अफगानिस्तान के आंतरिक हालात अमेरिका-तालिबान समझौते पर डाल सकते हैं असर


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29 फरवरी को अमेरिका और तालिबान एक ऐतिहासिक समझौते पर दस्तखत कर सकते हैं और अगर वाकई ये दस्तावेज हकीकत में बदल पाता है तो ये अफगानिस्तान के लिए ही नहीं पूरे अंतरराष्ट्रीय समूह के लिए एक बड़ी उपलब्धि साबित होगी. तीन दशक से युद्ध और आतंकवाद से जूझ रहे अफगानिस्तान के लिए यह एक बड़ा मौका तो है लेकिन साथ ही ये कई सारी चुनौतियां सामने लाता है, जो कि अफगानिस्तान के भविष्य को अनिश्चितता में ही घेरे रखता है.

9/11 हमले के बाद अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा के अड्डों पर हवाई हमले शुरू कर दिए थे जो कि आने वाले वक्त में अमेरिकी सेना और नैटो की मौजूदगी का आगाज था. बीते दशक में एक बड़ी संख्या में नैटो और अमरीकी सेना के जवानों ने अफगानिस्तान में अपनी जानें गवाई हैं जिसके चलते अमेरिका में यह बेहद ही संवेदनशील और अहम मुद्दा बन गया है. तालिबान से समझौता करने की जरूरत आम अमेरिकी नागरिकों द्वारा अमेरिकी सरकार पर डाले जा रहे दबाव के साथ साथ तालिबान की कम ना होने वाली आतंकवादी गतिविधियां और ताकत हैं. अमेरिका राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान से वापस अमेरिका लाने का वादा इस समझौते के जरिए पूरा कर रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे अपनी बड़ी उपलब्धि के तौर पर दर्ज कराना चाहते हैं.

शांति वार्ता में समझौते करने के लिए अमेरिका ने तालिबान के सामने एक हफ्ते तक युद्ध विराम की शर्त रखी थी जो देर रात शुक्रवार को अमल में आई थी. यह शर्त इसलिए रखी गई है कि तालिबानी नेतृत्व बाकी तालिबान सदस्यों पर वाकई कोई ताकत रखता है या नहीं. पिछले साल सितंबर में इस ही शर्त को पूरा ना कर पाने के कारण राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने शांति वार्ता पर विराम लगा दिया था.

9/11 हमले के बाद अमेरिकी सेना ने तालिबान को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से खदेड़ दिया था, जिसके बाद 7 दिसंबर 2004 को हामिद करजई अफगानिस्तान लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए पहले राष्ट्रपति बने. करजई के सत्ता में आने के बाद ये आशा जताई गई थी कि तालिबान धीरे-धीरे अपनी ताकत खो देगा और अमन और शांति कायम हो जाएगी. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं और यह जरूरत महसूस होने लगी कि तालिबान को लोकतांत्रिक ढांचे में हिस्सेदारी दी जाए. वैचारिक रूप से इस अमन के समझौते की बुनियाद करजई के कार्यकाल में ही रखी जा चुकी थी लेकिन करजई के दोनों ही कार्यकालों में इस पर कोई खास तरक्की नहीं हो पाई.

मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ गनी ने तालिबान से बातचीत के लिए प्रस्ताव रखा लेकिन तालिबान ने इसे पूरी तरह से यह कहते हुए नकार दिया कि वह सिर्फ अमरीकी प्रतिनिधियों से ही बात करेंगे ना कि काबुल में मौजूद सरकार से जोकि अमेरिका की कठपुतली है. गनी और उनकी सरकार की तरफ से किसी को भी शांति वार्ता के लिए नहीं बुलाया गया. यह बेहद ही चिंताजनक है क्योंकि आने वाले वक्त में अंतरराष्ट्रीय समूह की गैर-मौजूदगी में सरकार और तालिबान दोनों को साथ चलकर ही शांति की तरफ आगे बढ़ना है. इस हाल में जहां तालिबान अफगान सरकार को पूरी तरह से नकारने में लगा है और अमेरिका की मौजूदगी में भी उससे बात करने को तैयार नहीं है, अमेरिका के जाने के बाद किस तरह से देश की दिशा पर समझौता कर पाएंगे, यह अभी बेहद ही धुंधला है.

