कोयला उद्योग में ‘गो स्लो’ की रणनीति के मायने


article on coal mines and its politics related to nationalisation

 

देश में निजी क्षेत्र में भी कमर्शियल माइनिंग शुरू करने के फैसले को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. इस मुद्दे को लेकर सार्वजनिक क्षेत्र की कोयला कंपनियों के श्रमिकों की नाराजगी आम चुनाव में भारी न पड़ जाए, इसे ध्यान में रखते हुए ‘गो स्लो’ की नीति अपनाई गई है. फिलहाल कोयले की कमर्शियल माइनिंग पर केंद्र सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र की महारत्न कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड का एकाधिकार है.

केंद्र सरकार ने बीते साल जुलाई में निजी क्षेत्र में कमर्शियल माइनिंग का रास्ता खोला था तो देश में कोयले की मांग और पूर्ति में बड़े अंतर को ध्यान में रखते हुए इस साल के अंत तक कोयला ब्लॉकों की नीलामी कर देने का फैसला किया था. सरकार को लगा था कि उसका यह फैसला ऊर्जा क्षेत्र में गेम चेंजर साबित होगा. पर बाद में समझ आया कि चुनाव से पहले इस दिशा में आगे बढ़ने से चुनावी गेम ही न बदल जाए.  

ज्यादातर ट्रेड यूनियनों का मानना है कि सरकार का यह कदम सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की पहल पर कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण के फैसले को पलटने जैसा है. इसलिए सरकार की ओर से जैसे ही संकेत मिला कि फिलहाल निजी क्षेत्र में कमर्शियल माइनिंग की दिशा में कोई कदम नहीं बढ़ाया जाएगा तो ट्रेड यूनियनों के साथ ही कोयला श्रमिकों में खुशी की लहर दौड़ गई. हालांकि कोयला मंत्रालय के सूत्रों की मानें तो कमर्शियल माइनिंग की दिशा में ‘गो स्लो’ की वजह आसन्न आम चुनाव है. जल्दी ही आचार संहिता लागू हो जाने की वजह से कोल ब्लॉकों की नीलामी संभव नहीं है.

सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उद्योग का एकाधिकार खत्म करते हुए कोयले के कारोबार के लिए निजी कंपनियों को हरी झंडी दिखाने के विरोध में देश की सभी प्रमुख मजदूर यूनियनों ने एक ही सुर में बगावत का बिगुल बजा रखा है. सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) और कांग्रेस से जुड़े इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) से लेकर वामपंथ दलों से समर्थित मजदूर यूनियन सीटू तक निजी कंपनियों को फिर से कोयले का कारोबार करने की अनुमति दिए जाने के विरोध में हैं.

बीएमएस से संबद्ध अखिल भारतीय खदान मजदूर संघ के अध्यक्ष ब्रजेंद्र कुमार राय ने तो कोयला श्रमिकों के दबाव में यह तक कह डाला कि निजी क्षेत्र में कमर्शियल माइनिंग जैसा महत्वपूर्ण फैसला लेने से पहले मजदूर संगठनों से मशविरा तक करने की जरूरत नहीं समझी गई. सीटू से संबद्ध ऑल इंडिया कोल वर्कर्स फेडरेशन के महासचिव डीडी रामनंदन इस आरोप पर कायम रहे कि विदेशी कोयला कंपनियों के दबाव में निजी क्षेत्र में कमर्शियल माइनिंग फैसला किया गया था.

भारतीय कोयला उद्योग के इतिहास में 45 वर्षों बाद केंद्र सरकार ने कोयला क्षेत्र में सबसे बड़ा सुधार करते हुए निजी कंपनियों को कोयले के कारोबार में उतरने की अनुमति दे दी थी. माना जा रहा है कि सरकार के इस फैसले से सार्वजनिक क्षेत्र की कोयला कंपनियों को कड़ी टक्कर मिलेगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में यह फैसला किया गया था. चार दशक पहले तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहल पर निजी क्षेत्र में कोयले के कारोबार पर पाबंदी लगा दी गई थी. पर दो दशक बीतते-बीतते कोयला उद्योग में निजी भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाने लगे थे. इस काम में पूर्ववर्ती सरकारों को आंशिक सफलता मिली भी. पर इतने बड़े सुधार का साहस कोई भी सरकार नहीं जुटा पाई थी.

आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति का मानना है कि जिन अधिनियमों के तहत सुधार संबंधी फैसले किए गए हैं, उनसे कोयला क्षेत्र में पारदर्शिता आएगी, कारोबारी सुगमता को उच्च प्राथमिकता मिलेगी और देश के विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग हो सकेगा. कोयला क्षेत्र में एकाधिकार की बजाय प्रतिस्पर्धा बढेगी और कोयला क्षेत्र में निजी निवेश के चलते प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर बढेंगे. कोयले की आपूर्ति बढ़ने से ऊर्जा सुरक्षा भी बढेगी, क्योंकि देश में लगभग 70 फीसदी बिजली का उत्पादन ताप संयंत्रों से ही किया जाता है. नीलामी से मिलने वाले राजस्व से राज्यों को अच्छा खासा लाभ होगा, जिससे वे पिछड़े क्षेत्रों के विकास में पर्याप्त निधि का इस्तेमाल कर सकेंगे. देश के पूर्वी हिस्से के राज्यों को इसका विशेष फायदा होगा.

दरअसल, उच्चतम न्यायालय की ओर से सन् 2014 में सन् 1993 के बाद से सरकारी और निजी कंपनियों को आवंटित 204 खदानों/खंडों का आवंटन रद्द कर दिए जाने के बाद तुरंत-तुरंत सत्ता में आई मोदी सरकार के लिए पारदर्शी तरीके से उन कोयला खानों का आवंटन बड़ी चुनौती बन गई थी. लिहाजा मोदी सरकार ने कोयला क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए कोयला खदान (विशेष प्रावधान) विधेयक, 2015 को संसद के दोनों सदनों में पारित कराया था और इसकी अधिसूचना 30 मार्च 2015 को जारी की गई थी. इसमें कोयला खदानों की नीलामी के जरिए आवंटन के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं.

कोयला खान (विशेष प्रावधान) विधेयक, 2015 को संसद से मंजूरी मिलने में देरी होने की वजह से केंद्र सरकार को दो-दो बार अध्यादेश जारी करना पड़ा था. ताकि सीमित उपयोग के लिए कोयला खानों की नीलामी की जा सके. उच्‍चतम न्‍यायालय की ओर से 204 ब्‍लॉकों का आवंटन निरस्‍त करने के बाद पहली बार 21 अक्‍टूबर, 2014 को और फिर उसके बाद 26 दिसंबर, 2014 को अध्यादेश जारी किया गया था. हालांकि इसके लिए मोदी सरकार विपक्ष के निशाने पर थी और उसकी काफी आलोचना हुई थी. विपक्ष का आरोप रहा है कि मोदी सरकार कोयला उद्योग के निजीकरण की जल्दीबाजी में है.

देसी-विदेशी कंपनियों की बांछे खिल गई थीं

कोल इंडिया लिमिटेड की अनुषंगी इकाइयों के समानांतर कोयले के कारोबार में निजी कंपनियों को उतरने की आजादी मिलते ही देसी ही नहीं, बल्कि विदेशी खनन कंपनियों की भी बांछे खिल गई थीं. श्रमिक संगठनों के बगावती तेवरों से बेपरवाह भारत के व्यापारिक संगठनों के संगठन भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) से लेकर वेदांता रिसोर्सेज के अनिल अग्रवाल तक केंद्र सरकार के फैसले से बेहद खुश दिखे. उधर बीएचपी, रियो टिंटो और ग्लेनकोर से लेकर एग्लो अमेरिकन जैसी नामचीन बहुराष्ट्रीय खनन कंपनियां भी भारत सरकार के “मेक इन इंडिया” कार्यक्रम को गति देने के लिए उतावली हो उठी थीं.

कोयला खान (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 2015 के वजूद में आने के बाद संसद में प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण में इस बात पर बल दिया गया था कि देश के आर्थिक विकास के लिए निजी निवेश और निर्यात पर आधारित व्यवस्था को गति देने की जरूरत है. इसके बाद से ही आर्थिक विश्लेषक मान कर चल रहे हैं कि निजी निवेश को प्रोत्साहित करने का कोई मौका चूकना नहीं चाहेगी. कोयला उद्योग को निजी कंपनियों के लिए खोलने से इस बात को बल मिला.

