पद और पैसे का पर्याय बनती राजनीति


article on political degradation in terms of greed of power and money

 

कर्नाटक विधानसभा में हुए शक्ति परीक्षण में कुमारस्वामी सरकार के गिर जाने पर शायद ही किसी को आश्चर्य हुआ हो. कांग्रेस के तेरह और जनता दल (एस) के तीन विधायकों के इस्तीफे के बाद यह साफ दिख रहा था कि दोनों पार्टियों की साझा सरकार के पास बहुमत नहीं रह गया है. फिर भी सरकार बचाने के लिए हर तरह की कवायद की गई. और इस कोशिश में जहां तक संभव हो विश्वास मत पर मतदान में देर करने की तरकीब भी आजमाई गई, इस आस में कि शायद कोई चमत्कार हो जाए. पर कोई चमत्कार नहीं हुआ और सिर्फ चौदह महीनों बाद कुमारस्वामी सरकार को जाना पड़ा.

कर्नाटक के इस नाटक में अब येदियुरप्पा के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनने का दृश्य मंचित होना ही बाकी रह गया है. लेकिन यह दुखांत नाटक है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि इस नाटक का सिर्फ अंत नहीं, बल्कि आरंभ से लेकर अंत तक सब कुछ दुखद है. पर सवाल है कि इसकी वजह क्या है. वजह यह है कि मौजूदा राजनीति पद और पैसे का पर्याय होकर रह गई है और कर्नाटक का घटनाक्रम इसी का प्रतिबिंब है.

कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (एस) के इस्तीफा देने वाले विधायकों से कोई पूछे कि वे राजनीति में क्यों आए, तो वे यही कहेंगे कि देशसेवा और समाजसेवा की खातिर. लेकिन निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में जब इसका मौका मिला तो उन्होंने इस्तीफा क्यों दिया? इसके जवाब में वे कहेंगे कि पार्टी में उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं हो रहा था. शादी के कई विज्ञापनों में ‘सम्मानजनक विवाह’ की बात लिखी रहती है. समझने वाले जानते हैं कि यह आकर्षक दहेज की तरफ इशारा करने का ही एक ढंग है. इसी तरह, यह अनुमान लगाना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं था कि पार्टी में ‘सम्मानजनक व्यवहार’ न होने की शिकायत करने वाले विधायकों की असल तकलीफ क्या थी.

एक समय वे टिकट पाने के लिए पार्टी की चौखट पर रोज फूल चढ़ाते रहे होंगे, तब पार्टी और पार्टी हाईकमान के प्रति अपनी निष्ठा की दुहाई देते वे थके नहीं होंगे. लेकिन टिकट भी मिल गया और वे जीत भी गए, पर अब वे विधायक बने रहने को राजी नहीं थे! क्या चौदह महीनों में उन्हें विधानसभा से वैराग्य हो गया? अगर वैराग्य हो गया था तो मुंबई के एक होटल में जाने की क्या जरूरत थी, किसी वन-प्रांतर में चले जाते! उनमें सोया हुआ पराक्रम जाग गया था. वे दिखा देना चाहते थे कि उनकी मुराद पूरी न करने का क्या हश्र होता है. वे चाहें तो मंत्री भी बन सकते हैं और जीतकर फिर से आ सकते हैं. बीजेपी दिखा देना चाहती थी कि उसका बहुमत नहीं है तो क्या, वह बहुमत में आ सकती है. अल्पमत को बहुमत में बदलना तो उसके बाएं हाथ का खेल है.

कर्नाटक का नाटक चलते रहने के बीच ही बीजेपी ने गोवा में कांग्रेस के सत्रह में से दस विधायकों को अपने में मिला लिया. और चूंकि अब जरूरत नहीं रह गई थी, सो सहयोगी दल गोवा फारवर्ड पार्टी को गठबंधन धर्म निभाते हुए चलता कर दिया. बताते हैं कि बीजेपी का दामन थामने वाले इन दस विधायकों में आठ कैथोलिक हैं. यानी सत्ता-सुख के इस खेल में किसी भी तरफ से हिंदुत्व आड़े नहीं आया.

कर्नाटक का नाटक ऐसे वक्त हुआ जब राज्य का काफी हिस्सा सूखे की चपेट में है. पर लगा कि किसी पार्टी को सूखे की मार झेल रहे किसानों की फिक्र है?

कुमारस्वामी सरकार गिर गई तो येदियुरप्पा ने इसे लोकतंत्र की जीत करार दिया. यानी दूसरी पार्टियों में सेंध लगाकर सरकार गिराने का जो खेल चला वह अपनी कुर्सी-लालसा के लिए नहीं, लोकतंत्र की भलाई के लिए था! एक समय लोकतंत्र को बचाने के लिए दलबदल कानून बना था. अब दलबदल में लोकतंत्र की जीत दिखाई दे रही है! यह जीत गोवा में भी दर्ज की गई. इस तरह से लोकतंत्र को मजबूत करने का बीजेपी ने एक और कारनामा तेलुगू देशम के छह में से चार राज्यसभा सदस्यों को अपने में मिलाकर किया.

