कहां गया मान बढ़ाने का अभिमान


article on modi's criticism in time magazine

 

अमेरिका से निकलने वाली विश्व-प्रसिद्ध पत्रिका ‘टाइम’ के आवरण पृष्ठ पर स्थान मिलना यों तो शान की बात समझी जाती है. मगर पत्रिका के अंतरराष्ट्रीय संस्करण के ताजा अंक के आवरण पर प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी को जिस शीर्षक के साथ जगह मिली है उससे न तो उन्हें खुशी हुई होगी न उनकी पार्टी को.

शीर्षक है ‘डिवाइडर इन-चीफ’, यानी मुख्य विभाजनकारी. इससे निश्चय ही प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा को धक्का लगा है. देश के लिए भी यह मायूस करने वाली बात है. पर ‘टाइम’ की उपर्युक्त रिपोर्ट ने जिस हकीकत पर उंगली रखी है, क्या उसे नकारा जा सकता है? आखिर मोदीजी के कार्यकाल में दुनिया-भर में देश का मान बढ़ने का जो दम उनके समर्थक भरते रहे हैं उसकी सच्चाई क्या है?

यह पहली बार नहीं है जब ‘टाइम’ के कवर पर मोदी मौजूद हैं. 2014 में भी पत्रिका ने उन्हें अपने कवर पर जगह दी थी और उन्हें अपनी कवर स्टोरी का विषय बनाया था. पर तब और अब में बहुत बड़ा फर्क है. तब मोदी ‘टाइम’ के कवर पर उम्मीद का चेहरा बन कर आए थे, और इस बार एक कड़वी हकीकत की सुर्खी बन कर आए हैं. वह कड़वी हकीकत यह है कि मोदी ने आर्थिक क्षेत्र में चमत्कार का जो सपना दिखाया था उसे साकार करने में तो नाकाम रहे, पर भारत में धार्मिक राष्ट्रवाद का जहरीला माहौल बनाने में जरूर मददगार साबित हुए. आर्थिक क्षेत्र में चमत्कार की उम्मीद नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों और कॉरपोरेट जगत को थी, पर लगता है कि उनकी भी उम्मीद पूरी नहीं हुई.

लेकिन निराशा का दूसरा पहलू है, मोदी के कार्यकाल में भारत में कट्टरवाद का पनपना और लोकतांत्रिक मूल्यों तथा संस्थाओं का तीव्र क्षरण. ‘टाइम’ यह निराशा जाहिर करने वाली अंतरराष्ट्रीय समुदाय की अकेली आवाज नहीं है. गौरतलब है कि लंदन से प्रकाशित होने वाली काफी जानी-मानी पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने पिछले दिनों अपने एक संपादकीय में मोदी सरकार को ‘लोकतंत्र के लिए खतरा’ बताया.

यही नहीं, वैश्वीकरण, मुक्त व्यापार और सांस्कृतिक उदारवाद की पक्षधरता के लिए जानी जाने वाली इस पत्रिका ने अपने इसी संपादकीय में भारत के मतदाताओं से मोदी सरकार को हटाने या कम-से-कम गठबंधन की सरकार बनाने की अपील करने में भी संकोच नहीं किया. इस तरह की अपील के औचित्य को लेकर दो राय हो सकती है, पर यह तो साफ है कि 2014 में मोदी को लेकर पश्चिमी जगत की जो राय थी वह काफी हद तक बदल चुकी है.

फिर भी, मोदी समर्थक यह कहते नहीं थकते कि मोदी के कार्यकाल में दुनिया में भारत का मान बढ़ा है. बीजेपी के चुनावी विज्ञापनों में यह दावा भी शामिल है. आइए, ‘टाइम’ और ‘द इकोनॉमिस्ट’ की राय से आगे बढ़ कर, कुछ वैश्विक अध्ययनों के आलोक में देखते हैं कि मोदी के कार्यकाल में भारत की शान में कितना इजाफा हुआ है.

