खामोश! कॉरपोरेट मुनाफे की चौकीदारी जारी है…


slowdown in indian pharmaceutical market is lowest in last seven quarters

 

खामोश! दवा कंपनियों के मुनाफे की चौकीदारी लगातार जारी है. यह चौकीदारी कर रही है केन्द्र सरकार जो देश की दवा नीति तय करती है. उन्होंने देसी और विदेशी दवा कंपनियों को ब्रांडेड दवाओं की बिक्री के माध्यम से मुनाफा कमाने की छूट दे रखी है.

खामोश इसलिए कहा गया है क्योंकि ऐन लोकसभा चुनाव के पहले सरकार पर सवाल करना वाट्सअप और सोशल मीडिया यूनिवर्सिटी के छात्रों को रास नहीं आता है. वे हमलावर रुख अख्तियार कर सकते हैं. लेकिन आज कागज के बाघ से डरता कौन है? जनता के हित में सवाल खड़ा करना जनतंत्र को मजबूती प्रदान करना है. दूसरी बात है कि हमने कभी चौकीदार के नाम नहीं पुकारा है. वे तो खुद ही पहले प्रधान सेवक और फिर चौकीदार होने का दावा कर रहे हैं.

अप्रैल 2017 में प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात के सूरत में स्वंय घोषणा की थी, “…हमने स्टेंट सहित करीब 700 दवाओं के दाम तय कर दिए ताकि गंभीर बीमारी में गरीब से गरीब व्यक्ति को सस्ती दवाइयां मिले ये काम किया. दवाई बनाने वाले मुझसे कितने नाराज़ होंगे इसका आप अंदाज लगा सकते हैं.”

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि उनकी सरकार ऐसा कानून बनाएगी जिससे डॉक्‍टरों के लिए सस्‍ती जेनरिक दवाएं लिखना अनिवार्य हो जाएगा.

प्रधानमंत्री की इस घोषणा को दो साल होने को हैं आप स्वंय बाजार चले जाइए वहां पर आप सस्ते जेनेरिक दवा को खोजते रह जाएंगे. उदाहरण के तौर पर हम कुछ कथित जेनेरिक दवाओं के दामों के बारें में आपको बताते हैं.

हमारे देश की कंपनी CIPLA की हाइपर एसिडिटी और अल्सर की एक दवा है PANTOSEC 40, इसके 10 गोलियों के पैक को खुदरा दवा विक्रेताओं को 18.40 रुपये में दिया जाता है लेकिन इसका अधिकतम खुदरा मूल्य 110 रुपये है. मतलब इस दवा को जितने में खरीदा जाता है उससे करीब छह गुना खुदरा दाम पर बेचा जा सकता है. जबकि इसी दवा की एक ब्रांड SUN PHARMA की भी है जिसका नाम है PANTOCID 40, इसके 15 गोलियों के पैक की कीमत है 138 रुपये. इस तरह से ब्रांडेंड दवा के एक गोली की कीमत है 9.2 रुपये जबकि जेनेरिक के नाम से उपलब्ध दवा के एक गोली की कीमत है 11 रुपये है.

इस तरह से बाजार में जो जेनेरिक दवा उपलब्ध है वह ब्रांडेंड से मंहगी है. अब आप जेनेरिक दवा लेना चाहेंगे या ब्रांडेंड? दरअसल, लोगों को जेनेरिक बनाम ब्रांडेंड दवा के मकड़जाल में उलझा दिया गया है. मुद्दा दवा के दाम कम होने का होना चाहिये है उसके ब्रांडेंड या जेनेरिक होने का नहीं. वैसे इसके नेपथ्य में बाजार की शक्तियां सक्रिय हैं इससे इंकार नहीं किया जा सकता.

बेशक, मोदी सरकार ने हृदय की धमनियों में लगने वाले स्टेंट के दाम कम किए गए हैं. लेकिन यह सब दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद ही हुआ है. बता दें कि पेशे से वकील वीरेंद्र सांगवान ने 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की कि अस्पतालों में स्टेंट की कीमत बहुत ज़्यादा वसूली जा रही है. सांगवान ने मांग की कि स्टेंट को National List of Essential Medicines (NELM) में डाला जाए. सांगवान अपना केस जीत गए और दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश भी दे दिया, मगर सरकार ढिलाई बरतती रही.

जुलाई, 2016 में अवमानना याचिका दायर की गई कि सरकार कोर्ट के आदेश के अनुसार काम नहीं कर रही है. दिसबंर 2016 में एक और याचिका दायर करने के बाद केन्द्र सरकार ने फैसला लिया. इसके तहत अब सरकार ने सारे अस्पतालों के लिए स्टेंट की कीमतें तय कर दिए हैं. रही बात कि करीब 700 दवाओं के दाम कम कर दिए गए हैं यहां पर नेशनल फार्मास्युटिकल्स प्राइसिंग अथॉरिटी NPPA द्वारा दवाओं के जो दाम निर्धारित किए गए हैं उनके बारे में कहा जा रहा है.