अब तेलुगू देशम को भय सता रहा है कि बीजेपी ने राज्यसभा में उसका जो हाल किया वही विधानसभा में भी न कर दे. राज्यसभा में बीजेपी अपना बहुमत बनाने को बेचैन है, इसलिए वहां दूसरे दलों में सेंधमारी की और भी घटनाएं आने वाले महीनों में हो सकती हैं.

तोड़-फोड़ के इस खेल में और भी टीमें शामिल हैं, पर बीजेपी इस वक्त चैंपियन है. उसके सर्वोच्च नेताद्वय में से एक ने गुजरात में राज्यसभा चुनाव में खुलेआम तोड़-फोड़ में कोई कसर नहीं रखी थी, और दूसरे शिरोमणि को प्रधानमंत्री होते हुए भी खुलेआम एक रैली में यह कहते संकोच नहीं हुआ कि तृणमूल कांग्रेस के चालीस विधायक हमारे संपर्क में हैं. जहां इतने महान स्तर से प्रोत्साहन मिल रहा हो वहां दलबदल के बाजार में तेजी आना स्वाभाविक है. क्या विडंबना है कि जो भ्रष्टाचार से लड़ने का दम भरते हैं उन्हें जनप्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त में कोई भ्रष्टाचार नजर नहीं आता! दलबदल कराना भी तो दूसरों की (राजनीतिक) कमाई पर डाका डालना है.

दलबदल कानून को और सख्त बनाने के लिए यह संशोधन किया गया कि सदन में किसी पार्टी के दो तिहाई सदस्यों के अलग होने पर ही उसे टूट माना जाएगा, वरना सदस्यता चली जाएगी. लेकिन हमारी राजनीति में पद और पैसे का प्रभुत्व इस हद तक हो गया है कि दो तिहाई सदस्यों को भी तोड़ने का इंतजाम हो जा रहा है. तेलंगाना राष्ट्र समिति ने कांग्रेस के अठारह में से बारह विधायक तोड़ लिए. तेलंगाना में सत्तारूढ़ दल को अकेले दम पर अच्छा-खासा बहुमत मिला था. उसे फिर भी संतोष नहीं हुआ.

जिस तरह से तोड़-फोड़ का, उसी तरह से अपने लोगों को जोड़े रखने का भी सबसे कारगर तरीका लालच की पूर्ति करना ही दिखाई देता है. कर्नाटक में कुमारस्वामी सरकार के सभी तेईस मंत्रियों ने इस्तीफे दे दिए थे, ताकि बागियों को बताया जा सके कि उनके लिए जगह वहां खाली है जहां वे चाहते हैं. लेकिन गठबंधन ने दवा लाते-लाते बहुत देर कर दी थी, तब तक मरीज कहीं और भर्ती हो चुका था. कर्नाटक में कांग्रेस-जद (एस) गठबंधन को सहानुभूति का जो लाभ मिल सकता था वह बागी विधायकों को मनाने के लिए किसी भी हद तक जाने और विधानसभा अध्यक्ष के टालमटोल के कारण नहीं मिल पाया. गठबंधन को न माया मिली न राम.

अपने लोगों को जोड़े रखने का एक नायाब उदाहरण जगन मोहन रेड्डी ने पेश किया. पांच उपमुख्यमंत्री बनाए. यही नहीं, बताया गया कि जो लोग मंत्री बनाए गए हैं वे ढाई साल तक ही अपने पर रहेंगे. फिर दूसरे लोग आ सकते हैं. इस तरह ज्यादा संख्या में विधायकों को मंत्री बनने का मौका मिल सकेगा और पार्टी में असंतोष पनपने की कम-से-कम गुंजाइश रहेगी. यह हालत तब है जब जगन मोहन के सामने किसी सहयोगी दल को संतुष्ट रखने की मजबूरी नहीं है, उनकी पार्टी को अकेले दम पर बहुमत हासिल है.

एक कानून के जरिए यह मर्यादा निश्चित की गई कि अधिक से अधिक कितने मंत्री बनाए जा सकते हैं, लोकसभा या विधानसभा की कुल सदस्य-संख्या के पंद्रह फीसद तक. लेकिन जहां मंत्री बनकर ही देशसेवा की अदम्य हो चाह, वहां राह! क्या पता, मंत्रिमंडल की हदबंदी करने वाले कानून को देशसेवा में बाधक मानकर आज नहीं तो कल उसे रद्द करने पर सर्वसम्मति बन जाए.

कर्नाटक में चले तोड़-फोड़ के खेल में बीजेपी के कप्तान थे येदियुरप्पा, जिनके पहली बार मुख्यमंत्री रहते राज्य में भ्रष्टाचार का कीर्तिमान बना था. अब पार्टी फिर से राज्य की कमान उनके हाथ में सौंपने को बेचैन थी. यह भी गौरतलब है कि जो पार्टी वन नेशन वन इलेक्शन का राग अलापती रहती है उसे चौदह माह बाद ही एक सरकार को गिराना जरूरी लगने लगा, भले इसके लिए पंद्रह-सोलह विधानसभा सीटों पर फिर से चुनाव कराना पड़े.

संसद और विधानसभा से लेकर नगर निकाय और पंचायत तक राजनीति पद और पैसे का पर्याय होती जा रही है. अपनी जनसंख्या के कारण भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है. पर लगता है यह दुनिया का सबसे भ्रष्ट लोकतंत्र भी हो गया है. इसकी चिंता किसे है?


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