कुछ ही दिन पहले, विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक जारी हुआ. ‘रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स’ नामक मीडिया संगठन की तरफ से जारी किए गए इस अध्ययन के मुताबिक, भारत में पत्रकारीय स्वतंत्रता की हालत पहले भी शोचनीय थी, पर मोदी के कार्यकाल में वह और बिगड़ती गई है.

180 देशों के इस सूचकांक में भारत 2017 में 136वें स्थान पर था, एक साल बाद यानी 2018 में दो पायदान और नीचे खिसक कर 138वें स्थान पर आ गया. और अब कुछ ही दिन पहले आए ताजा अध्ययन में यह दो पायदान और नीचे यानी 140वें स्थान पर आ गया. ध्यान रहे, यह अध्ययन पत्रकारों के लिए मौजूद खतरों, उनके स्वतंत्रतापूर्वक काम कर पाने की स्थितियों, सहूलियतों और बाधाओं पर गौर करता है. पत्रकारिता की गुणवत्ता और विश्वसनीयता का विषय इसमें शामिल नहीं है. अगर इसे भी शामिल किया जाए, तो भारत आज कहां ठहरेगा?

अब विभिन्न देशों में लोकतंत्र की सामान्य दशा जांचने वाले एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन को लें. ‘इकोनॉमिस्ट इनटेलीजेंस ग्लोबल डेमोक्रेसी इंडेक्स’ की पिछले साल फरवरी में आई रिपोर्ट के मुताबिक भारत 165 देशों में 32वें से 42वें स्थान पर आ गया. वह पहले भी ‘दोषपूर्ण लोकतंत्र’ वाली श्रेणी में था, पर एक साल पहले के मुकाबले, उसकी हालत दस अंक और खराब हो गई.

यह अध्ययन चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता, बहुलतावाद, नागरिक आजादी, सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और लोगों की राजनीतिक भागीदारी जैसे मानकों पर अपने निष्कर्ष निकालता है. यों लोकतंत्र के लिहाज से मोदी सरकार के कार्यकाल को समझने के लिए मॉब लिंचिंग, राजद्रोह कानून के चरम दुरुपयोग, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं तथा संस्थाओं को ताक पर रखने और असहमति को कुचलने की प्रवृत्ति और मीडिया की फिसलन से लेकर निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर उठते सवालों तक, हमारे रोज के अनुभव ही काफी हैं. पर एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन का हवाला देना इसलिए आवश्यक लगता है ताकि दुनिया के आईने में भी मोदी के कार्यकाल की छवि देखी जा सके.

अब एक-दो वैसे अध्ययन देखें, जो आम लोगों की आर्थिक-सामाजिक दशा को सूचित करते हैं. इसमें सबसे प्रमुख है संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का मानव विकास सूचकांक. जन्म के समय जीवन प्रत्याशा, स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रतिव्यक्ति आय, अन्य नागरिक सुविधाएं, स्त्री-पुरुष समानता आदि मानकों पर हर साल आने वाले इस अध्ययन के मुताबिक भारत कई साल से, हलके-फुलके उतार-चढ़ाव के साथ, लगभग जहां का तहां है- मानव विकास की मध्यम श्रेणी में- पर इस श्रेणी में काफी नीचे- नामीबिया, कांगो और पाकिस्तान की पांत में.

अब विश्व भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) को देखें. अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान की तरफ से जारी होने वाले सालाना अध्ययन की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक खाद्य सुरक्षा के लिहाज से 119 देशों में भारत का स्थान काफी नीचे, 97वां था. अगले साल बाद यह तीन पायदान और नीचे खिसक कर 100वें तथा एक साल बाद यानी 2018 में फिर तीन अंक लुढ़कर 103वें स्थान पर आ गया. जबकि बांग्लादेश और इथियोपिया जैसे देश भी इससे बेहतर स्थिति में हैं.

