बीजेपी सांसदों ने ही लगा दिया मोदी की ‘आदर्श ग्राम योजना’ को पलीता


adarsh gram yojna has been destroyed by bjp's own mp

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में आदर्श गांवों के निर्माण की घोषणा करते हुए लोकसभा सांसदों को एक-एक गांव गोद लेने और उसका सर्वतोमुखी विकास करके, विकास का नया मॉडल रचने की परिकल्पना की थी. संभवतः प्रधानमंत्री को सबसे ज्यादा भरोसा बीजेपी और एनडीए दलों के सांसदों पर ही रहा होगा कि वे इस योजना के माध्यम से हिंदुस्तान के गांवों में ऐसा अभूतपूर्व बदलाव ला देंगे, जो अपनी ऐतिहासिक छाप छोड़ेगा. उनकी सरकार इन आदर्श गांवों को अपने सपनों का आईना बनाकर 2019 के आम चुनावों में जनता के सामने पेश करेगी और जनता का मन और मत दोनों को ही मोह लेगी.

गो विलेज नामक संस्थान ग्रामीण भारत के विकास के लिए कार्यरत है. इस संस्थान का जन्म भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा सांसद आदर्श ग्राम योजना के प्रारूप के साथ हुआ था. नरेंद्र मोदी ने 2014 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती के अवसर पर संसद सदस्यों को एक गांव गोद लेकर उक्त ग्राम को आदर्श ग्राम बनाने की आवशकता पर बल दिया था. सांसद आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत गोद लिए हुए ग्राम में ‘गो विलेज’ कार्यक्रम संसद सदस्यों के लिए सहयोगी का काम कर रहा था. ग्राम से संबंधित सही जानकारी, रिसर्च और इस कार्य में जन भागीदारी को सुनिश्चित करने का काम ‘गो विलेज’ का ध्येय था. इसके अलावा आदर्श ग्राम के ऐसे मूल निवासियों को, जो उस ग्राम से बाहर रहते हैं, सांसद आदर्श ग्राम योजना में भागीदार बनाकर विकास की गति को बढ़ाने के काम में लगा हुआ था.

बावजूद इसके असलियत बिल्कुल ही उल्टी निकली है और केंद्र सरकार को मुंह छिपाने के लिये मजबूर कर देने वाली साबित हो रही है. मोदी जी के लिये यह सबसे पीड़ादायी होगा कि भाजपा सांसदों ने ही उनकी योजना में पलीता लगाने में जरा सी भी कसर न छोड़ी. लेकिन दोष अकेला भाजपा सांसदों का ही नहीं है, स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस गांव को गोद ले रखा है, वहां भी योजना के प्रति गहरी उदासीनता के चलते आदर्श गांव ‘आदर्श बर्रबाद गांव’ का प्रतीक बन गए हैं.
इनमें से कुछ आदर्श गांवों की बानगी पेश है-

मोदी का गोद-गांव जयापुर : ऊंची दुकान, फीका पकवान

प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है वाराणसी. यहां से कोई 28 किलोमीटर की दूरी पर बसा हुआ है, गांव जयापुर. जयापुर तक पहुंचने का रास्ता ही इतना तकलीफदेह है कि मन में सवाल उठने लगता है कि प्रधानमंत्री का गांव कैसा होगा? रास्ते में पानी की सड़ांध को पार करने की विवशता को बिना झेले गांव तक नहीं जा सकते. ग्राम प्रधान नारायण पटेल का कहना है, “हमें ऐसा लगता था कि जब प्रधानमंत्री जी ने ही गांव को गोद लिया है, तो जयापुर देश का सबसे आलीशान गांव बन जायेगा. लोग देखने आया करेंगे. हमने खुद ही लोगों से इस बात का वादा कर दिया था, कि गांव शहरों को भी मात देगा, लेकिन अब मुंह छिपाते फिर रहे हैं. हमें देखते ही लोग ताना देते हैं कि ये चले आ रहे हैं शहर जयापुर के ग्राम प्रधान जी.”

गांव का भ्रमण कर लेने पर नारायण पटेल की बातों की ताईद हो जाती है. जल निगम ने पानी की टंकी तो लगवा दी है, परंतु पानी के निकास का कोई इंतजाम नहीं किया. अब बहकर जाने वाला पानी घरों और रास्तों पर फैलकर सड़ रहा है और बदबू फैला रहा है. गांव के बाहर की सड़क जरा ठीक है, लेकिन अंदर टूटे-फूटे और जर्जर रास्ते ही हैं. बॉयो-टॉयलेट्स लगाने पर लाखों रुपये खर्च किए गए हैं, लेकिन रखरखाव की समुचित प्रणाली और व्यवस्था के अभाव में वे अपनी दुर्दशा को प्राप्त हो चले हैं. उनका प्रयोग असंभव होता जा रहा है. वे लापता भी हाने लगे हैं. शिशुओं के अध्ययन के लिये जो ‘नंद घर’ खोला गया है, वह अब ढहने लगा है. पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिये हैंडपंप तो लग गए हैं, लेकिन वे दिखावटी बनकर रह गए हैं, क्योंकि उनमें पानी ही नहीं आता.

