ करता था, जिसके ऊपर कई मुकदमे पहले से दर्ज थे, जिसमें एक मुस्लिम व्यापारी की हत्या भी शामिल है. ऐसे व्यक्ति को निचली अदालत द्वारा फांसी की सजा सुनाई जाती है, जिसे बाद में उच्च न्यायालय द्वारा उम्र कैद में बदल दिया जाता है और वर्तमान में उसे पूरी तरह मुक्त कर दिया गया है. हालांकि, यह कोई चकित करने वाली बात उस देश में नहीं है जहां बाबरी और गोधरा करने वाले लोग सत्ता में काबिज हो जाते हैं.

दारा सिंह की राजनीतिक संलिप्तता बजरंग दल से थी. जिस तरह दारा सिंह को अंततः बरी किया गया वैसे ही पूरे देश भर में हिंसा और आतंक की घटनाओं में खुले तौर पर शामिल रहे लोगों को पिछले पांच वर्षों में एक-एक करके छोड़ा गया और अब यह बात केवल छोड़ने तक नहीं बल्कि उन्हें प्रज्ञा ठाकुर की तरह जनप्रतिनिधि बनाने की दावेदारी पूरी बेहयाई के साथ प्रस्तुत की गई.

न्यायालय में यह साबित हुआ है कि ग्राहम के ऊपर बलात धर्म परिवर्तन के आरोप नहीं थे. न्यायिक प्रक्रिया यह कहती है कि यदि किसी व्यक्ति या संगठन को किसी दूसरे व्यक्ति या संगठन के ऊपर यह आशंका लगती है कि वह जबरन धर्म परिवर्तन में लगा हुआ है तो उसके लिए कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए. उड़ीसा में बलात धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए कानून वर्ष 1967 से अस्तित्व में है, जिसके तहत दो वर्ष की सजा और दस हजार रूपये जुर्माने का प्रावधान है. ग्राहम ने उड़ीसा में अपना अस्पताल और पुनर्वास स्थल 1980 के आस-पास बनाया था. यानि उसके ऊपर भी वह कानून लागू होता था.

भारतीय दंड संहिता की धारा 295 A और 298 के तहत जबरन धर्म परिवर्तन को अपराध की श्रेणी में रखा गया है. लेकिन आज देश के संविधान, कानून और संवैधानिक और विधिक संस्थानों में यकीन न करने वाले लोग जब सत्ता में काबिज हैं तो ग्राहम स्टेंस और उन जैसे कितनों को न्याय कैसे मिल सकता है. गौरतलब है कि जब ग्राहम स्टेंस को जलाया गया था तो उस समय केंद्र में यही एनडीए सरकार थी जो आज है. दूसरी तरफ संघ परिवार द्वारा प्रायः किए जाते रहे लाखों लोगों की ‘घर वापसी’ के दावों की आज तक कोई जांच नहीं की गई.

जब फिल्में राजनेताओं, राजनीतिक दलों और उनकी विचारधारा के प्रचार प्रसार के लिए बन रहीं हों तो ऐसे समय में अनीस डेनियल की यह फिल्म हिम्मत देती है कि हिंदी सिनेमा में एक सार्थक आवाज अभी बाकी है. जो आवाज बॉक्स ऑफिस की तमाम चुनौतियों के बाद भी दर्शकों के बीच में सुनाई दे रही है. फिल्म अपने नैरेशन में बहुत कुछ डिकोड करते हुए चलती है, अनीस डेनियल कहते हैं कि हमने कोई राजनीतिक स्टैंड नहीं लिया है बस एक ऐसे इंसान का कर्ज उतारा है जिसने अपना जीवन एक मकसद के लिए लगा दिया. उसके बाद भी यह फिल्म आज के दौर में बेहद गंभीर राजनीतिक निहितार्थ रखने वाली साबित हो रही है कि तमाम चुनौतियों के बाद भी कलाओं के भीतर से भी प्रतिरोध की आवाजें आ रहीं हैं.


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