भारत के आधुनिकीकरण की प्रस्तावना है आंबेडकर की किताब ‘जाति का विनाश’


ambedakars book anhilation of caste is prelude to concept of modern india

 

ब्रिटिश सत्ता से भारत की मुक्ति के संघर्ष के दौरान विभिन्न नायकों ने आधुनिक भारत का सपना देखा. भारत की आधुनिकता की परियोजना में देश की संप्रभुता, जनसंप्रभुता, समग्रता में लोकतांत्रिक प्रणाली, धर्मनिरपेक्षता, वर्णगत-जातिगत और पितृसत्तात्मक वर्चस्व और अधीनता के संबंधों से पूर्ण मुक्ति, उत्पादन और संपत्ति संबंधों में गुणात्मक परिवर्तन और नई सृजित होने वाली संपत्ति का न्यायसंगत बंटवारा शामिल था. इस परियोजना की अलग-अलग तत्त्वों को केंद्र में रखने वाली भिन्न-भिन्न धाराएं विकसित हुईं. इसके भिन्न-भिन्न प्रतीक पुरुष थे.

गांधी देश की आजादी के प्रतीक पुरुष बने और उनका सपना था कि आजादी के बाद एक ऐसा भारत बनेगा, जिसके केंद्र में भारत का आमजन होगा. नेहरू यूरोपीय लोकतांत्रिक परंपरा और राज्य नियंत्रित पूंजीवाद के अगुवा थे और आश लगाए रहे कि इसी से देश के भीतर सामाजिक समता स्थापित होगी और संसाधनों का न्यायसंगत बंटवारा हो जाएगा. आंबेडकर और पेरियार भारत के आधुनिकीकरण की बुनियादी शर्त वर्ण-जाति व्यवस्था का पूर्ण उच्छेद और जातिवादी पितृसत्ता के खात्मे में देखते थे, जिससे लोहिया भी पूरी तरह सहमत थे.

वर्ण-जाति व्यवस्था क्या है, क्यों इसका खात्मा होना चाहिए, कैसे इसका खात्मा हो सकता और क्यों इसके खात्मे के बिना आधुनिक भारत का सृजन नहीं किया जा सकता? इन सभी प्रश्नों पर गंभीर चिंतन और विश्लेषण डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब जाति के विनाश में किया है. मूल रूप से यह पुस्तक नहीं, एक व्याख्यान है, जिसे जात-पात तोड़क मंडल, लाहौर के वार्षिक अधिवेशन, 1936 के अध्यक्ष पद से पढ़ने के लिए डॉ. आंबेडकर ने तैयार किया था. भाषण के कुछ अंशों पर असहमति के चलते आयोजकों ने आयोजन रद्द कर दिया, जिसके चलते डॉ. आंबेडकर यह भाषण नहीं दे पाए. बाद में उन्होंने इसे 1936 में ही किताब के रूप में प्रकाशित कराया. प्रकाशित होते ही यह अत्यन्त लोकप्रिय किताब बन गई. विभिन्न भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ. पुस्तक इतनी शक्तिशाली थी कि इसने गांधी का ध्यान अपनी ओर खींचा. गांधी ने अपने पत्र ‘हरिजन’ में इस पुस्तक पर दो टिप्पणियां लिखीं. पहली टिप्पणी में उन्होंने लिखा, “कोई भी सुधारक इस व्याख्यान की उपेक्षा नहीं कर सकता. जो रूढ़िवादी हैं, वे इसे पढ़ कर लाभान्वित होंगे.”

इस किताब की शुरुआत डॉ. आंबेडकर बुद्ध और विलियम डूमांड के कथनों से करते हैं. सबसे पहले बुद्ध को उद्धृत करते हुए यह संकल्प प्रस्तुत करते हैं कि सत्य को सत्य और असत्य को असत्य जानो. विलियम डूमांड को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं कि जो तर्क नहीं करेगा, वह धर्मांध है. जो तर्क नहीं कर सकता, वह मूर्ख है और जिसमें तर्क करने का साहस नहीं है, वह दास है. सत्य के साथ खड़े होकर और धर्मंधता, मूखर्ता और दासत्व भाव से मुक्त होकर इस किताब में उन्होंने वर्ण-जाति व्यवस्था और उसके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थकों के तर्कों को बेबाक तरीके खारिज किया है. इस प्रक्रिया में वे इतिहास और समय की विचार प्रणालियों और व्यक्तित्वों से टकराए हैं. वे जाति वर्ण-व्यवस्था के पालक-पोषक हिंदुत्वादियों, राजनीतिक आजादी को सारी समस्याओं का समाधान मानने वाले कांग्रेसियों, आर्थिक शक्ति को एक मात्र शक्ति मानने वाले समाजवादियों और जाति व्यवस्था के खात्में के समर्थक, लेकिन वर्ण व्यवस्था के समर्थक आर्य समाजियों एवं गांधी से इस किताब में मुकम्मिल तर्कों के साथ बहस करते हैं.