पेंशन के पात्रों को पेंशन नहीं मिल पाती. आवासहीनों को ठौर के लाले पड़े हुए हैं. कुछ घर बनाए तो हैं, लेकिन उन घरों तक जाने के लिये रास्ता नहीं बनाया गया, लिहाजा वहां कोई नहीं रहता. राशन कार्ड में नाम जुड़वाने के लिये हलकान होते लोगों की भी संख्या कम नहीं है. गांव वालों की शिकायत है कि अधिकारियों ने आधे-अधूरे काम किए और गांव से मुंह फेर लिया. आते भी हैं तो बस शौचालय का किस्सा लेकर बैठ जाते हैं. दूसरी बात करो तो जवाब नहीं देते.

नौजवानों को रोज़गार की तलाश है. उम्मीद की जा रही थी कि जयापुर में एक भी घर बेकार लड़कों वाला नहीं रहेगा, लेकिन हालात नहीं बदले. हां, जयापुर में पोस्ट ऑफिस, बैंक, कम्प्यूटर प्रशिक्षण केंद्र, अटल आवास योजना और आंगनबाड़ी केंद्र तो दिखाई देते हैं, लेकिन आकर्षक रंगरोगन वाली दीवारों के अंदर व्यवस्थाओं का अभाव और अराजकता छाई हुई है. अपनी विपदाओं के लिये गांव वाले ग्राम प्रधान को जिम्मेदार मानते हैं और ग्राम प्रधान प्रधान मंत्री की आलोचना करने से से बचते हुए उसे अधिकारियों के सिर पर मढ़ देते हैं.

प्रधान मंत्री मोदी ने जैसे पार्टी की अध्यक्षता के लिये एक गुजराती अमित शाह पर ही भरोसा किया और रिज़र्व बैंक में भी वे दूसरे गुजराती उर्जित पटेल को ले आये थे, उसी तरह जयापुर के विकास की बागडोर भी, किसी उत्तरप्रदेशीय को न देकर, गुजरात से सी आर पटेल को लाकर सौंप दी गयी है. बावजूद इसके जयापुर को वास्तविक विकास के लिये अभी भी इंतज़ार ही करना पड़ रहा है.

जबलपुर संसदीय क्षेत्र आदर्श गांव कोहला : आंसू पीकर प्यास बुझाता है

जबलपुर संसदीय क्षेत्र से भाजपा के राकेश सिंह लगातार तीन बार से संसद में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. अब वे अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं. उनके नेतृत्व में भाजपा महाकोशल में अपना सबसे बुरा प्रदर्शन कर चुकी है. हमने उनके द्वारा गोद लिये गए कोहला गांव का दौरा किया. हमें ऐसी उम्मीद थी कि मुश्किल से 400 की आबादी और लगभग 150 घरों वाला छोटा सा आदिवासी बहुल गांव कोहला विकास की रोशनी में जगमगा रहा होगा. लोगों को सारी जन सुविधाएं उपलब्ध होंगी. लेकिन बरगी विधान सभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले इस गांव का दुर्भाग्य आज भी बरकरार है. सांसद निधि से प्राप्त 25 करोड़ रुपयों और गांव में चलने वाली राज्य सरकार की तमाम योजनाओं के बावजूद गांववासियों को मार्च के महीने में ही भीषण जल संकट से जूझना पड़ रहा था.

रोजगार के लिए गांव से जबलपुर और नरसिंहपुर जिलों के दूरदराज इलाकों में जाने के लिये लोग अब भी मजबूर हैं. गांव के एकमात्र तालाब में पानी की उपलब्धता अवधि के महीनों को बढ़ाने के लिये उसका दिखावटी और भ्रष्टाचार वाली विधि से गहरीकरण कराया गया है. मशीन से तालाब के किनारे-किनारे गड्ढे खोदकर मेढ़ पर मिट्टी चढ़ा देने का दस्तूर सा कर दिया गया है. विधान सभा चुनावों के समय नवंबर 2018 में चुनावी सभा के लिए एक जगह को साफ करके मैदान जैसा बनाया गया था, गांव के युवक वहां क्रिकेट खेल रहे थे. उनके पास खेल के साजोसामान का भारी अभाव था. बावजूद इसके जुगाड़ करके उन्होंने स्थानीय चीजों को जमा करके अपने लिये स्टंप, गिल्ली आदि बना ली थी.