यदि वाकई में NPPA द्वारा दवाओं के जो दाम तय किए गए हैं वो जनता को राहत पहुंचा रहे हैं तो जेनेरिक दवाओं की बात करने की क्या जरूरत है. NPPA द्वारा वर्तमान में जो दवाओं के दाम तय किए जाते हैं वह बाजार के सर्वे पर ही आधारित होता है जबकि पहले दवाओं के उत्पादन लागत के आधार पर और उसमें निश्चित मुनाफे की इजाज़त देकर दवाओं के दाम सरकार तय करती थी. यदि मोदी सरकार उतना भी कर देती तो उन्हें साधुवाद दिया जा सकता था.

अब हम फिर से जेनेरिक दवा के मुद्दें पर लौट आते हैं. गौरतलब है कि साल 2015-16 में किए गए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार औसतन 44.9 फीसदी आबादी बीमार पड़ने पर सरकारी स्वास्थ्य क्षेत्र में जाते हैं और 51.4 फीसदी आबादी ही निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में जाते है. आबादी का आधा हिस्सा बीमार पड़ने पर निजी चिकित्सा संस्थानों में जाता है जहां उन्हें ब्रांडेंड दवा लिखी पर्ची दी जाती हैं. इस तरह से आधी आबादी खुले बाजार से दवा खरीदती है. सवाल इन्हीं मरीजों की दवा के दाम को कम करने का है जिसका कि जेनेरिक की बदौलत दावा किया जा रहा है. लेकिन दो साल होने को हैं न ही चिकित्सकों को जेनेरिक दवा लिखने के लिए कानून लाया गया और न ही बाजार में कम कीमत वाली जेनेरिक दवा उपलब्ध है.

देश की आधी आबादी को निजी दवा कंपनियां महंगी-महंगी दवा बेचकर अकूत मुनाफा कमा रहीं हैं जिस पर अब तक लगाम नहीं लगाया जा सका है. फार्माबिज के सर्वे के अनुसार मार्च 2018 तक देश के टॉप 50 दवा कंपनियों का नेट सेल्स एक करोड़ 98 हजार 9 सौ 65 करोड़ रुपये का था तथा इनका नेट प्रोफिट 23 हजार 4 सौ 64 करोड़ रुपये का था. जाहिर है कि चौकीदारी काम नहीं आई तथा दवा कंपनियां मरीजों को लूटकर मुनाफा कमाए जा रही है.

जनता चाहती है कि बाजार में सस्ती दवा उपलब्ध हो इसके लिए दवा कंपनियों के मुनाफे पर लगाम लगाना पड़ेगा. कम से कम स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप द्वारा इसे सस्ता और सर्वसुलभ बनाया जाना चाहिए. यदि सरकार की मंशा जेनेरिक दवा को बढ़ावा देने की है तो ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट में संशोधन करके सभी दवाओं के लिए जेनेरिक नाम अनिवार्य क्यों नहीं कर दिया जाता है जैसा जस्टिस जयसुखलाल हाथी की अध्यक्षता में बनी हाथी कमेटी ने अपनी सिफारिश में कहा था.

नीति बनाते वक्त इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि दवा चिकित्सक नहीं दवा कंपनियां बनाती हैं और उसे बाजार से खरीदना पड़ता है. और इन दवाओं के अधिकतम दाम तय करने का अधिकार केन्द्र सरकार के पास है.

चौकीदार को, चौकीदार चौकन्ना है, का दावा करने के साथ-साथ कार्यरूप में भी जतलाना पड़ेगा कि वे वाकई में जनता को दवा कंपनियां लूट न सके इसके प्रति चौकन्ने हैं.

एक तरफ भाषण के माध्यम से कहा जाता है कि “…दवाई बनाने वाले मुझसे कितने नाराज़ होंगे इसका आप अंदाज लगा सकते हैं”, वहीं दूसरी ओर देसी-विदेशी दवा कंपनियों के वारे-न्यारे हो रहें हैं. केन्द्र सरकार एशेंसियल कमोडिटी एक्ट के तहत देश में उपलब्ध सभी दवाओं पर मूल्य नियंत्रण लागू कर सकती है उन्हें ऐसा करने से कौन रोक सकता है? इसीलिए तो सवाल किया जा रहा है कि कहीं दवा कंपनियों के मुनाफे की चौकीदारी तो नहीं की जा रही है.


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