एक रुका हुआ फैसला
मतदाताओं का आभार जताने के लिए वायनाड पहुंचने पर राहुल गांधी का जोरदार स्वागत अपनी जगह लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं वे प्रतिक्रियाएं जो वहां की जनता ने पत्रकारों के समक्ष पेश किए. अमेठी में हार और वायनाड में भारी जीत के सवाल पर एक सामान्य नागरिक की प्रतिक्रिया थी, “यहां के लोगों का दिमाग बहुुत अच्छा है, वे हर चीज समझकर वोट देते हैं.”
इसी तरह अल्पसंख्यक वोटों की अधिकता के प्रश्न पर लोगों की प्रतिक्रिया थी कि ‘यहां हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और अन्य सभी लोग मिलकर रहते हैं, यहां कोई भेदभाव नहीं है.यह सब उधर ही होता है.”
इन सहज प्रतिक्रियाओं के आलोक में तमाम राजनीतिक विश्लेषकों द्धारा राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद और यहां तक कि राजनीति छोड़ने के सुझावों का विश्लेषण बेहद दिलचस्प नजारा पेश करता है. यह इसलिए भी बेहद जरूरी है कि राहुल गांधी के इस्तीफे के मूल में लोकसभा चुनावों में भारी पराजय से कहीं ज्यादा इन सुझावों की भूमिका है. ऐसे अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि जनता ने राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं किया और कांग्रेस देश की जनता की नब्ज पकड़ने में असफल रही.
अब जरा लोकसभा चुनाव के परिणामों का विश्लेषण करें. वायनाड में राहुल गांधी की जीत को किस रूप में लें. केरल देश का सबसे ज्यादा साक्षर प्रदेश है और राहुल गांधी ने वहां रिकॉर्ड मतों से जीत हासिल की. इसके अलावा वहां से कांग्रेस गठबंधन ने 20 में से 19 सीटें भी जीतीं. यानी केरल की पढ़ी-लिखी जनता को राहुल गांधी के नेतृत्व पर भरोसा है. इसके बनिस्पत उत्तर भारत के कम साक्षर राज्यों जहां जाति-धर्म की राजनीति उफान पर रही और जीवन के लिए जरूरी मुद्दों के बजाय भावनात्मक मुद्दों पर सर-फुटौव्वल का हिंसक माहौल दिखता रहा, वहां राहुल गांधी असफल रहे. यानी इन राज्यों में जनता ने उनका नेतृत्व स्वीकार नहीं किया. देश के इन अलग-अलग भागों के चुनाव परिणाम को किस रूप में लिया जाए!
क्या केरल के लोगों की बुद्धि और निर्णय क्षमता का महत्व नहीं है? क्या हिंदी पट्टी की जनता के फैसले ही भारतीय राजनीति का मानक और मूल्य तय करेंगे? केरल के अलावा तमिलनाडु में भी कांग्रेस गठबंधन सफल रहा तो उसको भी नजरअंदाज कर देना चाहिए? जाहिर है कि अगर राहुल गांधी सब कुछ त्याग कर अलग हो जाते हैं तो यह केरल और साथ ही तमिलनाडु के लोगों की अनदेखी होगी.
जाहिर है कि ऐसे में इन महत्वपूर्ण प्रदेशों में कांग्रेस की जो जमीन मजबूत हुई है वह निश्चित ही दरक जाएगी. प्रकारांतर से राजनीतिक विश्लेषकों के ये सुझाव बीजेपी के ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ जैसे एजेंडे को ही आगे बढ़ाने वाला दिखता है. देश की सबसे पुरानी और जरूरी राजनीतिक दल के प्रति इन विश्लेषकों का ये रवैया क्या बताता है? क्यों न इसे बीजेपी व मोदी सरकार की स्तुतिगान का पूर्वाभ्सास माना जाए.
अभी कुछ माह पूर्व हुए विधानसभा चुनावों में जीत के बाद जब मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें बनीं तो इन्हीं विश्लेषको की राय थी कि राहुल गांधी की स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है. इन प्रदेशों में नेतृत्व के झगड़े को सुलझाने में राहुल गांधी की परिपक्वता की भी सबने प्रशंसा की थी. फिर अचानक इनकी राय क्यों बदल गई?
विश्लेषण सिर्फ एक पार्टी का नहीं होना चाहिए. मौजूदा लोकसभा चुनाव में बीजेपी-एनडीए की जो चुनावी रणनीति रही वह संगठित और सुसंचालित तो थी ही, उसे सिस्टम का भी भरपूर समर्थन रहा. इनके नेताओं द्वारा आचार संहिता और सामाजिक मूल्यों की जो धज्जियां उड़ायी गईं, वह शेषन काल से लेकर पिछले चुनावों तक कभी नहीं दिखीं. चुनाव आयोग की भूमिका बेहद लचर रही और उसने संज्ञान लेने के तहत नोटिस देने और जवाब बटोरने की ही औपचारिकता निभाई. चुनाव संचालन में निष्पक्षता के मुद्दे पर खुद चुनाव आयोग में मतभेद की खबरें आती रहीं. इससे बीजेपी-राजग को जो फायदा हुआ उस पर कोई विश्लेषक टिप्पणी करने आगे नहीं आया.
तमाम विश्लेषकों का ये भी मत है कि कांग्रेस जनता की नब्ज नहीं पकड़ पायी. कांग्रेस के पास राफेल सौदे में धांधली, नोटबंदी-जीएसटी से हुई दिक्कतें व उनके कारण छूटी नौकरियां, बेराजगारी, किसानों की बरबादी और गरीबों की बदहाली जैसे मुद्दे थे. इसके उलट सत्ता पक्ष के पास धनबल का जोर था और धार्मिक भेदभाव पर आधारित मुद्दे थे. उनकी तरफ से राष्ट्रवाद, हिन्दू-मुसलमान, तीन तलाक, पाकिस्तान को सबक और ‘दीदी’ जैसे मुद्दे उठाए गए. विरोधियों को देशद्रोही बताने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं था. यही मुद्दे कारगर हुए और जिनके सहारे बीजेपी की भारी जीत हुई.
अब सवाल उठता है कि कांग्रेस जनता की नब्ज पकड़ने के बाद क्या इन्हीं मुद्दों का इस्तेमाल करती, तब तो वह कांग्रेस नहीं रह जाती और अपने उन तमाम समर्थकों का विश्वास भी खो देती जो उससे सरोकारपरक राजनीति की उम्मीद करते हैं.
इसी तरह अगर ‘ग्लोबल वार्मिंग नहीं हुआ है, हम बदल गए हैं, नाली गैस से चाय बनाना, बादल-राडार की आंखमिचौली जैसे चुटकुले भी कारगर रहे तो कांग्रेस और राहुल गांधी को क्या उनका भी अनुसरण करना चाहिए था? कुछ विशेषज्ञ बताते हैं कि राहुल का नकारात्मक व आक्रामक रवैया काम नहीं आया, इससे नुकसान ही हुआ. वहीं दूसरा वर्ग राहुल के नैतिक-सैद्धांतिक रवैये को अप्रासंगिक ठहराता है. इस वर्ग का मानना है कि राहुल को प्यार नहीं तिरस्कार की भाषा सीखनी चाहिए.
राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे के फैसले से पार्टी के समक्ष जो संकट पैदा हुआ है उसका समाधान कौन करेगा यह कहना मुश्किल है. इस माहौल में राहुल गांधी ने चिंतन-मनन की जो मानसिकता बनाई है उसका सम्मान करना चाहिए क्योंकि कांग्रेस की दिशा वही तय करेंगे, दशा भी वही सुधार पाएंगे.