आज की दुनिया में पर्यावरण सुधार भी किसी सरकार के लिए कसौटी होनी चाहिए. इस कसौटी पर मोदी सरकार कहां खड़ी है? येल और कोलंबिया विश्वविद्यालय, वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के साथ मिलकर हर दो साल पर पर्यावरणीय उपलब्धि का सूचकांक (एनवार्नमेंटल इंडेक्स) जारी करते हैं. 2016 में आई द्विवार्षिक रिपोर्ट में भारत को 180 देशों के बीच 141वां स्थान मिला था. लेकिन दो साल बाद यानी 2018 में आई रिपोर्ट में वह 36 पायदान और नीचे, 177वें स्थान पर चला गया, यानी पर्यावरण के लिहाज से सर्वाधिक शोचनीय स्थिति वाले पांच देशों की पांत में. इसी तरह, जन-सुरक्षा और सामाजिक शांति जैसी कसौटियों पर भी अगर मोदी सरकार को परखा जाए, तो नतीजे कतई संतोषजनक नहीं होंगे.

कुछ बरसों से दुनिया में यह धारणा बलवती होती गई है कि सिर्फ उत्पादन-वृद्धि या आय-वृद्धि को ही प्रगति न माना जाए. लोगों की खुशी अच्छी आय के अलावा और भी कई चीजों पर निर्भर करती है. इसके मद्देनजर, विभिन्न देशों में खुशी का स्तर बताने वाले अध्ययन भी आने लगे हैं. गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र का ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट सोल्यूशंस नेटवर्क’ 2012 से प्रतिव्यक्ति जीडीपी, औसत आयु, सामाजिक स्वतंत्रता, उदारता, लोक विश्वास आदि मानकों पर तमाम देशों की बाबत प्रसन्नता सूचकांक (वर्ल्ड हैपीनेस इंडेक्स) जारी करता है. पिछले साल के सूचकांक में भारत को 156 देशों के बीच 133वां स्थान मिला, जबकि 2017 के सूचकांक में वह 122वें स्थान पर था, यानी साल भर में वह ग्यारह अंक और नीचे आ गया.

एक मामले में जरूर मोदी सरकार ने छलांग लगाई, वह है ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ यानी कारोबारी सुगमता के मामले में. कारोबार शुरू करने में सहूलियत और व्यापार-अनुकूल माहौल बनाने तथा विदेशी निवेश आकर्षित करने में सरकार के प्रयासों के मद्देनजर विश्व बैंक जो कारोबारी सुगमता सूचकांक जारी करता है उसमें पिछले साल 190 देशों के बीच सौवें स्थान से तेईस पायदान की छलांग लगाकर भारत 77वें स्थान पर पहुंच गया. अलबत्ता इस सूचकांक में मिली प्रगति से छोटे कारोबारियों की बाबत कोई निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा.

इस तरह के और भी हवाले दिए जा सकते हैं. ऊपर दिए गए तथ्यों का यह अर्थ नहीं है कि मोदी के आने से पहले सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. सवाल है कि आम लोगों से ताल्लुक रखने वाले मानकों पर सुधार हुआ है, या बिगाड़ हुआ है?

भारत को अगर दुनिया की नजरों में अपना मान बढ़ाना है तो वह देश के आम लोगों के जीवन को बेहतर बना कर तथा सामाजिक शांति और प्रसन्नता के मानकों पर प्रगति करके ही हो सकता है. किसी शासनाध्यक्ष का बहुत विदेश यात्राएं करना एक बात है, और दुनिया की निगाह में सचमुच उस देश की छवि कैसी बनती है यह बिलकुल दूसरी बात है.

जन-सरोकारों तथा लोकतांत्रिक तकाजों को ध्यान में रखकर होने वाले अध्ययनों के नतीजे हमें चौंकाते नहीं हैं, दरअसल ये हमारे रोज के अनुभवों की पुष्टि-भर करते हैं. इन अध्ययनों का जिक्र इसलिए जरूरी लगता है कि ताकि हम इस सवाल की तह में जा सकें कि क्या वाकई दुनिया में भारत का मान बढ़ा है?


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