उनसे बातचीत करने पर पता चला कि वे अपने सांसद से बेहद नाराज हैं. उनके लिए रोजगार-धंधे संबंधी कोई पहल नहीं की गई. स्त्रियां रात भर पानी भरने के लिये रतजगा करती हैं. महिला सरपंच ने तालाब के किनारे अपना निजी बोर करा रखा है, वही इन दिनों पेयजल का एकमात्र साधन बना हुआ है.

गांव के ही एक नौजवान मोती सिंह ने सांसद राकेश सिंह की नकल करते हुए हमें बताया कि वे जब भी गांवों के दौरों पर निकलते हैं, अपने हाथ में एक कागज रखते हैं. सभा को संबोधित करते हुए कहते हैं कि अच्छा तो यह वो गांव है, जहां से मुझे 20 वोट मिले थे. तो 20 वोट देने वाले गांव के लिये हम क्या करें? चलो एक रंगमंच बनवा देते हैं. इस तरह वे अपने को उन गांवों का सांसद नहीं मानते, जहां से वे हार गए थे. पर वे उन गांवों की भी अनदेखी करते रहे हैं, जहां से उन्हें जीत हासिल हुई थी.

एक और चकित करने वाली बात यह देखने में आई कि गांव में ही कई जगहों पर शासकीय योजनाओं के तहत बने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, आंगनबाड़ी केंद्र विद्यालयों आदि के सामने जो बोर्ड लगे हुए हैं, उनमें से ‘आदर्श ग्राम’ शब्द को पोत कर मिटा दिया गया है. पूछने पर एक किसान ने बताया कि कोहला में जो काम पहले से हो चुके हैं, उन पर भी ‘आदर्श ग्राम योजना’ वाला बोर्ड लगा दिया गया था, परंतु बाद में आपत्ति आने पर मिटा दिया गया.

यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जो सांसद राकेश सिंह 25 करोड़ रुपयों की सांसद निधि सहित और विभिन्न सरकारी योजनाओं के जारी रहते हुए भी एक छोटे से गांव की मूलभूत जरूरतों को ही पूरा नहीं कर सके, वे पूरे संसदीय क्षेत्र के लिए क्या करेंगे? भाजपा ‘आदर्श ग्राम योजना’ को विकास का मॉडल बनाने निकली थी, लेकिन उसे उसके ही नाकारा सांसदों ने दुर्दशा का मॉडल बना दिया है.

भोपाल संसदीय क्षेत्र तारा सेवनिया : न पीने का पानी न साफ सफाई

भोपाल के सांसद आलोक संजर ने राजधानी से करीब 25 किमी दूरी वाले शहरी गांव तारा सेवनिया को आदर्श ग्राम बनाने के लिये गोद लिया है. इस गांव की आबादी है मात्र 4000. गोद लेने के बाद भी इस गांव में कोई विशेष बदलाव नहीं दिखाई देता.

तारा सेवनिया को भोपाल सेवनिया का चमचमाता हुआ आदर्श ग्राम बनाने की खातिर 1.63 करोड़ रुपये की योजनाएं प्रस्तावित की गई थीं. लेकिन वास्तविकता तो यह है कि वे योजनाएं 5 साल का अरसा गुजर जाने के बाद भी कागजों से बाहर नहीं आ सकी हैं. सांसद आलोक संजर की उपेक्षा के चलते, उनके द्वारा गोद लेने के बाद भी इस गांव में अपेक्षा के अनुरूप विकास कार्य नहीं हो पाए हैं. पीने के लिये शुद्ध पानी तक नहीं है. जिस स्वच्छता के लिये पूरे देश में ढिंढोरा पीटा जा रहा है, उसका यहां कोई नाम लेवा तक नजरर नहीं आता.

नल जल योजना स्वीकृत तो की गई, लेकिन काम पूरा नहीं किया गया. शौचालय के लिये अब भी बहुत से ग्रामीण खुले में जाने के लिये विवश हैं. गांव में कोई सीवेज प्रणाली नहीं है. गंदा पानी सड़क पर बहता रहता है. कचरा एकत्रित करने की समुचित व्यवस्था सिरे से ही गायब है.

यहां पर हायर सेकंडरी स्कूल और इलाज के लिये एक छोटा हस्पताल पहले से ही है, लेकिन डॉक्टर और दवाओं के लिये वह तरसता रहता है. स्कूल के ऐन सामने ही शराब की दुकान थी. दो साल बाद तक दुकान नहीं हट पाई थी. गांव वालों को उसका विरोध करने के लिये कमर कसनी पड़ी. तब कहीं जाकर शराब दुकान हटी है.

पानी की टंकी तैयार है लेकिन उसका प्रयोग शुरु नहीं हुआ है. प्रशासनिक तालमेल न होने से विकास के काम पिछड़े हुए हैं. नलके लगाने की योजना पारित तो हो गयी है, लेकिन नलके लगे नहीं. गांव में कई घरों में शौचालय नहीं हैं. जहां हैं, वहां पानी नहीं होने से वे बेकार पड़े हैं.


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