बिगड़े बोल से उजागर होता नेताओं का वर्ग चरित्र


article on political class of india and its social-political behavior

 

न्यायपालिका की फटकार के बाद चुनाव आयोग द्वारा एक के बाद एक नेता पर लगती पाबंदी के बावजूद लोकतंत्र के चुनावी महापर्व में भारतीय राजनेताओं के बिगड़े बोल और बदजुबानी ने देश के राजनेताओं के वर्गीय चरित्र को पूरी तरह उजागर कर दिया है.

राजनेताओं को मिलने वाली सुख सुविधाओं और सत्ता के प्रति आसक्ति और उसके छिनने से होने वाली बेचैन बयानबाजी राजनीति के इस नव चरित्र को उद्घाटित करती है. यह भारतीय राजनीति में मूल्यों की गिरावट व वर्तमान राजनीति के ऐश्वर्यपूर्ण करियर होने की स्पष्ट पहचान चिह्न है.

भारतीय राजनीति की वर्तमान दशा-दिशा के कारण देश के प्रबुद्ध जनों व साथ ही आमजनों का भी भारतीय राजनीति से विश्वास उठता जा रहा है. राजनीति आज सर्वाधिक लाभदायक सुरक्षित वापसी वाला निवेश अर्थात सर्वोत्तम फलदायक व्यवसाय बन चुका है. राजनीति की वर्तमान दशा को हम महज कुछ लोगों की कारगुजारियों व बयानबाजी के रूप में रेखांकित कर खारिज नहीं कर सकते हैं. इन स्थितियों को वर्तमान लोकतंत्र के विकास क्रम से जोड़कर देखना होगा तभी इन स्थितियों का सही मूल्यांकन एवं नए उभरते हुए मूल्यों का विश्लेषण एवं उनमें सुधार किया जा सकता है.

वास्तव में हमारा यह लोकतंत्र प्रतिनिधियों का लोकतंत्र है जिसके तहत हम राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए शासन के विभिन्न स्तरों पर अपने लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करते है और अन्तोगत्वा यह चुने हुए प्रतिनिधि समाज में एक अलग शासक वर्ग का रूप धारण कर लेते है. इस वर्ग की भाषा, व्यवहार, सुख सुविधापूर्ण जीवनशैली और शारीरिक भाषा से हम बिना किसी कठिनाई व मापदंडों के अपने सामान्य ज्ञान पर आधारित दृष्टिकोण से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह हमारे लोकतंत्र में एक विषेशाधिकार प्राप्त वर्ग है. जिसकी इतिहास की किन्हीं भी शासक वर्गों से तुलना की जा सकती है.

सत्ता के लिए सांप्रदायिक और जातीय ध्रुवीकरण के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए बेताब राजनेताओं के बिगड़े बोल उसी नव शासक वर्ग के एक ऐसे प्रतिनिधि हैं जिन्हें इस विषेशाधिकार प्राप्त वर्ग में भी एक खास रुतबा हासिल है. यह जबानी अराजकता ऐसे नव शासक वर्ग की भाषा शैली को परलिक्षित करता है जो अपने शासकीय रुतबे को बनाए रखने के लिए और सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी नियम को ताक पर रखकर सत्ता बनाए और बचाए रखने को उतारू जान पड़ता है.

ऐसा नहीं है कि वैमनस्य फैलाने के लिए बदजबानी करने वाले राजनेता अपनी विधायी सीमाएं नहीं जानते हैं अथवा वे चुनावी आचार संहिताओं से अनभिज्ञ हैं. परंतु यह नव शासक वर्ग और उनके वर्गीय वर्चस्व के लगातर हावी होते जाने और लोकतंत्र के कमजोर होते जाने को परिलक्षित करता है. चुनावी राजनीति के लगातार मंहगा होते जाने और आर्थिक रूप से कमजोर राजनीतिक पक्षों का हस्तक्षेप कमजोर होते जाने ने भी इस नव शासक वर्ग के वर्गीय वर्चस्व को और मजबूत बनाया है.

लोकतांत्रिक संस्थााओं के इस कमजोर होते जाने की निरंतर जारी प्रक्रिया को पिछले दौर में राजनीति में कॉरपोरेट पूंजी के बढ़ते दखल ने और भी अधिक भयावह बना दिया है. यह लोकतांत्रिक संस्थानों का कमजोर होते जाना ही है कि जिस चुनाव आयोग की कार्रवाई से इस चुनावी महापर्व सभी राजनेताओं को डरना चाहिए था उसे कार्रवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट को फटकार लगाते हुए बेजुबान नेताओं पर कार्रवाई के लिए कहना पड़ा. यदि सुप्रीम कोर्ट यह फटकार नहीं लगाता और न्यायपालिका के दखल के बाद चुनाव आयोग कोई कार्रवाई नहीं करता तो इन चुनावों में चुनाव आयोग केवल नोटिस आयोग ही बनकर रह जाता. हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मामले में चुनाव आयोग अभी तक भी नोटिस आयोग की अपनी पूर्व स्थिति से आगे बढ़ता दिखाई नहीं दे रहा है. बावजूद इसके कि चुनाव आयोग ने सेना की कार्रवाई के राजनीतिक इस्तेमाल को रोकने के लिए एक लिखित नोटिस जारी किया. पीएम मोदी खुले तौर पुलवामा और बालाकोट पर युवओं से उनका पहला वोट मांगते दिखाई पड़े और चुनाव आयोग नोटिस से आगे नहीं बढ़ पाया.

