गरीबी को मुंह चिढ़ाता चिकित्सा पर्यटन


article on how medical tourism is affecting poors

 

हाल ही में मुज़फ्फ़रपुर में एक्यूट इनसेफ़िलाइटिस सिंड्रोम से हुई 126 बच्चों की मौत ने भारत में आम जनता को किस स्तर की चिकित्सा मिलती है, उसकी पोल खोलकर रख दी है. मुज़फ्फ़रपुर में चिकित्सकों, दवाई तथा अस्पताल में जरूरी सुविधाओं की कमी के कारण हुई मौतों से हरगिज भी यह नतीजा ना निकालें कि हमारे देश की चिकित्सा व्यवस्था पिछड़ी हुई है. दरअसल, आम जनता के लिये चिकित्सा उपलब्ध नहीं है. लेकिन क्या आपको मालूम है कि आज भी लाखों विदेशी हमारे देश में ईलाज करवाने के लिये आते हैं. इतना ही नहीं केन्द्र सरकार इसके लिये नाना प्रकार की सुविधा भी मुहैय्या करवाती है.

जी हां, यहां पर हम मेडिकल टूरिजम या चिकित्सा पर्यटन की बात कर रहे हैं. जिसके तहत साल 2017 में 4.95 लाख, साल 2016 में 4.27 लाख और साल 2015 में 2.34 लाख विदेशी हमारे देश के बड़े-बड़े फाइव स्टार कॉर्पोरेट अस्पतालों में ईलाज करवाने आए थे. आप सवाल कर सकते हैं कि इसका विरोध क्यों किया जा रहा है. जनाब, हम चिकित्सा पर्यटन का नहीं कॉर्पोरेट अस्पतालों के तौर-तरीकों की बात कर रहे हैं. जब बड़े पूंजीपति कॉर्पोरेट अस्पताल बनवाते हैं तो सरकार से कई सुविधाएं ले लेते हैं जिसके बदले में उन्हें गरीबों का मुफ्त में ईलाज करना पड़ता है, जिसे वे नहीं करते हैं. इसके बदले कॉर्पोरेट अस्पताल समाज के मलाईदार तबकों और विदेशियों का ईलाज करने में खुद को समर्पित कर देते हैं.

उदाहरण के तौर पर अपोलो इंद्रप्रस्थ अस्पताल को ही लें. इस अस्पताल को बनाने के लिये दिल्ली सरकार ने 15 एकड़ बहुमूल्य जमीन 30 सालों के लिये ₹ 1 प्रतिमाह की लीज पर साल 1994 में दी. लीज की शर्त है कि अपोलो अस्पताल आर्थिक रूप से कमजोर 40 फीसदी मरीजों को अपने बाह्यरोगी विभाग में तथा 33 फीसदी को अंतःरोगी विभाग में मुफ्त में चिकित्सा मुहैय्या करवायेगा. लेकिन ऐसा नहीं किया गया.

इसके खिलाफ दायर जनहित याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट ने एक विशेषज्ञ कमेटी का गठन साल 2009 में किया था. इस विशेषज्ञ कमेटी ने पाया कि अपोलो अस्पताल ने पिछले 5 सालों में अंतःरोगी विभाग में मात्र 2.46 फीसदी मरीज तथा बाह्यरोगी विभाग में मात्र 0.27 फीसदी मरीजों का मुफ्त में ईलाज किया था. इस तरह से अपोलो इंद्रप्रस्थ अस्पताल ने गरीबों के मुफ्त ईलाज करने के समझौते का पालन नहीं किया. उसी समय दिल्ली सरकार ने हाई कोर्ट के आदेशानुसार मुख्य सचिव को कहा कि देखें कि क्या निजी अस्पताल कोर्ट के आदेश का पालन कर रहे हैं या नहीं. विवेचना करने पर पाया गया कि दिल्ली के 22 निजी अस्पताल गरीबों का मुफ्त में ईलाज नहीं कर रहें हैं, जिसमें एस्कोर्ट हार्ट इंस्टीट्यूट, मैक्स बालाजी, राकलैंड हास्पिटल्स, इंडियन स्पाइन इन्जूरी सेंटर और सर गंगाराम अस्पताल प्रमुख हैं.

यहां पर इस बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि जनता के पैसों से, विदेशियों का ईलाज फाइव स्टार अस्पतालों में किया जा रहा है. जी हां, जनता के ही पैसों से. इन कॉर्पोरेट अस्पतालों को बनाने के लिये सरकारी जमीन लीज पर या अत्यंत कम कीमत पर उपलब्ध करवाई जाती है. मशीनों के आयात पर छूट दी जाती है. अनुसंधान के नाम पर टैक्स में भी छूट दी जाती है. सरकारी अनुदान प्राप्त निजी या सरकारी मेडिकल कालेजों से निकले छात्र देश की जगह विदेशियों की सेवा करते हैं, देश में ही.

अब लाख टके का सवाल है कि फिर इसमें विरोध कैसा. यही वह पेंच है, जिसने मुझे यह लेख लिखने के लिये प्रेरित किया है. अतिथि देवो भवः तो सही है लेकिन भारतीयों की क्या हालत है यह भी देखने का विषय है. जहां फाइव स्टार अस्पतालों में विदेशियों की चिकित्सा की जा रही है, वहीं भारत के 20 फीसदी बाशिंदे आधुनिक चिकित्सा से वंचित हैं. 32 फीसदी सरकारी अस्पतालों की शरण लेते हैं. जिसमें से ज्यादातर में नाक पर रुमाल रखकर घुसना पड़ता है. वहीं साल 2015-16 में किये गये नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अऩुसार 89.9 फीसदी देशवासियों को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिल पाता है, 48.4 फीसदी लोगों को बेहतर स्वच्छ सुविधा नहीं मिल पाती है, मात्र 28.7 फीसदी बाशिंदे ही मेडिकल इन्श्योरेंस के तहत आते हैं.