इंदिरा गांधी की आशंका

कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण करने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी शुरू से ही इस बात को लेकर आशंकित रहीं कि पुराने खान मालिक राष्ट्रीयकरण को फेल कराना चाहेंगे. इसलिए उन्होंने श्रमिकों को संबोधित करते हुए कहा था, “आप लोग सतर्क रहें. लगन से काम करें. राष्ट्रीयकृत कोयला उद्योग को सफल बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाएं. वरना पुराने कोलियरी मालिक राष्ट्रीयकरण को फेल कराना चाहेंगे. वे साबित करना चाहेंगे कि सरकार कोलियरियां नहीं चला सकती. आप सबको इस चुनौती को स्वीकार करना होगा.”

खास बात यह कि जिस कांग्रेस की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्र नवनिर्माण में ऊर्जा की बढ़ती जरूरतों और पशुवत जिंदगी जी रहे कोयला श्रमिकों की दुर्दशा को ध्यान में रखकर कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था, उनके ही उत्तराधिकारियों ने सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उद्योग को संकट में डालने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी. नतीजतन देश की तरक्की के साथ ही कोयले की मांग बढ़ती गई और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां आपूर्ति में पिछड़ती गईं. 

इसकी मुख्य वजह बना भ्रष्टाचार. सार्वजनिक क्षेत्र की कोयला कंपनियों के अधिकारी पूर्व खान मालिकों की तरह ही खान सुरक्षा नियमों की अनदेखी करते रहे. इससे न केवल बहुमूल्य कोयला खानों के भीतर फंसता गया, बल्कि जमीनी आग और भू-धसान की रफ्तार निजी खान मालिकों के जमाने से भी तेज होती गई. मशीनों की खरीददारी करते समय गुणवत्ता से समझौता किया जाने लगा. नतीजतन ऐसी मशीनें अपनी क्षमता के अनुरूप काम करने में असमर्थ रहीं. इसका कुपरिणाम यह हुआ कि न केवल कोयले का उत्पादन लक्ष्य के अनुरूप करना असंभव होता गया, बल्कि उत्पादन लागत भी बढ़ती गई. फिर तो ऐसा भी समय आया जब आयातित कोयला ज्यादा किफायती था.

कोल इंडिया लिमिटेड की अनुषंगी इकाई सेंट्रल माइन प्लानिंग एंड डिजाइन इन्स्टीच्यूट (सीएमपीडीआई) के मुख्य कार्य खनिज, गवेषण, खनन, अवसंरचनात्मक, इंजीनियरिंग, पर्यावरण प्रबंधन और प्रबंधन सिस्टम, विशेष रूप से कोयला उद्योग के अंदर एवं बाहर और देश के खनिज, खनन, एवं संवर्गी सेक्टरों के प्रबंधन प्रणाली के लिए परामर्श तथा अवलंब (सपोर्ट) हैं. जाहिर है कि इस कंपनी ने कोयला खानों में कोयला उत्पादन की व्यवहार्यता से लेकर मशीनों की क्षमता तक का आकलन करके कोयला उत्पादन का सालाना लक्ष्य तय करती रही. पर कोयला कंपनियां कभी सीएमपीडीआई की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं.

बाद के दिनों में कोयला कंपनियों के प्रबंधकों ने अपनी खाल बचाने के लिए तरकीब निकाली. वे सीएमपीडीआई की ओर से कोयला उत्पादन के लिए दिए गए लक्ष्य की अनदेखी करके खुद ही कोयला उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित करने लगे. जाहिर है कि यह लक्ष्य सीएमपीडीआई के लक्ष्य से काफी कम होता था. फिर तो चलन ही हो गया कि इसी लक्ष्य को पूरा करके या उससे थोड़ा ज्यादा हासिल करके अपनी पीठ थपथपाई जाने लगी.

इस चलन से प्रबंधन के लोगों का तो भला हुआ. इसलिए कि उन्हें वाहवाही मिलती रही, नौकरियों में पदोन्नति मिलती रही. पर देश का बड़ा अहित हुआ. अंत में वही हुआ जिसकी इंदिरा गांधी को आशंका थी. इस बात का पुख्ता आधार तैयार हो गया कि निजी कंपनियों की भागीदारी के बिना देश की ऊर्जा जरूरतें पूरी नहीं की जा सकतीं.


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