अमेरिका और तालिबान के बीच हो रही शांति वार्ता में अमेरिका की तरफ से भेजे गए खास नुमांईदे जालमाई खलिलजाद ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिनके बिना इस समझौते के बारे में सोच पाना तकरीबन नामुमकिन है. अमेरिकी नागरिक जालमाई खलिलजाद जो कि मूलत: अफगानिस्तान से ही हैं, इस शांति वार्ता में मध्यस्थ के किरदार में रहे. उनकी पहुंच और विश्वस्नीयता अफगानिस्तान और अमेरिकी अधिकारियों दोनो में ही है. यहां तक की तालिबान भी बातचीत की मेज पर उन्हीं की वजह से टिका रहा. एक बड़ी वजह कि इस समझौते को आने वाने वाले वक्त में मुमकिन माना गया वो खलिलजाद की महत्वकांक्षा और इस समझौते को अपनी निजी उपलब्धि के तौर पर मनवाने की चाह है. वह इस प्रक्रिया में इस ही तरह से शुरुआत से जुड़े रहे जैसे कि वो उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य हो. बीते साल में भी वो एक समझौता तय करवाने के बेहद करीब आ गए थे.

अमेरिका-तालिबान समझौते के बाद सबसे बड़ा मसला तालिबान और अफगान सरकार के बीच सत्ता और ताकत की लड़ाई का है. आने वाले वक्त में यह बहुत ही बड़ी मुसीबत के रूप में अफगानिस्तान में फिर से गृह युद्ध की स्तिथि खड़ी कर सकता है. आम अफगानियों में यह डर है कि अमेरिकी सेना के लौट जाने के बाद तालिबान की ताकत फिर से कायम हो जाएगी और वह अपने पुराने तौर-तरीकों और गतिविधियों पर वापस लौट आएगा. तालिबान ने ना तो अपनी पुरानी सोच को बदला है और ना ही बीते सालों में मानावाधिकारों के हनन और आतंकवाद को कम किया है. यहां तक कि तालिबान शांति वार्ता में है ही इसलिए कि उन्हें रोकने या खत्म करने में अमरीकी और नैटो सेनाएं नाकाम रहीं हैं और उन्हें हिस्सेदारी देने के सिवा कोई दूसरा उपाय भी नहीं निकल पा रहा है.

सबसे ज्यादा खतरा तो महिलाओं के अधिकारों को है, जिनके सार्वजनिक जीवन पर तालिबान ने पूरे तरीके से प्रतिबंध लगा दिया था. उनकी शिक्षा, नौकरी यहां तक कि अकेले घर से बाहर निकलने पर भी रोक लगा दी थी. तालिबान एक तरफ औपचारिक तौर पर इसे अपनी भूल मान रहा है और आश्वासन दे रहा है कि इस बार वह ऐसा कुछ नहीं दोहराने जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इस तरह की बयानबाजी भी कर रहा है कि महिलाओं के अधिकारों को लेकर उसके नजरिए में कोई फर्क नहीं आया है और जो अधिकार कुरान उन्हें देती है वही उन्हें मिलेंगे. यह अपने आप में चिंताजनक है क्योंकि तालिबान का अपना ही एक नजरिया है और उनके इस्लाम की समझ और लागू करने का तरीका भी निहायत ही रूढ़िवादी है.

वहीं दूसरी ओर हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनावों के नतीजों ने भी देश में दोबारा से विरोध प्रदर्शन और निराशा पैदा कर दी है. आखिरी नतीजों में अशरफ गनी बहुत कम अंतर से मुख्य कार्यकारी अधिकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला से आगे रहे और जीत गए. 18 फरवरी को घोषित किए गए इन नतीजों को अब्दुल्ला ने पूरी तरह से खारिज कर दिया है और कहा कि ये नतीजे ‘गैर कानूनी और ज्यादातर अफगानियों को नामंजूर हैं’. उन्होंने अपनी एक समानांतर सरकार बनाने की घोषणा कर दी है. वहीं उजबेकी नेता और पूर्व उपराष्ट्रपति अब्दुल राशिद दोस्तुम ने अपने समर्थकों से सड़कों पर उतरकर गनी के इस तरह से दोबारा चुने जाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने को कहा. उन्होंने अपना समर्थन अब्दुल्ला को दे दिया है. राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के साथ साथ ये मामला अफगानिस्तान के भीतर शुरुआत से ही चले आ रहे नस्लीय विभेद का है, जहां शुरु से ही पश्तून कौम ने राज किया है और उन्हीं का बोल-बाला रहा है. गनी भी पश्तून समाज से ताल्लुक रखते हैं और ज्यादातर तजीक, हजारा और उजबेकी कौम के लोगों में अविश्वसनीय और अलोकप्रिय हैं.

इस चल रहे विवाद में सबसे खतरनाक यह है कि ना सिर्फ यह शांति वार्ता पर बुरा असर पड़ सकता है, साथ ही साथ ये तालिबान को फिर से और भी ताकतवर रूप से उभारने का काम कर सकता है.


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