केन्द्र सरकार ने भारत में चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये एक वेब पोर्टल की शुरुआत की है, जिसमें सभी तरह की सुविधाओं के बारे में जानकारी दी गई है. मसलन वीजा, कॉर्पोरेट अस्पतालों की जानकारियां, किन-किन रोगों का कहां-कहां ईलाज होता है, किस तरह से मोबाईल के लिये सिम कार्ड हासिल किया जा सकता है आदि-आदि. इसी के साथ इस पोर्टल के माध्यम से बताया गया है कि भारत में विदेशों की तुलना में पांच से छः गुना कम खर्च में सर्जरी तथा ईलाज होता है. इस पोर्टल में नेशनल एक्रीडिटेशन बोर्ड फॉर हॉस्पिटल्स एंड हेल्थकेयर प्रोवाइडर के 481 अस्पतालों की सूची भी दी गई है. कुल मिलाकर इस पोर्टल के माध्यम से उन विदेशियों को पूरी जानकारी मिल सकती है जो भारत में या अपने देश से बाहर चिकित्सा करवाने आना चाहते हैं. इस पोर्टल में अरबी, रूसी तथा फ्रेंच भाषा में भी जानकारियां दी गई हैं.

जाहिर है कि जब विदेशी मरीज कॉर्पोरेट अस्पतालों में आयेंगे तो देश को विदेशी मुद्रा भी मिलेगी. पिछले साल लोकसभा में लिखित में दी गई सूचना के अनुसार चिकित्सा पर्यटन ने देश की कितनी विदेशी मुद्रा मिली है उसका अलग से आकड़ा मौजूद नहीं है परन्तु अनुमान के अनुसार साल 2015 में ₹1,35,193 करोड़, साल 2016 में ₹1,54,146 करोड़ तथा साल 2017 में ₹1,77,874 करोड़ की विदेशी मुद्रा मिली है.

बता दें कि नीति आयोग ने भी चिकित्सा पर्यटन को विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के मुख्य स्त्रोत के रूप में चिन्हांकित किया है. साल 2015 में दुनिया को चिकित्सा पर्यटन का 18 फीसदी बाजार मिला था जो साल 2020 तक 20 फीसदी हो जायेगा. वहीं साल 2015 में चिकित्सा पर्यटन $3 बिलियन का था जो साल 2020 में $9 बिलियन का हो जायेगा.

गौरतलब है कि भारत में मुख्य रूप से बंग्लादेश और अफगानिस्तान के अलावा ईराक, ओमान, मालदीव, यमन, उज्जबेकिस्तान तथा सूडान से मरीज ईलाज करवाने के लिये आते हैं. इन देशों के लोग भारत में हृदयरोग, हड्डीरोग, प्रत्यारोपण सर्जरी तथा आंखों के ईलाज़ के लिये आते हैं.

जान लीजिये कि चिकित्सा व्यवस्था का लाभ अस्पताल, दवा कंपनियों तथा स्वास्थ्य बीमा कंपनियों पर निर्भर करता है और हमारे देश में इन तीनों ही क्षेत्र में एकाधिाकर प्राप्त पूंजी का बोलबाला है. ऐसी स्थिति से तभी मुक्ति मिल सकती है जब सरकारी चिकित्सा व्यवस्था को सर्वव्यापी तथा उच्च गुणवत्ता वाला बनाया जाये. जिसके तहत सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों, स्टाफ तथा जीवनरक्षक एवं आवश्यक दवाओं की संख्या बढ़ानी पड़ेगी. केवल स्मार्ट कार्ड या आयुष्मान भारत योजना के तहत स्वास्थ्य बीमा करा देने से गरीब तथा मध्यमवर्ग को चिकित्सा का लाभ नहीं मिल पाता है. यदि ऐसा ही होता तो मुज़फ्फ़रपुर में 126 बच्चों की एक्यूट इनसेफ़िलाइटिस सिंड्रोम से मौत नहीं हुई होती.

लेख का अंत हम बाजार तथा बाजारवाद के बीच के फर्क पर आकर करते हैं. बाजार का अर्थ होता है जहां पर जरूरत की चीजें मिलती हैं वहीं बाजारवाद का अर्थ होता है कि पहले माल का उत्पादन कर लिया जाता है उसके बाद उसके लिये ग्राहक खोजा जाता है. मसलन, पहले कॉर्पोरेट अस्पताल बनाये गये, उसके बाद सरकार की सहायता से उसे चलाने के लिये विदेशी मरीजों को आकर्षित किया जा रहा है. जबकि हमारें देश में ऐसे लाखों-करोड़ों लोग हैं जिन्हें उच्च गुणवत्ता वाली चिकित्सा की जरूरत है. सवाल सरकार की प्राथमिकता का भी है. सरकार विदेशी मुद्रा कमाना चाहती है या अपने बाशिंदों को चिकित्सा सुविधा उपब्ध करवाना चाहती है.


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