वास्तव में राजनीति आज कोई समाज सेवा नहीं निश्चित मुनाफे वाला व्यवसाय है जिसमें मासिक वेतन तो है ही ढेरों ऐसे भत्ते हैं जिन पर पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च करती है. आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार देश के चुने हुए लोकसभा और राज्यसभा सासंदों के ऊपर पिछले चार सालों में होने वाला खर्च 1997 करोड़ रुपये से भी अधिक है और यदि बात मंत्रियों की हो तो यह खर्च ओर कई गुणा बढ़ जाता है.

एक सांसद को जहां दिल्ली में रहने के लिए घर, वार्षिक 48 हवाई यात्राएं, असंख्य रेल यात्राओं, वार्षिक सत्तर हजार मुफ्त फोन कॉल और मुफ्त मेडिकल सुविधा मिलती है. वहीं कैबिनेट मंत्री को 900 वर्ग मीटर से बड़ा बंगला, नौकरों के लिए छह से सात क्वार्टर, एक ऑफिस कॉम्पलेक्स, वेतन और अन्य भत्ते लगभग एक लाख तक, निजी सचिव, ओएसडी, चपरासी, ड्राइवर आदि सहित सोलह लोगों का स्टाफ हासिल होता है. राज्य और उप मंत्रियों के लिए इसकी सीमा 13 तक होती हैं. इसके अलावा सुरक्षाकर्मी, वाहन, पेट्रोल और असीमित एसटीडी, आइएसडी और स्थानीय फोन कॉल भी इनके खर्चों में शामिल होते हैं. ऐसी सुविधाओं के छीन या कटौती हो जाने या नहीं मिलने के खतरों को भांपकर यदि राजनेता ध्रुवीकरण के लिए बिगड़े बोल बोलें तो इसमें कोई हैरत वाली बात नहीं है.

दरअसल यह मसला किसी एक राजनेता अथवा इस नव शासक वर्ग के किसी एक अंग का नहीं वरन् वर्तमान लोकतंत्र व आधुनिक अर्थव्यवस्था में केन्द्रीयकरण के कारण एक विशेष शासक वर्ग के निर्मित होने का है. यह एक ऐसा अल्पसंख्यक वर्ग है जो बहुसंख्यक वर्ग के हितों को क्षति पहुंचाकर अपने हितों की पूर्ति करता है. प्रतिनिधियों के इस लोकतंत्र में प्रतिनिधियों का चुनाव यानि राजसत्ता को कुछ व्यक्तियों में सीमित करना अर्थात् सत्ता का केन्द्रीयकरण है.

सत्ता का यह केन्द्रीयकरण चुने हुए प्रतिनिधियों को विषेशाधिकार प्राप्त शक्ति केन्द्रों में परिवर्तित करता है. हालांकि सत्ता उत्तरदायित्वों का बोझ बढ़ाती है लेकिन यदि लोकतंत्र में भी समयानुसार परिवर्तन न किए जाए तो विषेशाधिकार सम्पन्न जनप्रतिनिधि राज्य को अपनी निजी सम्पत्ति समझकर व्यवहार करने लगते हैं. जिस कारण सत्ता के साथ उत्तरदायित्व की भावना में उत्तरोत्तर गिरावट होती जाती है.

लोकतंत्र ऐतिहासिक, आर्थिक राजनीतिक, सामाजिक व राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय कारणों की श्रृंखला का परिणाम होता है. इसके सम्बन्ध में कोई एक सूत्र अथवा सूत्रवादी मत अंतिम सही नहीं होता. यह एक निरंतर विकासमान एवं परिवर्तनशील व्यवस्था है. भारतीय संदर्भों में भी यह अनेक संघर्षों एवं आंदोलनों का परिणाम है, परन्तु भारतीय राजनीति में यह स्थिति आई एवं इसका आना अनिवार्य भी था क्योंकि भारतीय लोकतंत्र विकास एवं बदलावों से अछूता अपनी प्रौढावस्था में पहुंच चुका है. इस लोकतंत्र में एक वर्ग विषेश का जन्म होकर उसकी निरकुंशता व स्वच्छंदता बनी है, क्योंकि इस लोकतंत्र का विकास अवरुद्ध होकर इसमें शिथिलता व ठहराव आ चुका है. अब आवश्यकता है इस लोकतंत्र में विकास की कुछ बुनियादी बदलावों की.

राजनेताओं के बेलगाम होते बोलों पर मौजूदा पाबंदी अनियंत्रित और निरंकुश होते नव शासक वर्ग पर लगाम लगाने को एक सीख बनाने से यह शुरुआत हो सकती है अन्यथा वर्तमान भारतीय राजनीति और लोकतंत्र जुमलेबाजी और राजनीतिक स्टंटों में ही फंसा रहेगा.


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