आधुनिकीकरण की होड़ में पहचान के लिए संघर्षरत है ये जनजाति


an indigenous community of laddakh struggling for identity

  IGNCA

आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में जनजातियां अपनी पहचान खोने के लिए अभिशप्त हैं. आधुनिकता और पारंपरिकता के बीच एक संतुलन बनाने के लिए संघर्ष करती हुई कई जनजातियां या तो विलुप्त हो गई या इसके कगार पर हैं.

जम्मू कश्मीर में लद्दाख क्षेत्र में ऐसी ही एक ‘दर्द आर्यन’ जनजाति अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने के लिए संघर्ष कर रही है. तेज गति से हो रहे आधुनिकीकरण, प्रवास से इनकी पहचान खतरे में है. उन्होंने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए केन्द्र सरकार से मदद की गुहार भी लगाई है. इसके लिए उन्होंने जनजातीय मामलों के राज्य मंत्री सुदर्शन भगत को अपना एक मांग पत्र भी सौंपाल हैं.

यह जनजाति अपनी उदार परंपराओं को लेकर जानी जाती है. ये लोग लेह और करगिल जिलों के धा, हानू, बीमा, दारचिक और गारकोन गांवों में रहते हैं. इन्हें आर्यों का वंशज माना जाता है. जहां ये रहते है उन गांवों को आर्य घाटी कहा जाता है.

लद्दाख के बाकी इलाकों से उनका जीवन बिल्कुल अलग है. उनकी अपनी अनूठी शारीरिक विशेषताएं, सामाजिक जीवन, संस्कृति और भाषा है. वे लोग सिर्फ दूध, बकरे और भेड़ का मांस खाते हैं. उत्सवों और खेती से जुड़े कामों के लिए सौर पंचांग का उपयोग करते हैं.

इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर ऑफ आर्ट्स (आईजीएनसीए) के एक अधिकारी ने कहा कि कई रिसर्चर का मानना है कि लद्दाख के आर्य 2000 साल पहले सिकंदर की सेना का हिस्सा रहे थे.

उन्होंने बताया कि यह जनजाति की घटती संख्या की वजह से खतरे में है. फिलहाल, इनकी आबादी करीब 4000 है. मुख्य रूप से खेती पर निर्भर हैं. शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े हैं.

रिसर्चर ने यह भी दावा किया है कि इनमें से ज्यादातर लोगों ने इस्लाम या बौद्ध धर्म अपना लिया है. इससे उनकी परंपराओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

इस जनजाति पर व्यापक अध्ययन करने वाले आईजीएनसीए के वीरेंद्र बंगारू के मुताबिक यह जनजाति आधुनिकता और पारंपरिकता के बीच एक संतुलन बनाने के लिए संघर्ष कर रही है.


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