किताब के दूसरे संस्करण की भूमिका में वे इस किताब के उद्देश्य को स्पष्ट शब्दों में रखते हुए कहते हैं, “अगर मैं हिंदुओं को यह महसूस करा पाता हूं कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी अन्य भारतीयों के स्वास्थ्य और खुशी के लिए खतरे पैदा कर रही है, तो मेरी संतुष्टि के लिए इतना काफी होगा.” आंबेडकर की नजर में यह बीमारी जाति की बीमारी है, जो सभी भारतीयों को ग्रसित किए हुए. वे बताते हैं कि इस बीमारी के शिकार भारत के मुसलमान और ईसाई भी हैं, भले ही उनका धर्म वर्ण-जाति को मान्यता न देता हो. जाति के खिलाफ संघर्ष को उन्होंने स्वराज के लिए संघर्ष से ज्यादा दुष्कर माना है. उन्होंने लिखा है,“जब आप स्वराज के लिए लड़ते हैं, तो सारा राष्ट्र आपके साथ होता है, किंतु जाति के विरुद्ध संग्राम को सारे राष्ट्र से संघर्ष करना होगा और वह राष्ट्र कोई दूसरा नहीं-स्वयं अपना ही है.” वे बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में कोई भी व्यक्ति, समुदाय या वर्ग ऐसा नहीं है जो जाति का शिकार न हो. जाति ने किसी ना किसी तरीके से सबको ग्रसित कर रखा है. इसी को रेखांकित करते हुए लोहिया ने लिखा कि भारतीय आदमी का दिमाग जाति और योनि के कटघरे में कैद है.

जाति का विनाश किताब में सबसे पहले आंबेडकर उन परिस्थितियों और कारणों का जिक्र करते हैं, जिनके चलते उन्हें जात-पातक तोड़क मंडल के लाहौर अधिवेशन भाषण नहीं देने दिया गया. उन्होंने इस किताब में स्वयं इस तथ्य का उल्लेख किया है कि सवर्णों की सभा में भाषण देने की पहली बार स्वीकृति उन्होंने दी थी, लेकिन वह भी नहीं हो पाया.

इस किताब में सबसे पहले आंबेडकर भारत की राजनीतिक आजादी के लिए संघर्ष कर रही सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस और उसके नेताओं के जाति के प्रति नजरिए का विस्तार से जायजा लेते हैं. वे बताते हैं कि कांग्रेस की स्थापना के बाद शुरुआती वर्षों में राजनीतिक सुधार और सामाजिक सुधार दोनों एक साथ चल रहे थे. कांग्रेस के राजनीतिक सम्मेलनों के साथ समानांतर सामाजिक सम्मेलन होते थे, जिसे सोशल कांफ्रेंस नाम दिया गया था, लेकिन कुछ वर्षों बाद ही कांग्रेस से उच्च जातीय मानसिकता से ग्रस्त नेताओं के विरोध के चलते कांग्रेस ने खुद को सामाजिक सुधारों से अलग कर लिया. सामाजिक सुधार विरोधी आंदोलन के नेताओं की अगुवाई तिलक कर रहे थे. यहां तक कि सोशल कांफ्रेस के पांडाल में आग लगा दी गई. कांग्रेस के समाज सुधार विरोधी नेताओं के तर्कों का जवाब देते हुए आंबेडकर विस्तार से जातीय उत्पीड़न और अपमानजनक घटनाओं के ऐतिहासिक और सामायिक उदाहरण देते हैं और बताते हैं कि कैसे सामाजिक सुधार के बिना कोई भी राजनीतिक सुधार अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सकता. यह सारी बहस उन्होंने ‘राजनीतिक सुधार के लिए सामाजिक सुधार क्यों जरूरी है?’ उपशीर्षक के तहत प्रस्तुत की है.

