फैज को इस्लामी उपमाओं के सहारे समझना नादानी
फैज अहमद फैज जो एक कम्युनिस्ट थे और मजहब में यकीन नहीं रखते थे, यहाँ, मजहब एक सेकंडरी चीज है. फैज मार्क्सवाद से मुतास्सिर होकर कॉम्युनिज्म में विश्वास रखने वाले एक ऐसे शायर थे, जिसने अपनी शायरी में रूमानियत और इंकलाबी टच देकर लोगों को मुतास्सिर किया और यही उनकी मकबूलियत का राज है.
फैज ने पाकिस्तान बनने के बाद वहां के हालात से मुतास्सिर होकर सबसे पहले यह शिकवा किया कि ‘ये वो सहर तो नहीं…’
फैज की शायरी के इन तेवरों की वजह से पाकिस्तानी हुकूमत और वहां के फौजी हुक्मरानों ने उन्हें रावलपिंडी केस में जेल की सलाखों के पीछे कैद कर दिया.
पाकिस्तानी हुकूमत में उस दौर के बुद्धिजीवी, लेखक और कवि जो उस वक्त के सियासी हालात के चलते घुटन महसूस कर रहे थे, को भी जेल भेजा गया.
यही वजह थी कि जेल से रिहा होने के बाद फैज पाकिस्तान की जमीन पर रहने के बजाए आम तौर पर खुद साख्ता जला-वतनी की जिंदगी गुजार रहे थे, लेकिन…एक वक्त ऐसा भी था, जब पाकिस्तान में उनके मिजाज की सरकार में उनको नवाजा भी और एक बड़े अंग्रेजी अखबार का एडिटर भी बनाया गया.
…क्योंकि पाकिस्तान में कोई भी अवामी सरकार लंबे अरसे तक नहीं रुकती थी और वक्तन-फावक्तन फौजी इंकलाब आते रहते, जिसकी वजह से फैज मुसलसल एक घुटन महसूस करते रहे और इस घुटन की झलक उनकी शायरी में भी नजर आया. मौजूद विवादित नज्म जिसको लेकर हिन्दुस्तान में एक कोहराम मचा है वो फैज ने जिया-उल-हक के दौर में कही थी, जिसकी असली वजह जिया-उल-हक का इस्लाम-पसंदी और फौजी तानाशाही थी. उस वक्त पाकिस्तान के बुद्धिजीवी, लेखक और कवि जहनी घुटन को महसूस कर रहे थे. जो उनके अंदर शोलो की तरह जल रही थी.
जबकि, जिया-उल-हक अपनी इस्लाम पसंदी और फौजी तानाशाही से इस आजाद विचारधारा और लेखनी को खत्म करना चाहते थे और जो उन्होंने किया भी.
फैज की यह नज्म जिया-उल-हक और उस जमाने की घुटन के खिलाफ एक बेबाक आवाज थी. किसी दूसरे धर्म और मुल्क से इसका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है. फैज ने अपनी इस नज्म के जरिए व्यवस्था के खिलाफ अपने ख्यालात का इजहार किया है.
फैज की यह नज्म पाकिस्तान के सामाजिक, आर्थिक और मजहबी माहौल का खाका खींचने के साथ-साथ वहां के सियासी हालात की भी भरपूर अक्कासी करती है.
यह नज्म फैज ने अपने मुल्क के हुक्मरानों की तानाशाही और इस्लाम पसंदी को देख कर कही थी. इस नज्म का लब्बो-लुबाब खालिस इस्लामी और इस्लामी उपमाओं से भरी हुई है जिसे फैज ने उस दौर में घुटन महसूस करते हुए एक नज्म के सांचे में ढाला है.
इस नज़्म के बोल को देख कर यह नहीं कहा जा सकता कि फैज ने किसी दूसरे मजहब की तौहीन की है. कम्युनिज्म में किसी धर्म की निंदा नहीं की जाती. क्योंकि, यहां धर्म सेकंडरी चीज है. इस नज्म के जरिए फैज ने इस्लामी उपमाओं का हवाला देकर पाकिस्तान की आवाम को मुखातिब किया है. खास तौर से अनलहक और अल्लाह शब्द का इस्तेमाल कर.
यहीं नहीं, मेरठ के मारूफ शायर हफ़ीज़ मेरठी ने भी एमरजेंसी में एक गजल कही थी, ‘जब सब के लब सिल जाएंगे, हाथों से कलम छिन जाएंगें, बातिल से लोहा लेने का एलान करेंगी जंजीरे’ के बाद उनको भी जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा था.
सच की कीमत तो चुकानी पड़ती है. रहा सवाल फैज की नज्म की विवादित पंक्ति जिसको लेकर हिंदू विरोधी होने का आरोप है, अनलहक और सिर्फ अल्लाह ही बाकी रहेगा, तो हिंदुस्तान के अजीम शायर मिर्जा असद उल्लाह गालिब को याद कर लीजिए वो ये फरमाते है, ‘ना था कुछ तो खुदा था, ना होता कुछ तो खुदा होता…’
भले ही यहां ‘खुदा’ का भाव अल्लाह है लेकिन, इसका पर्यायवाची नहीं! अल्लाह का पर्यायवाची ईश्वर है! जो सनातन धर्म में सत्य है!