कांग्रेस के बाद उस समय की सबसे बड़ी शक्ति वामपंथियों-समाजवादियों की थी. ‘आर्थिक सुधार के लिए सामाजिक सुधार क्यों जरूरी है?’ इस उपशीर्षक के तहत आंबेडकर समाजवादियों की यूरोप की नकल पर यांत्रिक आर्थिक व्याख्या की एकांगिकता को उजागर करते हैं और बताते हैं कि किसी भी समाज में वर्चस्व और अधीनता के संबंध के कारण आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक और धार्मिक भी होते हैं. वे लिखते हैं,“धर्म,सामाजिक स्थिति और संपत्ति, ये तीनों शक्ति या सत्ता का स्रोत होते हैं, जो दूसरे की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने में किसी व्यक्ति को सक्षम बनाते हैं.”

वे समाजवादियों के इस यांत्रिक और एकांगी चिंतन को भी प्रश्नांकित करते हैं कि जाति श्रम विभाजन का ही दूसरा नाम है. इसका प्रतिउत्तर देते हुए आंबेडकर लिखते हैं कि जाति सिर्फ श्रम विभाजन नहीं, यह श्रमिकों का भी विभाज है. सभ्य समाज में निश्चय ही श्रम विभाजन की जरूरत होती है. लेकिन किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का अप्राकृतिक श्रम-विभाजन इस तरह नहीं है कि श्रमिकों के एक वर्ग का सदस्य श्रमिकों के दूसरे वर्ग में शामिल न हो सके. इसके बाद वे विस्तार से स्वाभाविक श्रम विभाजन और जाति आधारित श्रम विभाजनों के बीच के अंतर को रेखांकित करते हैं.

कांग्रेस और समाजवादियों से जाति चरित्र पर संवाद करने के बाद आंबेडकर इस किताब में जाति व्यवस्था के पक्ष में दिए जाने वाले नस्ल की शुद्धता के सिद्धांत को जीव वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर एक-एक करके वैज्ञानिक शोधों के निष्कर्षों, तथ्यों, अनुभवसंगत ज्ञान और तर्क के आधार पर खारिज करते हैं. फिर वे एक-एक करके भारतीय समाज और देश को जाति से होने वाले बुनियादी दुष्परिणाओं की विस्तार से चर्चा करते हैं. पहला जाति हिंदुओं को वास्तविक समाज और राष्ट्र बनने से रोकती है, दूसरा समाज विरोधी भावना जाति व्यवस्था का सबसे निकृष्टतम लक्षण है, तीसरा जाति आदिम जनजातियों की उन्नति और समावेशीकरण को रोकती है, तीसरा उच्च जातियों ने निम्न जातियों को निम्न बनाए रखने के लिए साजिश रची, चौथा जाति ने हिंदू धर्म को मिशनरी धर्म बनने से रोका, पांचवा जाति ने हिंदुओं को परस्पर सहयोग, विश्वास और बंधुता की अनुभूति से वंचित किया, छठा हर प्रकार के सुधारों को रोकने के लिए जाति ताकतवर हथियार है, सातवां जाति लोकभावना, लोक विचार और लोक उदारता का विनाश करती है.

जाति के उपरोक्त सातों दुर्गुणों की विस्तार से चर्चा करने के बाद आंबेडकर अपने आदर्श समाज की रूप रेखा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं,“अगर आप जाति को नहीं चाहते हैं, तो आपका आदर्श समाज क्या है, यह प्रश्न आपके द्वारा पूछा जाना अश्वयंभावी है. अगर आप मुझसे पूछते हैं, तो मैं कहूंगा मेरा आदर्श एक ऐसा समाज होगा, जो स्वतंत्रता, समता और भातृत्व पर आधारित होगा और क्यों न हो?

आंबेडकर किताब के बाद के आधे हिस्से में जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए अब तक किए गए प्रयासों का सारसंकलन करते हैं और वे जाति व्यवस्था के खात्मे के उपायों की विस्तार से चर्चा करते हैं. इसी प्रक्रिया में उनकी वर्ण-जाति के प्रश्न पर गांधी के साथ विस्तार और तीखी बहस होती है. जो इस किताब में समाहित हैं.

(रामू सिद्धार्थ फॉरवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक हैं)


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